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"बैड बैंक" की शब्द पहेली

पूरी कवायद सरकारी बैंकों का बहीखाता साफ़ करने के उद्देश्य से की गई नज़र आती है, ताकि उन्हें निजी संस्थानों को बिक्री के लिए तैयार किया जा सके।
 The Charade of a ‘Bad’ Bank

देश के पहले बैड बैंक के निर्माण को भारतीय बैंक तंत्र के खराब कर्जों (NPA- नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) की समस्या से निजात पाने की दिशा में ब्रह्मास्त्र बताया जा रहा है। इससे ज़्यादा गलत बात कुछ नहीं हो सकती। बल्कि इस तरह के बड़े बैंक का निर्माण उन लोगों के बेहद खराब व्यवहार को दर्शाता है, जिन्हें राष्ट्रीय मौद्रिक जिम्मेदारियों का संरक्षक होना चाहिए।

लेकिन पहली बात कि एनपीए की समस्या का स्तर क्या है? पिछले वित्त वर्ष के खात्मे पर भारतीय बैंक व्यवस्था में 8.35 लाख करोड़ के खराब कर्ज़ मौजूद थे। इनमें से ज़्यादातर सरकारी बैंकों के हिस्से में था। इसमें वह बड़ी मात्रा की संपत्तियां शामिल नहीं हैं, जो महामारी के पहले और इसके दौरान तनाव में आई होंगी। इससे पता चलता है कि एनपीए की कुल कीमत 12 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा हो सकती है। 

इस संकट की दो और विशेषताएं इस समस्या की ज़्यादा बेहतर तस्वीरें दिखा सकती है। पहली, इन खराब़ कर्जों में ज़्यादातर बड़े कॉरपोरेट घरानों के बीच संघनित हैं। दूसरा, नरेंद्र मोदी सरकार के दौरान जिस तरीके से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को अपने खातों में खराब़ कर्जों को निपटाने के लिए "हेयरकट" लेने के लिए मजबूर किया गया। 

पिछले 6 सालों में करीब़ 11 लाख करोड़ रुपये की मात्रा के कर्ज़ों को औने-पौने दामों पर माफ़ (राइट ऑफ़) कर दिया गया है। इस दौरान कर्ज़ों को चुकाने के लिए बड़ी छूट दी गईं। इससे कॉरपोरेट कंपनियों को दूसरों के कर्ज़ों को खरीदने की सहूलियत मिली, जबकि बैंकों को उनके बकाये से हाथ धोना पड़ा। बल्कि गरीब़ भारतीयों के कर्जों को माफ़ करने पर हायतौबा मचाने वालों की कॉरपोरेट के लिए इतने बड़े राइट-ऑफ़ पर चुप्पी हैरान करने वाली है। 

तो क्या बड़े बैड बैंकों की स्थापना से कुछ बदलाव आएगा? यह पूरी कवायद सरकारी बैंकों का खाता साफ़ करने की कोशिश नज़र आ रही है, ताकि निजीकरण के लिए उन्हें तैयार किया जा सके। सरकारी बैंकों के आपस में विलय, यह भी निजीकरण से प्रेरित माना जा रहा था, यह कदम भी बैंकिंग संपत्तियों को इकट्ठा करने वाला था, ताकि उन्हें बेचा जा सके। इसलिए बैड बैंक का पूरा ढांचा दर्शाता है कि खराब कर्जों की समस्या के निदान का कोई उद्देश्य नहीं है।

बैड बैंक में बुनियादी तौर पर दो संस्थाएं हैं- पहली, NARCL (नेशनल एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड), जो 500 करोड़ रुपये से ज़्यादा के खराब़ कर्ज़ों को इकट्ठा करेगी। दूसरी,  IDRCL (इंडिया डेब्ट रेज़ोल्यूशन कंपनी लिमिटेड), जो 5 साल में इन संपत्तियों को बेचेगी। पहले से ही छूट पर बेची जाने वाली इन संपत्तियों के लिए केंद्र सरकार, पहले तय की गई कीमत और अंतिम में जिस कीमत पर इन संपत्तियों को बेचा जाएगा, उनके बीच के नुकसान की स्थिति में अपनी गारंटी देगी। 

