'द इम्मोर्टल': भगत सिंह के जीवन और रूढ़ियों से परे उनके विचारों को सामने लाती कला
'द इम्मोर्टल' लंदन, यूनाइटेड किंगडम के भारतीय मूल के कलाकार कंवल धालीवाल की बनायी भगत सिंह की एक बहुस्तरीय पेंटिंग है। वह प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन (PWA) की लंदन शाखा से जुड़े हुए हैं।इस संस्था में भारतीय और पाकिस्तानी मूल के लोग शामिल हैं।
धालीवाल ने इस 'द इम्मोर्टल' में कुछ ऐसा रच दिया है, जो इससे पहले नहीं देखा गया था। सैकड़ों कलाकार दशकों से भगत सिंह की परिकल्पना अपने-अपने तरीक़े से करते रहे हैं। हालांकि, कई बार तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे मशहूर नायकों में से एक भगत सिंह को लेकर यह परिकल्पना एक बहुत ही अपरिष्कृत रही है।
कई कलाकृतियों में भगत सिंह को एक घिसे-पिटे रूप में ही पेश किया जाता रहा है। भगत सिंह जब ज़िंदा थे और जेल में थे, तभी से उनकी तस्वीरों का बनाया जाना शुरू हो गया था। उस समय, उभरते हुए उस नायक की महज़ एकलौती वास्तविक तस्वीर ही लोगों के बीच सुलभ थी और लोगों की कल्पना में भी यही तस्वीर थी। उनकी वह तस्वीर अप्रैल 1929 की थी, जिसे दिल्ली के कश्मीरी गेट के एक फ़ोटोग्राफ़र रामनाथ ने ली थी। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त दोनों 3 अप्रैल, 1929 को ख़ास तौर पर उस फ़ोटोग्राफ़र की दुकान पर गये थे, ताकि दिल्ली में सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के बाद इस तस्वीर का इस्तेमाल प्रचार के लिए किया जा सके। असल में भगत सिंह और दत्त ने उस तस्वीर को तब तक नहीं देखा था, जब तक कि यह तस्वीर 12 अप्रैल को लाहौर में प्रकाशित एक उर्दू दैनिक बंदे मातरम और फिर 18 अप्रैल, 1929 को दिल्ली के हिंदुस्तान टाइम्स में छप नहीं गयी थी।
सोभा सिंह की बनायी हुई भगत सिंह की पेंटिंग
भगत सिंह के साथियों ने फ़ोटोग्राफ़ी स्टूडियो से उनकी वह तस्वीर और उस तस्वीर के नेगेटिव को हासिल किया था और मीडिया को दे दिया था। सिंह और उनके साथियों की भूख हड़ताल के दौरान कलाकारों ने इन नायकों की तस्वीरें बनाना शुरू कर दिया था। हालांकि, जिस दिन उन्हें फ़ांसी दी गयी, यानी 23 मार्च 1931 के बाद उनकी तस्वीरों के बनाये जाने में ज़बरदस्त तेज़ी आ गयी थी।
इन चित्रों में भगत सिंह अपना सिर भारत माता को अर्पित करते हुए, या फिर तीन शहीदों,यानी भगत सिंह, राजगुरु, और सुखदेव को स्वर्ग की ओर उड़ते हुए और ऐसी ही कई और परिकल्पनायें की गयी थीं। इन चित्रों में से ज़्यादातर चित्र बतौर पोस्टर कानपुर और लाहौर से छापे गये थे और उन पर तुरंत प्रतिबंध भी लगा दिया गया था। फिर भी, कई पत्रिकाओं ने इन्हें छापे थे, और कई घरों में तो इनका इस्तेमाल बतौर कैलेंडर या दीवार पर लगे पोस्टर के रूप में किया जा रहा था। यहां तक कि माचिस की डिब्बियों में भी पेंटिंग वाली ये तस्वीरें छपी होती थीं। इनमें से ज़्यादातर ब्लैक एंड व्हाइट में थे। रंगीन छपाई और पोस्टर/कैलेंडर का चलन आज़ादी के बाद शुरू हो पाया था। उस समय तक भौंडेपन का सौंदर्यशास्त्र पर कब्ज़ा हो चुका था ! इन तस्वीरों में फड़कती मूंछें, बंदूक पकड़े हुए भगत सिंह उस आतंकवादी जैसे दिखते थे, जैसा कि अंग्रेज़ उन्हें कहा करते थे। कई जगहों पर तो उनकी मूर्ति बनाने का चलन भी आम हो गया था। ऐसा इसलिए भी था, क्योंकि इनमें ज़्यादतर कलाकारों ने उनके जीवन और समाज को लेकर भगत सिंह के लेखन और विचारों को पढ़ा ही नहीं था।
