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भारत-कनाडा संबंधों में तल्ख़ी: अमेरिकी खेमे द्वारा 'मित्रता' की क़ीमत वसूलने की कोशिश

यह संभव नहीं है कि इस मामले में भी कनाडा द्वारा उठाया गया एक भी कदम अमेरिका व अन्य फाइव आईज देशों की सलाह व सहमति के बगैर उठाया गया हो।
canada and india
फ़ोटो साभार : ट्विटर/@JustinTrudeau

कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो द्वारा भारत पर एक कनाडाई नागरिक की हत्या कराने के आरोप के बाद भारत सरकार द्वारा ट्रूडो प्रशासन पर अपने घरेलू चुनावी लाभ के लिए कथित खालिस्तानी आतंकवादियों को शरण व संरक्षण के इल्जाम के बाद दोनों देशों के संबंधों में गहरी तल्खी आई है। दोनों ओर से ही वरिष्ठ कूटनीतिकों को देश छोड़ने के आदेश दिए जाने एवं भारत द्वारा कनाडा में वीजा सेवाएं निलंबित करने से यह तनाव और अधिक बढ़ गया है।

इस घटनाक्रम पर दोनों देशों की मीडिया में तुलानात्मक वैश्विक स्थिति, अर्थव्यवस्था, व्यापार, पर्यटन, शिक्षा व नौकरी के लिए कनाडा जाने वाले भारतीयों, आदि के परिप्रेक्ष्य में बहुत से विश्लेषण किए जा रहे हैं। किंतु यहाँ इस मुख्य पहलू को समझना जरूरी है कि कनाडा न सिर्फ सोवियत खेमे के अवसान के बाद तीन दशक तक अमेरिकी नेतृत्व में एकमात्र वैश्विक धुरी रहे जी7 का हिस्सा है बल्कि उसके सैन्य गठबंधन नाटो का सदस्य ही नहीं, नाटो के कोर ग्रुप 5 आंग्ल-सैक्सन देशों (अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड) में से एक है।

नाटो के अन्य सदस्य जैसे फ्रांस, जर्मनी, तुर्की, हंगरी, पोलैंड, इटली, आदि कई मौकों पर कुछ भिन्न नीति अपनाते रहे हैं या अमेरिकी नीति के साथ एकमत होने के लिए अपने हितों की पूर्ति हेतु थोडी बहुत सौदेबाजी करते रहे हैं। किंतु ये पांचों आंग्ल-सैक्सन देश विदेश नीति, सुरक्षा और युद्ध के सवाल पर हमेशा एकमत रहते हैं और इनकी सेनाओं ने दुनिया के हर कोने में अमेरिकी सेनाओं के साथ हिस्सा लिया है। नाटो के अंदर भी ये पांच ही देश हैं जिनकी आंतरिक व बाहरी जासूसी एजेंसियां 'फाइव आईज' नामक प्रक्रिया के अंतर्गत पूर्णतया एकीकृत ढंग से काम करती हैं और सुरक्षा व इंटेलीजेंस संबंधित मामलों में इनके बीच लगभग कोई दुराव छिपाव नहीं है।

अतः इतनी नजदीकी सुरक्षा व विदेशी नीतियों के कारण यह संभव नहीं है कि इस मामले में भी कनाडा द्वारा उठाया गया एक भी कदम अमेरिका व अन्य फाइव आईज देशों की सलाह व सहमति के बगैर उठाया गया हो। खुद जस्टिन ट्रूडो व कनाडाई सरकार ने ही नहीं, अमेरिकी, ब्रिटिश, ऑस्ट्रेलियाई सरकार के प्रतिनिधियों के बयान इसकी पुष्टि करते हैं कि यह पूरा घटनाक्रम इनकी पूरी सहमति के साथ ही घटित हुआ है।

आरंभ में जो थोडा बहुत भ्रम बना हुआ था वह भी अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन तथा विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकेन के गत दो दिनों के बयानों से दूर हो गया है। ब्लिंकेन के ताजा बयान को कुछ विस्तार से उद्धृत करना जरूरी है-

"प्रथम, हमें प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो द्वारा लगाए गए आरोपों पर गहरी चिंता है। हम आरंभ से ही इस मुद्दे पर कनाडाई सहयोगियों के साथ गहरा परामर्श करते रहे हैं - सिर्फ परामर्श ही नहीं उनके साथ कोओर्डिनेट करते रहे हैं। हमारे नजरिए से अति आवश्यक है कि कनाडाई जांच आगे बढ़े और भारत इसमें कनाडा से सहयोग करे। हम जिम्मेदारी तय होने के पक्ष में हैं और जांच पूरी हो परिणाम तक पहुंचना जरूरी है। ….

