दिल्ली के दंगा पीड़ितों को मिल रही मनो-सामाजिक राहत के मायने
सेंडई फ्रेमवर्क एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जिसका उद्द्येश्य आपदा जोखिमों में कमी लाना है। यह ढांचा पीड़ित समुदायों की असहायता की स्थिति का आंकलन करता है और जिस प्रकार की आपदाओं का उन्हें सामना करना पड़ रहा है, उससे निकल पाने में उनकी मदद करता है। ये आपदाएं चाहे प्राकृतिक हों या प्राकृतिक वातावरण में जलवायु परिवर्तन के चलते पैदा हुई हों, यह लोगों को आपदाओं से लड़ने में सक्षम बनाता है।
पीड़ितों के जीवन में जोखिम कम करना और उनकी ताक़त में इज़ाफ़ा करना इसके सर्वप्रमुख लक्ष्यों में से एक है। हालाँकि दुनिया भर में ऐसा कोई प्रोटोकॉल नहीं बना है यदि यह आपदा किसी बहुलतावादी राज्य की ओर से या उसके गुर्गों द्वारा सामूहिक नरसंहार के रूप में अंजाम दी गई हो। यह तो लोगों की दृढ इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है कि वे किस प्रकार से इसका मुकाबला करते हैं और चीज़ों को ‘सामान्य’ स्थिति में वापस लाते हैं। हालाँकि पूरी तरह से सामान्य हो पाना कभी इनके लिए संभव तो नहीं हो पाता।
इसके बजाय देखने में ये आया है कि इस प्रकार के हर नरसंहार का अन्त लोगों के अधिकाधिक घेटोआइज़ेशन (एक समुदाय के लोगों का अधिकाधिक मलिन बस्तियों में जुड़ते जाना) में हुआ है और उनके अंदर पहले से अधिक असुरक्षा की भावना पनपी है। इसी प्रकार का एक नमूना जनवरी 2020 के दिल्ली नरसंहार के तत्काल बाद देखने में आया है। इस उत्तर पश्चिमी दिल्ली के इलाके में कई संस्थाएं, व्यक्तिगत तौर पर कई लोग, समूह, नेटवर्क और राजनीतिक दल मिलजुलकर नरसंहार से प्रभावित इलाकों में राहत कार्य में जुटी हैं। राहत सामग्री के तौर पर भोजन के पैकेट्स, बर्तन, बिस्तर, कपड़े वगैरह इकट्ठे किये गए थे और किये जा रहे हैं। यहाँ तक कि हिंसा के शिकार पीड़ितों के लिए आर्थिक मदद भी मुहैया कराई गई।
लेकिन बेहद आश्चर्य और विडंबना की बात तो तब देखने में आई जब इन बस्तियों में से किसी एक इलाके में राहत सामग्री वितरित की जा रही थी, उस दौरान वह घटना घटी। भोजन के पैकेट जब इस बस्ती में वितरित किये जा रहे थे, तो उनमें से अधिकतर पीड़ितों ने भोजन सामग्री लेने से इसलिये इनकार कर दिया क्योंकि उन्हें संदेह था कि इसमें जहर मिला हो सकता है। यह आघात के एक नए स्तर को दर्शाता है जो इस प्रकार के जघन्य हत्याकाण्ड से उपजते हैं, जिसे मनोवैज्ञानिक-सामाजिक आघात के रूप में संबोधित किया जा सकता है। और इस प्रकार के नरसंहार के बाद पीड़ितों की मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों को संबोधित कर सकने की हालत में कुछ ही प्रारूप हमारे पास मौजूद हैं।
पीपल्स इनीशिएटिव फॉर एक्शन ऑन रिहैबिलिटेशन, दिल्ली जिसका संक्षिप्त नाम पीआईएआरई दिल्ली (PIARE Dilli) है, उसने अपने ज़िम्मे इस दुष्कर कार्यभार को लिया है। इसने दंगा पीड़ितों जिन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को खोने के साथ-साथ अपनी भौतिक सम्पदा और यहाँ तक कि अपने पड़ोसियों तक के भरोसे को खो दिया है, के बीच उनका हौसला बढ़ाने के काम को अपने हाथ में लिया है। राहत सामग्री पहुँचाने के बीच कैसे वे फिर से अपने आत्मविश्वास को वापस पा सकते हैं? पीआईएआरई दिल्ली ठीक इसी दिशा में काम कर रहा है और दिल्ली के ढेर सारे कालेजों के विद्यार्थियों के विभिन्न बैचों में उन्हें प्रशिक्षित करने के काम में जुटा है। वे उनके बीच घटनास्थल पर स्वंयसेवी के रूप में जाकर काम करते हैं, पीड़ितों से बातचीत करते हैं और उनके मानसिक क्षमताओं को एक बार फिर से वापस अपनी स्थिति में लाने के प्रयासों में जुटे हैं।