भगत सिंह की परिकल्पना न सिर्फ़ भारतीय, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कलाकारों ने किस तरह की है, इसे समझने के लिए इन चित्रों की कुछ और ज्ञात तस्वीरें यहां संलग्न हैं। एक हैं अमर सिंह की बनायी वह पेंटिंग, जिसका इस्तेमाल पंजाब के मुख्यमंत्री अपने दफ़्तर में लगाकर कर रहे हैं। इस पेंटिंग को पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह ने बनवाया था। एक दूसरी पेंटिंग ऑस्ट्रेलियाई चित्रकार डेनियल कॉनेल की है, जिसकी पहचान लंदन स्थित पंजाबी कवि अमरजीत चंदन ने की है और इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी स्टोरी में कलाकार के नाम का ज़िक़्र किये बिना इसका इस्तेमाल किया है। अज्ञात चित्रकारों के बनाये दो और अलग-अलग तरह के मिज़ाज को दर्शाते चित्र यहां रखे गये हैं। एक पेंटिंग में भगत सिंह को बंदूक के साथ दिखाया गया है, जबकि दूसरे पेंटिंग में उन्हें किताब के साथ दिखाया गया है। इस तरह, कलाकार वास्तविकता को रचनात्मकता के लिहाज़ से अपने नज़रिये से देखते और समझते हैं; मैक्सिम गोर्की के विचारों के मुताबिक़, एक यथार्थवादी कलाकार अपनी कला के ज़रिये वास्तविकता के क़रीब होता है। हालांकि, "सिर्फ़ कला के लिए कला" की परंपरा में किसी कलाकार की कल्पना में और ख़ासकर पेंटिंग जैसी दृश्य कला में यह वास्तविकता कोई भी आकार ले सकती है, जिस व्यक्ति के चित्र बनाये गये हों, उस व्यक्ति से अलग तस्वीर भी बन सकती है।
द इमोर्टल-सिंह
कुछ कविताओं, नाटकों और कथा साहित्य और वैचारिक / शैक्षणिक बहस में भगत सिंह के लेखन और विचारों के झलक मिलने के बाद यह स्थिति थोड़ी बदल सी गयी है। कुछ कलाकारों ने भगत सिंह की इस विचारधारा-आधारित छवि से एक सूत्र लिया और उनके मूल चेहरे पर पेंटिंग बनाना फिर से शुरू कर दिया।
भगत सिंह की महज़ चार तस्वीरें ही वास्तविक हैं। पहली तस्वीर 11 साल की उम्र में ली गयी थी, दूसरी 17 साल की उम्र में, तीसरी 20 साल की उम्र में, और आख़िरी तस्वीर क़रीब 22 साल की उम्र में ली गयी थी। पहली दो तस्वीरें सफेद पगड़ी वाली तस्वीरें हैं, तीसरी तस्वीर बिना पगड़ी के खुले लंबे बालों और दाढ़ी वाली है, जिसमें वह पुलिस हिरासत में हैं। उनकी आख़िरी तस्वीर सबसे मशहूर तस्वीर है, जिसमें वह टोपी पहने हुए है,और यह वही तस्वीर है, जिसे रामनाथ ने ली थी। भगत सिंह ने कभी भी पीले या केसरिया रंग की पगड़ी नहीं पहनी, जैसा कि तोड़-मरोड़ कर बनाये गये सैकड़ों तस्वीरों से हमें यह यक़ीन दिलाने की कोशिश की जाती है। फ़ोटोग्राफ़र रामनाथ दिल्ली असेंबली बम मामले में बतौर अभियोजन पक्ष के गवाह इस बात की पुष्टि करने के लिए पेश हुए थे कि उन्होंने भगत सिंह और दत्त की तस्वीरें ली थीं।
उनकी सभी वास्तविक तस्वीरों में भगत सिंह का चेहरा बहुत नरम और प्रभावशाली है, शायद कुछ दृढ़ता का भी इज़हार हो रहा है। लेकिन, कल्पना की उस हद तक उनके चेहरे को बंदूकधारी आतंकवादी के चेहरे के रूप में तो पेश हरगिज़ नहीं ही किया जा सकता। कुछ चित्रकारों ने उनकी परिकल्पना किताब पकड़े हुए, सफेद पगड़ी वाले उस नौजवान के रूप में फिर से की, जो एक बुद्धिजीवी या एक कार्यकर्ता है !