सबसे अहम बात, इन दो संस्थाओं का ढांचा उस खराब व्यवहार की संभावना को दर्शाता है, जो इन संपत्तियों को बेचने से हासिल होने वाली कीमत के नाम पर किया जा सकता है। NARCL में सरकारी बैंकों की बहुमत में हिस्सेदारी होगी। जबकि निजी क्षेत्र की IDRCL में बहुमत की हिस्सेदारी होगी, जो इन संपत्तियों की कीमत तय करने के बाद उन्हें बेचने का काम करेगी। इस तरह के ढांचे पर सवाल उठना लाजिमी है, क्योंकि इससे निजी कंपनियों के बीच मिली-भगत से समझौता होने को प्रोत्साहन मिल सकता है। इस तरह की संभावना पूरी तरह वास्तविक है, क्योंकि यह कंपनियां जांच और नियामक संस्थाओं की अनिवार्य खोजबीन से पूरी तरह स्वतंत्र रहेंगी, जो गलत व्यवहार करने के लिए जरूरी है। 

NARCL, जिसमें सरकारी बैंक मुख्य निवेशक हैं, वह बैंकों से 2 लाख करोड़ रुपये के खराब कर्ज़ हासिल करेगा, इनमें से कई बैंक इस संस्था के हिस्सेदार होंगे। लेकिन इन बैंकों की खाता किताबों में इन संपत्तियों की बिक्री को पहले ही "राइट-ऑफ़" किया जा चुका है, इनकी बिक्री IDRCL करेगा। इससे हितों में टकराव का एक स्वाभाविक सवाल खड़ा होता है: कोई भी निजी संस्था (IDRCL) यह सुनिश्चित करने को क्यों प्रेरित होगी कि भारी छूट के साथ मिले खराब़ कर्जों से उन बैंकों के लिए अधिकतम पैसा हासिल हो, जो पहले ही कर्ज़ देकर अपना पैसा गंवा चुके हैं?

एक चीज और, चूंकि सरकार ने 30,600 करोड़ रुपये की अधिकतम गारंटी सिर्फ़ पांच साल के लिए दी है, ऐसे में IDRCL इन संपत्तियों को जल्द से जल्द बेचने को प्रेरित होगा। भले ही इससे उन बैंकों के हितों को नुकसान हो, जो NARCL का हिस्सा हैं। हालांकि बैंकों को NARCL में अपने कर्ज़ों को देने के लिए नगद में 15 फ़ीसदी की भारी छूट मिल रही है, लेकिन इन बैंकों द्वारा लगभग इतना ही निवेश NARCL में हिस्सेदार के तौर पर कर दिया जाएगा, मतलब कीमत बराबर हो जाएगी। प्रभावी तौर पर इसका मतलब होगा कि बैंकिंग उद्योग के नज़रिए से संपत्तियों का प्रस्ताव नगदी से निरपेक्ष होगा क्योंकि व्यक्तिगत तौर पर बैंकों को वही पैसा मिलेगा, जो वे बैड बैंक में अपनी हिस्सेदारी खरीदने के लिए लगाएंगे। बाकी का 85 फ़ीसदी पैसा सरकार द्वारा अधिकतम 5 साल की गारंटी पर दी गई सुरक्षा रसीदों के तौर पर होगा। 

इस पूरे समीकरण में जो सबसे हल्की बात है, वह यह है कि बैंकों द्वारा जो फंसी हुई संपत्तियां दी जाएंगी, उन्होंने पहले ही अपने खाते में उन्हें साफ़ कर दिया है। तो 2 लाख करोड़ रुपये की कीमत का यहा आंकड़ा सिर्फ़ प्रतीकात्मक है। किसी भी संपत्ति की असली कीमत तब पता चलेगी, जब उसे NARCL को हस्तांतरित किया जाएगा। यहां ध्यान रखना होगा कि इस तरह की तनाव में फंसी संपत्तियों का पारदर्शी मूल्य निर्धारण भारत में इनके लिए खराब बाज़ार होने के चलते अतीत में नहीं हो पाया है। 

बल्कि बैंकिंग उद्योग के विशेषज्ञों ने सलाह दी है कि इन संपत्तियों की अधिकतम कीमत 10-20 फ़ीसदी सीमा में हो सकती है। अगर हम इसके लिए 25 फ़ीसदी मूल्य भी मान लें, तो 2 लाख करोड़ के खराब़ कर्जों की कीमत सिर्फ़ 50,000 करोड़ रुपये ही होगी। इसमें से भी सिर्फ़ 7,500 करोड़ रुपये ही तुरंत नगदी में मिल पाएंगे। 

