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अमृतपाल के बहाने: हमेशा लहरों पर सवार रहा पंजाब

असम जाने से पहले अमृतपाल सिंह खालसा पंजाब में कई सवाल छोड़ गया है। कहिए कि सुदूर विदेशों तक।
Amritpal Singh
फ़ोटो साभार: ट्विटर

'वारिस पंजाब दे' के मुखिया और अलगाववादी अमृतपाल सिंह की गिरफ्तारी के बाद पंजाब में खामोशी है। बेशक सूबे भर में पुलिस और अर्धसैनिक बल फ्लैग मार्च कर रहे हैं। पूरे वृतांत के एक अध्याय का लगभग अंत हो गया है लेकिन कुछ सवाल मौंजू हैं।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह सरहदी सूबा बार-बार 'असामान्य' क्यों होता है? ऐसे हालात क्यों बनते हैं कि पहले समस्या खड़ी की जाती है और फिर उसे हल करने का दावा हुकूमतें करती हैं लेकिन समस्या के बीज कहीं न कहीं जमीन में मौजूद रहते हैं।

पंजाब शुरू से ही किसी न किसी 'लहर' की जद में रहा है। 1947 में देश विभाजित हुआ तो सबसे ज्यादा नागवार असर इसी सरजमीं पर पड़ा। तकरीबन दस लाख हिंदू और सिख पाकिस्तान के हिस्से चले गए पंजाब से उजड़ कर भारतीय पंजाब आए और लगभग इतने ही मुसलमान यहां से हिजरत करके उधर चले गए। कई दिनों तक दंगा-फसाद और कत्लेआम का खूनी सिलसिला जारी रहा।

पचास के दशक में अलग पंजाबी सूबे की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हुआ और 1966 में हरियाणा और हिमाचल प्रदेश वजूद में आए। शेष बचा महापंजाब आज का पंजाब है!

66 के बाद पंजाब में हरित- क्रांति आई और उसकी अलामतें आज तक बहसतलब हैं। सत्तर के दशक में राज्य में नक्सल लहर ने दस्तक दी। यहां बाकायदा नक्सल आंदोलन चला। नाटककार गुरशरण सिंह, अजमेर सिंह औलख, साहित्यकार जसवंत सिंह कंवल, कवि अवतार सिंह पाश, लाल सिंह दिल, अमरजीत चंदन, संतराम उदासी और हरभजन हलवारवी... उसी दौर की देन हैं। इन नामों को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक जाना जाता है।

संगरूर से सांसद सिमरनजीत सिंह मान आज भी खालिस्तान के पक्ष में बोलते हैं लेकिन यह भी जानना चाहिए कि जब पंजाब में नक्सली लहर चली थी तो पहला फर्जी पुलिस मुकाबला मान ने ही फरीदकोट में बनाया था। वह तब आईपीएस अधिकारी थे और फरीदकोट के पुलिस अधीक्षक। सरकार की कमान प्रकाश सिंह बादल के हाथ में थी। दोनों पुलिस ज्यादातियों के नाम पर आज भी सियासी रोटियां सेकते हैं!

नक्सली लहर के बाद; जिसे हुकूमत ने बेरहमी से कुचला था-पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद की लहर ने सिर उठाया। आरोप रहा कि राष्ट्रपति, केंद्रीय गृहमंत्री और सूबे के मुख्यमंत्री रहे ज्ञानी जैल सिंह ने अकालियों से अदावत के चलते दमदमी टकसाल से वाबस्ता धर्म प्रचारक संत जरनैल सिंह भिंडरांवाला को खड़ा किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सहमति के बगैर यह संभव नहीं था। भिंडरांवाला धीरे-धीरे केंद्र और कांग्रेस के हाथ से निकल गया। पंजाब में आतंकवाद का नंगा नाच होने लगा।

जून, 1984 को ऑपरेशन ब्लूस्टार हुआ। यह सैन्य ऑपरेशन गोया सिख समुदाय को न भरने वाले जख्म दे गया। नवंबर, 1984 में प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी की हत्या उन्हीं के सिख सुरक्षाकर्मियों ने कर दी। उसके बाद सिख नरसंहार हुआ। कांग्रेस के दामन पर उसके दाग हैं। बेशक सोनिया गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राहुल गांधी माफी मांग चुके हैं। सिख समुदाय का एक बड़ा तबका अतीत के अंधे कुएं से बाहर आ चुका है।