हम पारदेशीय दमन की घटनाओं के बारे में अत्यंत सजग हैं और इसे बहुत बहुत गंभीरता से लेते हैं। मेरी राय से अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए यह अहम है कि कोई देश ऐसा करने के बारे में सोचे भी नहीं।"

कूटनीतिक भाषा के परिप्रेक्ष्य में यह बहुत सख्त भारत विरोधी बयान ही नहीं एक प्रकार से चेतावनी है। अमेरिकी सत्ता द्वारा दूसरे देशों में ऐसे गैरकानूनी दमन के विरोध की बात में कितना गहरा ढोंग है उसकी बात अभी हम छोड़ देते हैं और इस बात को समझने की कोशिश करते हैं कि पिछले कुछ समय से भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए रेड कार्पेट बिछाने और उसके साथ क्वाड, आई2यू2, आईएमईसी जैसे आर्थिक व सैन्य समझौते करने और उसे चीन-रूस विरोधी ग्लोबल नाटो तक की भविष्य की योजना में गठबंधन सहयोगी के रूप में आमंत्रित करने वाली अमेरिकी सत्ता अभी इस मुद्दे पर ऐसे संकेत क्यों दे रही है। इसे समझने के लिए हमें वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में भारतीय विदेश नीति और उसके घरेलू आर्थिक-राजनीतिक कारणों को अत्यंत संक्षेप में समझना होगा।

भारतीय पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था की विशिष्टता है कि अपनी लाभप्रदता बढ़ाने हेतु यह सस्ती स्थिर पूंजी के लिए चीन और हाल के दिनों में रूस पर अत्यंत निर्भर हो गई है। इस समय भारतीय कॉर्पोरेट का बड़ा हिस्सा अपने उत्पादन में काम आने वाली मशीनों, कच्चे माल, ईंधन व माध्यमिक वस्तुओं (पार्ट्स) के लिए निरंतर चीन, रूस, सऊदी अरब, आदि देशों पर निर्भर है। यह स्रोत बंद हो जाए तो उसकी लाभप्रदता तेजी से गिर जाएगी। उत्पादन की इन सस्ती इनपुट के प्रयोग से वह अपने माल की लागत घटाकर अंतिम उत्पादों को भारतीय दामों पर बेचकर ऊंचा मुनाफा प्राप्त करता है।

याद रहे कि जब तक सस्ते चीनी उपभोक्ता उत्पाद भारत में आयात होकर बिक रहे थे तब तक इनके खिलाफ मीडिया और बीजेपी दोनों निम्न गुणवत्ता और राष्ट्रीय हित विरोधी होने का अभियान चलाते थे। किंतु अब ऐसे उपभोक्ता उत्पादों का आयात तो घट गया है किंतु पूंजीपति अपने अंतिम उत्पादों की असेंबली में चीन से इनपुट बहुत बड़े पैमाने पर आयात कर रहे हैं जैसे दवाओं के लिए बेस रसायन, स्टील, मशीनें और उनके पुर्जे, इलेक्ट्रिकल व इलेक्ट्रॉनिक उपकरण व पार्ट्स, आदि।

आज चीन से आयात पहले से बहुत अधिक है लेकिन अब भारतीय कॉर्पोरेट मीडिया व बीजेपी को न इसमें गुणवत्ता की समस्या नजर आती है, न ही राष्ट्रीय हित की, क्योंकि अब यह सस्ते उत्पाद सीधे उपभोक्ता बाजार में उसके साथ होड़ करने के बजाय खुद इन कॉर्पोरेट द्वारा अपने उत्पादन की लागत घटाने के लिए आयात किए जा रहे हैं।

दूसरी ओर, पूंजी निवेश तथा निर्यात के लिए भारतीय कॉर्पोरेट अमेरिकी खेमे के देशों पर निर्भर हैं। भारत का मुख्य निर्यात सेवाओं का निर्यात है। इसमें भारत में सस्ते श्रम से उत्पादित आईटी सेवाएं और सीधे सीधे कुशल श्रमिकों दोनों का निर्यात शामिल है। ये कुशल श्रमिक विदेशों में जाकर प्रति वर्ष 120 अरब डॉलर से अधिक भारत भेजते हैं जो वस्तुओं के क्षेत्र में बड़े व्यापार घाटे की भरपाई करने में अहम है। इस प्रकार कुशल श्रम के दोनों प्रकार के निर्यात पर ही भारत का भुगतान संतुलन टिका हुआ है और लगभग 600 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार भी। कुशल श्रमिकों के इस निर्यात का अधिकांश अमेरिकी नेतृत्व वाले इन आंग्ल-सैक्सन देशों को ही होता है। अतः अंग्रेजी शिक्षा जिसमें इन देशों में शिक्षा लेना शामिल है और इन देशों के साथ सांस्कृतिक-वैचारिक व राजनीतिक लगाव भारत के संपन्न उच्च व मध्यम वर्ग की विशिष्टता है क्योंकि उनके जीवन की उपभोक्ता सुख सुविधाएं इसी पर निर्भर है। यही तबका नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा समर्थक है। अतः इनमें से हर देश के साथ व्यापार वार्ताओं एवं समझौतों में भारत सरकार की एक प्रमुख शर्त इन कुशल श्रमिकों के शिक्षा व रोजगार हेतु आप्रवास व वीजा की शर्तों को आसान बनाना रहा है।