पीआईएआरई दिल्ली जो कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से आये हुए समानधर्मी लोगों का एक स्वंयसेवी समूह है, जो दर्द और निराशा से पीड़ित अपने देशवासियों को आगे बढ़कर मदद पहुँचाने का एक जरिया है। यह टीम विविधताओं से भरपूर है जिनमें वकीलों, डॉक्टरों, अध्यापकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और नौजवान स्वंयसेवकों की टोली शामिल है, जिनमें से अधिकतर दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हैं।
इस प्रकार की पहलकदमी की ज़रूरत दो साल पहले तब प्रकाश में आई थी जब केरल को फ़्लैश फ्लड के रूप में अभूतपूर्व प्राकृतिक आपदा का सामान करना पड़ा था। अगस्त 2018 के पहले दो हफ़्तों में आने वाली इस आपदा ने राज्य के लोगों पर भयानक विपदा और कहर ढाने का काम किया था।
वर्तमान में पीआईएआरई दिल्ली इन आघात से पीड़ितों को ‘मानसिक-सामाजिक देखभाल’ प्रदान करने में लगा है। इस बारे में अनुमान है कि दंगे या किसी हत्याकाण्ड के बाद उसमें से बचे अधिकांश लोग (जिनमें से ज्यादातर महिलाएं और बच्चे होते हैं) को अत्यधिक भावनात्मक तनावों जैसे कि भय, बैचेनी, तनाव, मस्तिष्क आघात, गहरी पीड़ा, हिंसा, बौखलाहट, कचोटती यादों और निराशा के बीच गुजरना पड़ता है। इन्हें भावनात्मक संबल देने के साथ-साथ यह समूह इन प्रभावित लोगों को उनकी जरूरतों के हिसाब से इस इलाके में कार्यरत विभिन्न सहयोगी स्वंयसेवी संगठनों से भी जोड़ने का काम कर रहा है।
पिआरे दिल्ली की टीम वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर काम करती है और इसे ‘आपदा-उपरांत समुदाय आधारित साइको-सोशल केयर’ का प्रशिक्षण मिलता है। यह प्रशिक्षण इन्हें एक जापानी समूह “संवेदित नागरिक परियोजना” की ओर से प्रदान की जाती है। यह समूह इन स्वंयसेवकों को देखभाल करने वालों के रूप प्रशिक्षु करता है, जिससे कि प्रभावित लोगों को परामर्श और सहायता पहुँचाई जा सके।
हिसना, हिमा, रज़ा और सुभाष चंद्रा ने दिल्ली के दंगों में मारे गए जमालुद्दीन की विधवा और रिश्तेदारों से मुलाक़ात की। उसके बच्चे 8 साल से भी कम की उम्र के हैं। समूह ने इस परिवार की नियमित तौर पर काउन्सलिंग की है और इसके सभी सदस्यों से लगातार संवाद को बनाए रखा है। इसी प्रकार पिआरी दिल्ली ने खुद को छह अलग अलग उप-समूहों में बाँट रखा है। ये समूह पीड़ित घरों में जाकर उनसे मिलते-जुलते हैं और उनके साथ नियमित बातचीत और संवाद बनाए हुए हैं, ताकि जिन्दा बचे पीड़ित लोगों की पीड़ाओं और कष्टों को साझा करने के जरिये इसे कम किया जा सके। इन्हीं सबके बीच यह भी कोशिश रहती है कि जितना सम्भव हो वो मदद इन्हें पहुँचाई जा सके।
ऐसा करना क्यों ज़रूरी है और वो भी इस घड़ी में? इसका उत्तर आपको परिवारों में शोक की घड़ी में पारम्परिक प्रथाओं पर नजर दौडाने से मिल सकती है। परिवार में जब कोई मौत होती है तो शोकाकुल परिवार को शुरुआती दिनों में यदि कोई मजबूत सम्बल मिलता है तो यह उन्हें अपने पड़ोसियों, रिश्तेदारों और अन्य शुभचिंतकों से ही प्राप्त होता आया है। यह प्रथा हिन्दुओं और मुस्लिम दोनों ही समुदायों में व्यापक रूप से प्रचलित है। किसी अपने के हमेशा के लिए बिछड़ने के गहरे सदमे और पीड़ा से जूझ रहे परिवार के लिए इस मुश्किल घड़ी का सामना करने के लिए यह एक बहुत बड़े संबल के रूप में काम आता है।
पीआईएआरई दिल्ली इन परिवारों को एक नए प्रारूप में मदद पहुँचा रही है। यहाँ पर इन दुःख में डूबे परिवारों की मदद की जाती है ताकि वे ख़ुद को अकेला न महसूस करें और इस शहरी सामाजिक व्यवस्था में कहीं और अधिक अलग-थलग न पड़ जाएँ। सरकारों से उम्मीद की जानी चाहिए, वो चाहे दिल्ली की हो या केंद्र की, कि वे पीड़ितों को ऐसे परामर्शदाता मुहैया करा सकें। ताकि ये लोग ख़ुद को इस आघात से उबार पाने में सक्षम हो सकें और एक बार फिर से इनकी जिन्दगी पटरी पर वापस लौट सके।
लेखक शिमला के पूर्व उप-महापौर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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