बाकी 42,500 करोड़ रुपये बैंकों को सरकार द्वारा गारंटी प्राप्त प्रतिभूतियों के तौर पर मिलेंगे। जो प्रभावी तौर पर देर से हासिल होने वाला भुगतान होगा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जो समय सीमा बताई है, वह दर्शाती है कि बाद की तारीख़ में ज़्यादा नुकसान होने के डर से बैंक खराब समझौतों को करने के लिए भी मजबूर हो सकते हैं। 

जहां संपत्तियों के मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया हल्की है, वहीं सिर्फ़ एक चीज निश्चित है कि पहले से ही परेशान चल रहे बैंक आगे अपने धन में एक और बड़े कटऑफ की तरफ बढ़ रहे हैं। इसलिए बैड बैंक का बनाया जाना सिर्फ़ निजी क्षेत्र द्वारा सरकारी बैंकों के ख़तरे को बढ़ाता है।

रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया बुलेटिन ( 26 अप्रैल, 2021) में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि 2017-18 से 2019-20 के बीच कुल 17.39 लाख करोड़ रुपए के कर्जों में से  3.32 लाख करोड़ रुपए के खराब कर्जों को हासिल किया जा चुका है। मतलब 20 फ़ीसदी से भी कम इस तरह के करके वसूले जा सके। बैंकों द्वारा किए गए भारी हेयरकट इसलिए अहम हैं, क्योंकि इसमें बड़े कॉरपोरेट कर्जों को बेहद भारी छूटों के साथ, आईबीसी कोड के तहत दूसरे कॉरपोरेट संस्थानों को बेच दिया गया।

एक बड़ा बैड बैंक अब यह करेगा कि सभी खराब कर्जों के लिए एक ढांचा बनाया जाएगा, मतलब बड़े स्तर की संपत्तियों को आपस में एक संस्था बनाकर जोड़ा जाएगा। यह तंत्र भी निजी संस्थानों को फायदा पहुंचाता है। खासकर सम्पत्ति पुननिर्माण कंपनियों को, जी मोलभाव करने योग्य संपत्तियों की तलाश में रहती हैं। एडलवीज एसेट रिकंस्ट्रक्शन के निदेशक और सीईओ राज कुमार बंसल द्वारा हाल में NARCL को बनाए जाने का स्वागत करना बेहद चालाकी भरा था। उन्होंने कहा कि उनके जैसी कंपनियां चाहती हैं कि ज़्यादा कर्जों और संपत्तियों को NARCL द्वारा एक किया जाए।

उन्होंने कहा, "हम उनसे कर्ज खरीद सकते हैं। हमें 20 बैंकों से समझौता और व्यवहार नहीं करना होगा।" बताया जा रहा है कि समूह ने 9000 करोड़ रुपए से भी ज्यादा की रकम तनाव युक्त संपत्तियों में निवेश के लिए जुटाई है।

बैंकों और बैंकिंग गतिविधियों के लिए प्रतिकूल प्रभाव से अलग, बैंकों की तनाव युक्त संपत्तियों की बिक्री में भारी छूट से आर्थिक शक्ति का संकेद्रण बढ़ेगा। महामारी में छोटी और मध्यम औद्योगिक इकाइयों पर बहुत बुरा असर पड़ा है, इसी बहुत संभावना है कि बैड बैंक की पहेली से इन इकाइयों का बड़े खिलाड़ियों द्वारा अधिग्रहण बढ़े।

स्पष्ट है कि यह कदम सरकारी बैंकों की खाता - बही को साफ़ करने के लिए उठाया गया है, ताकि उन्हें बिक्री के लिए तैयार किया जा सके। प्रभावी तौर पर ऐसा बैंक बनाने से कुछ भी अच्छा होने वाला भी है।

लेखक फ्रंटलाइन के पूर्व एसोसिएट एडिटर  हैं। उन्होंने द हिंदू अख़बार के लिए तीन दशकों से ज्यादा वक़्त तक काम किया है।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

The Charade of a ‘Bad’ Bank

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