चुनांचे भारत सरकार घरेलू राजनीति के लिए जो भी राष्ट्रवादी बातें करे, उसकी नीति इस समय वैश्विक राजनीति के दोनों खेमों से सम्बंधों को एक हद से अधिक बिगड़ने से बचाने की रही है।

2014 में सत्ता में आने के वक्त तो नरेंद्र मोदी की बड़ी राजनीतिक आकांक्षा ही नेहरू से भी बड़ा वैश्विक स्टेट्समैन कहलाने की थी। अतः उन्होंने नवाज शरीफ व शी जिनपिंग दोनों से मित्रता बढ़ाने की कोशिश की थी। मगर घरेलू राजनीति में उन्हें जिस उग्र राष्ट्रवाद का बड़ा मजबूत अवलम्ब है उसके चलते इस रास्ते पर आगे चलना उनके लिए संभव नहीं हुआ। मगर इतना तय है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस व सम्पूर्ण विपक्ष की समस्त तीखी आलोचना झेलते हुए भी मोदी सरकार ने चीन के साथ सम्बंधों को एक हद के आगे बिगड़ने से रोकने की पूरी कोशिश की है। विदेश मंत्री जयशंकर तो इसे स्पष्ट रूप से स्वीकार कर ही चुके हैं।

यही नरेंद्र मोदी नेतृत्व वाली सरकार की विदेश नीति की बुनियाद है। अमेरिकी खेमे के साथ संबंध प्रगाढ़ करते हुए भी, उसके साथ सैन्य संबंध गहराते हुए भी, वह उसके विरोधी चीन-रूस से संबंध इतने बिगाड़ने के पक्ष में नहीं कि भारतीय कॉर्पोरेट पूंजी के लिए सस्ते स्थिर पूंजी इनपुटस के आयात का स्रोत बंद होने से उनकी मुनाफा दर पर आंच आए। पहले दबा-छिपा रहने के बाद यूक्रेन में युद्ध के बाद से यह अंतर्विरोध अत्यंत स्पष्ट होकर सामने आ गया है।

किंतु अमेरिका-नाटो खेमे ने जापान, दक्षिण कोरिया व ऑस्ट्रेलिया सहित भारत के साथ संबंध सुधारने के लिए जो कोशिशें की हैं, उसे कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जो समर्थन दिया है, उन्हें उस निवेश को करना मंजूर नहीं। उन्हें उसका यथोचित रिटर्न चाहिए।

वर्तमान में इन देशों की जनता युद्ध की तब तक विरोधी नहीं, जब तक सामने कोई कमजोर देश हो, जिसे बिना इनके सैनिकों की जानें जाए भारी हवाई बमबारी के बल पर कुचला जा सके। पर इन देशों के कुछ सैनिकों की जन गँवाते ही युद्ध अस्वीकार्य हो जाता है। अतः इन्हें युद्ध के लिए प्रोक्सी या एवजी सैनिक चाहिएं। रूस के विरुद्ध भी ये देश अंतिम यूक्रेनी तक लडने के लिए कटिबद्ध हैं, पर अपनी फौज भेजने के लिए नहीं। चीन के विरुद्ध भी इन्हें एक और जेलेंस्की की तलाश है। संभवतः भारतीय सत्ता से इन्हें ऐसे दुस्साहस की उम्मीद थी।

यह उम्मीद फिलहाल पूरी होती नजर नहीं आ रही है। अतः अब इन्हें कैरटस एंड स्टिक्स (लोभ व दंड) की नीति की आवश्यकता आ खड़ी हुई है। एक और इनके समर्थन से प्रधानमंत्री मोदी को वैश्विक स्टेट्समैन बनने का लोभ दिखाया जा रहा है। दूसरी ओर, उनकी मनमर्जी पूरी न होने पर दुष्ट देशों की श्रेणी में डालने और उसकी सजा भोगने की धमकी इशारों में दी जा रही है। यह बातें अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में सीधे नहीं कही जाती हैं। फिर भारत एक बड़ा देश है। उसे सीधे धमकाना आसान भी नहीं है। पर अमेरिकी साम्राज्यवादी खेमा कभी किसी का दोस्त नहीं रहा। वह कूटनीतिक सौदेबाजी में यह सब कुटिल चालें प्रयोग करता है। मौजूदा घटनाक्रम इसका एक क्लासिक उदाहरण प्रतीत हो रहा है। परिणाम क्या होता है, अभी देखना होगा।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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