आतंकवाद के काले दौर के बाद पंजाब में लहर आई गायकी और विदेश जाने की। दोनों लहरें जारी हैं। इस बीच पंजाब में छठा दरिया बहने लगा। नशे का दरिया! कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जब किसी न किसी कोने से नशे के चलते मौत की खबर न मिलती हो। पीजीआई और संस्थानों के शोध पुष्टि करते हैं कि औसतन तीन नौजवान नशे के चलते रोजाना जिंदगी की जंग हारते हैं।

दो साल पहले पंजाब से चले किसान आंदोलन ने समूचे देश की दशा-दिशा बदली। मगरूरी अथवा जिद्दी हुकूमत को झुकने पर मजबूर कर दिया। उस किसान आंदोलन ने पूरे विश्व में अपनी पहचान बनाई।

किसान आंदोलन के दौरान ही अमृतपाल सिंह खालसा पंजाब आता है। दुबई से। लाल किला कांड में सुर्खियों में आए दीप सिद्धू के जरिए। दीप सिद्धू ने 'वारिस पंजाब दे' संस्था बनाई थी। सड़क दुर्घटना में सिद्धू की मौत हो गई। बाद के घटनाक्रम में अचानक अमृतपाल ने खुद को उस संस्था का मुखिया घोषित कर दिया। उसका साथ दिया, सांसद और अकाली दल अमृतसर के प्रधान सिमरनजीत सिंह मान ने। कहा जाता है कि मान की रहनुमाई में ही अमृतपाल फला-फूला।

दीगर है कि अब केंद्रीय एजेंसियां और पंजाब पुलिस उसे आईएसआई का एजेंट बता रही हैं। वह चाहे जो भी हो; पंजाब आया था सूबे को 'असामान्य' करने की मंशा से! सितंबर में हुई दस्तारबंदी के बाद उसने परंपरागत सिख संस्थाओं को खुली चुनौती देते हुए अपना अलहदा वजूद कायम करने की कवायद शुरू की। यहां तक कि 18 मार्च की अपनी फरारी के बाद उसने श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह को एक वीडियो के जरिए कहा कि वह पंजाब के मौजूदा हालात के मद्देनजर सरबत खालसा बुलाएं। जत्थेदार ने सिख बुद्धिजीवियों और धार्मिक शख्सियतों से बाकायदा विचार-विमर्श के बाद इससे किनारा कर लिया। अमृतपाल को सलाह दी कि वह खुद को पुलिस के हवाले कर दे। इसलिए भी कि 'वारिस पंजाब दे' के स्वयंभू मुखिया की गिरफ्तारी के लिए पूरे पंजाब में और पड़ोसी राज्यों में अभियान चलाया गया। कतिपय सिख संस्थाओं ने उसे स्टेट के दमनचक्र का नाम भी दिया। तकरीबन एक माह में सैकड़ों गिरफ्तारियां हुईं। हालांकि ज्यादातर लोगों को छोड़ दिया गया।

अब अमृतपाल सिंह खालसा की छवि पंजाब में ध्वस्त है। नायक बनने की कोशिश करने वाला यह शख्स खलनायक है। उसे असम भेज दिया गया है। उसी जेल में; जहां उसके करीबी संगी-साथी बंद हैं।

असम जाने से पहले अमृतपाल सिंह खालसा पंजाब में कई सवाल छोड़ गया है। कहिए कि सुदूर विदेशों तक। वह आया और खुलकर अलहदा देश खालिस्तान की मांग करने लगा। अजनाला प्रकरण में उसने खुलेआम कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाईं। सिखों के लिए पवित्रतम् श्री गुरु ग्रंथ साहिब की आड़ लेकर। पुलिस और केंद्रीय एजेंसियां चाहतीं तो उसे मौके पर ही या अगले दिन हिरासत में ले सकती थीं। ऐसा नहीं हुआ। क्यों? इसका माकूल जवाब देने के लिए कोई तैयार नहीं। उसके बाद वह लगातार पंजाब में भी चलता रहा। 18 मार्च को फरार हुआ और पुलिस के हाथ 23 अप्रैल को आया। तब तक पुलिस और सरकार का इकबाल दांव पर लग चुका था। राज्य ही नहीं केंद्र सरकार का भी। खैर, बीते कुछ महीनों से कहीं न कहीं पंजाब में 'अमृतपाल सिंह खालसा' लहर चल रही थी। फौरी तौर पर उसका खात्मा हो गया है। कल क्या होगा; किसे मालूम है?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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