हालांकि,उन्हें लेकर कंवल धालीवाल की परिकल्पना बहु-स्तरीय है। उनका ध्यान इस बात पर कहीं ज़्यादा है कि सिंह के दिमाग में क्या-क्या था, उनकी सोच या समझ, और उनके विचार अभी भी समाज को कैसे प्रभावित कर रहे हैं ! वह सिंह के तेज़ और मेधावी दिमाग़ जैसे ही उनकी विश्लेषणात्मक सोच और विवेक पर भी आधारित है। उनकी रचनात्मक रूप से कल्पना की गयी इस पेंटिंग के ज़रिये भगत सिंह के ये तमाम पहलू और अपने लोगों के साथ उनके रिश्ते शानदार ढंग से सामने आते हैं। सिंह का चेहरा कॉलेज जाने वाले 17 साल के एक ऐसे नौजवान का है, जिसके सिर पर सफेद पगड़ी है- यह उस तस्वीर की एक परत है। लेकिन, ग़ौर से देखने पर पता चलता है कि किसान और मज़दूर के औज़ारों वाली लाल रंग की टोपी उनके पगड़ी वाले सिर पर रखी हुई है। यह तस्वीर इस क्रांतिकारी के वैचारिक विकास की एक झलक देती है। उन्होंने बतौर नौजवान लाहौर के नेशनल कॉलेज वाले दिनों से ही राष्ट्रवादी विचारों को आत्मसात करना शुरू कर दिया था। हालांकि, सुरक्षा के लिहाज़ से उन्होंने टोपी पहनकर कश्मीरी गेट पर अपनी फ़ोटो खिंचवाने इसलिए गये थे, ताकि क्रांतिकारियों के शिकार करने के लिए घात लगाये ब्रिटिश पुलिस से अपनी पहचान छुपा सकें। इस समय तक वह बदल चुके थे। हालांकि, उनके दिमाग़ के भीतर जो कुछ बदलाव आ रहा था, वह भी क्रांतिकारी ही था। यही वजह है कि कल्पना की गयी उनकी टोपी पर हथौड़े और हंसिये के साथ एक लाल निशान है, जिसका मतलब है कि जिस समय वह तस्वीर ली गयी थी, उस समय तक वह एक प्रतिबद्ध समाजवादी क्रांतिकारी में रूपांतरित हो चुके थे।
भगत सिंह की 11 साल, 17 साल, 20 साल और 21 साल की उम्र की असली तस्वीरें- हैट वाली उनकी आख़िरी तस्वीर
सत्र न्यायालय के सामने दिये गये भगत सिंह और दत्त के बयान को भारत के सभी प्रमुख समाचार पत्रों और कुछ विदेशी अख़बारों में भी छापा गया था। वह बयान मज़दूरों और किसानों के लिए एक क्रांति का आह्वान था। अब उनकी तस्वीर के आसपास महाराष्ट्र, तमिलनाडु से लेकर पंजाब तक के छात्र कार्यकर्ता, किसान कार्यकर्ता लामबंद हैं। उनके विचारों की पहुंच अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक है, यहां तक कि पाकिस्तानी महिलायें भी उनकी तस्वीर लिए हुए शादमान चौक का नाम भगत सिंह चौक रखने की मांग कर रही हैं। लाल टोपी की रूप-रेखा कार्ल मार्क्स की उस किताब दास कैपिटल से मिलती जुलती है, जिसे भगत सिंह अपने साथियों को पढ़ने के लिए दिया करते थे, और दूसरी तरफ़, क्रुपस्काया की किताब-रेमनिसेंस लेनिन को दर्शाया गया है। शायद यह वही किताब थी, जिसे भगत सिंह फ़ंसी पर चढ़ने से ठीक पहले पढ़ रहे थे ! इस तरह, यह चित्र ऐतिहासिक बन चुके इस नायक की भावना को जताने वाले दुर्लभ चित्रों में से एक है !
(चमन लाल जेएनयू से सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर हैं और इस समय दिल्ली स्थित भगत सिंह आर्काइव्स एंड रिसोर्स सेंटर के मानद सलाहकार हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
'The Immortal': Art Brings out Bhagat Singh's Spirit and Thoughts Beyond Stereotypes
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