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ज़ुल्म के दरवाज़े खोलते जम्मू-कश्मीर के नये सेवा नियम

बर्ख़ास्त किये गये ज़्यादातर लोगों के ख़िलाफ़ जो आरोप क़ायम किये गये हैं, वे गंभीर हैं, लेकिन चूंकि आम लोगों के सामने इसे लेकर कोई सबूत नहीं रखा गया है, इसलिए यह साफ़ नहीं है कि इन आरोपों में दम है भी या नहीं।
New Service Rules in Jammu and Kashmir
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

जम्मू-कश्मीर के प्रशासन ने लेफ़्टिनेंट-गवर्नर मनोज सिन्हा की अध्यक्षता में 16 सितंबर, 2021 को एक प्रशासनिक आदेश जारी किया, जिसका शीर्षक था-'सरकारी कर्मचारियों के चरित्र और विगत जीवन का सत्यापन' (GO No. 957-JK (GAD) of 2021)। इस आदेश के तहत, किसी सरकारी कर्मचारी को "तोड़फोड़, जासूसी, राजद्रोह, आतंकवाद, तबाही, देशद्रोह, अलगाव, विदेशी हस्तक्षेप को सुलभ बनाने, हिंसा के लिए उकसाने या किसी अन्य असंवैधानिक कृत्यों में शामिल होने या मदद पहुंचाने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ" जुड़ाव" के लिए बर्ख़ास्त किया जा सकता है।" इसके अलावा, उन सरकारी कर्मचारियों को भी बर्ख़ास्त किया जा सकता है, जिनका नज़दीकी परिवार या उसके साथ एक ही घर में रहने वाले कोई भी व्यक्ति ऊपर बताये गये किसी भी गतिविधि में "प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से" शामिल हैं या शामिल होते पाया जाता है, क्योंकि ऐसे लोग उन कर्मचारियों को उस "दबाव तले ला सकते हैं, जिससे गंभीर सुरक्षा जोखिम पैदा हो सकता है।" 

दूसरे शब्दों में, जम्मू और कश्मीर के किसी सरकारी कर्मचारी को अपनी बर्ख़ास्तगी का जोखिम उस स्थिति में उठाना होगा, अगर वह किसी ऐसे शख़्स के साथ निकटता से जुड़ा हुआ हो, जो उन लोगों के साथ सहानुभूति रख सकता है, जो कश्मीर को भारत से अलग करना चाहते हैं, भले ही वे उन भावनाओं के साथ नहीं हों, और वास्तव में इन भावनाओं के विरोध में भी हों। अगर यह किसी एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के गुनाहों के लिए सज़ा दिये जाने जैसा लगता है, तो यह नाइंसाफ़ी इस हक़ीक़त से और भी बढ़ जाती है कि ऐसे मामलों में सरकारी कर्मचारी के पास अपनी बर्ख़ास्तगी को चुनौती देने के बहुत कम अधिकार रह जाते हैं।

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ऐसे ही आदेशों की श्रृंखला की नवीनतम कड़ी

सितंबर का यह आदेश 30 जुलाई, 2020 से शुरू होने वाले इस तरह के क़दमों की श्रृंखला में नवीनतम आदेश है, जब जम्मू और कश्मीर प्रशासन ने मुख्य सचिव बी.वी.आर सुब्रह्मण्यम (GO No. 738-JK(GAD) of 2020) की अध्यक्षता में सरकारी कर्मचारियों की बर्ख़ास्तगी के मामलों की जांच और सिफ़ारिश करने के लिए एक समिति का गठन किया था। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 311 के सहारे जम्मू और कश्मीर प्रशासन के सामान्य सेवा नियमों में संशोधन किया गया ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा के हित के हवाले से इस बर्ख़ास्तगी से पहले सुनवाई और जांच की ज़रूरतों को ख़त्म किया जा सके।

अनुच्छेद 311 (2) (c) के तहत बर्ख़ास्त किये गये सरकारी कर्मचारी सुनवाई या जांच के हक़दार नहीं होते हैं, अगर अधिकारी इस बात से "संतुष्ट हैं कि राज्य की सुरक्षा के हित में ऐसी जांच की ज़रूरत नहीं है।" ज़ाहिर है, सुब्रह्मण्यम समिति ने "पहले ही तक़रीबन ऐसे 1,000 कर्मचारियों की शिनाख़्त कर ली थी, जो खुले तौर पर या ढके-छुपे तौर पर राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में शामिल थे।"

अप्रैल 2021 में राज्य के पूर्व अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (CID) की अध्यक्षता में एक छह सदस्यीय टास्क फ़ोर्स को 2021 के GO नंबर 355-JK (GAD) के तहत नियुक्त किया गया था, ताकि उन सरकारी कर्मचारियों की शिनाख़्त की जा सके, जो 'राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों' में शामिल रहे हों। इस टास्क फ़ोर्स को अनुच्छेद 311 (2) (c) के तहत बर्ख़ास्तगी की सिफ़ारिश करने वाली एक ऐसी समिति को अनिवार्य बना दिया गया, जो बदले में सम्बन्धित अधिकारियों को बर्खास्त किये जाने वाले सिविल सेवकों के नाम भेज देगा। 

30 अप्रैल को सरकारी स्कूल के एक शिक्षक इदरीस जान, कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर डॉ अब्दुल बारी नाइक और पुलवामा के नायब तहसीलदार नज़ीर अहमद वानी को लेफ़्टिनेंट-गवर्नर सिन्हा के आदेश से बर्ख़ास्त कर दिया गया, उन्होंने ख़ुद को इस बात से संतुष्ट बताया था कि किसी भी तरह की जांच राज्य की सुरक्षा के हित में नहीं होगी। 

इन आदेशों के तहत बर्खास्तगी का ताबड़तोड़ सिलसिला

मई और जुलाई 2021 के बीच जम्मू-कश्मीर में 'राज्य की सुरक्षा के हित में' एक दर्जन से ज़्यादा सरकारी कर्मचारियों को बर्ख़ास्त कर दिया गया था। मई में पुलिस उपाधीक्षक दविंदर सिंह और दो शिक्षकों-बशीर शेख़ और ग़ुलाम ग़नी को बर्ख़ास्त कर दिया गया था। दविंदर सिंह को 10 जनवरी, 2020 को गिरफ़्तार कर लिया गया था और हिज़बुल मुजाहिदीन के दो आतंकवादियों को मदद करने के आरोप में जेल भेज दिया गया था। 11 जुलाई को ग्यारह सरकारी कर्मचारियों को टास्क फ़ोर्स की सिफ़ारिश पर बर्ख़ास्त करने की सूचना मिली थी, जिसमें लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों को उकसाने और पनाह देने वाला एक अर्दली और हिजबुल मुजाहिदीन का समर्थन करने वाला एक दूसरा संदिग्ध शामिल था। अनंतनाग के दो शिक्षकों को भी 'राष्ट्र-विरोधी' भावनाओं के कथित प्रचार-प्रसार के आरोप में बर्ख़ास्त कर दिया गया था। जम्मू-कश्मीर शिक्षा विभाग के पूर्व कर्मचारियों- जब्बार परे और निसार तांत्रेय को उनकी कथित अलगाववादी विचारधारा के चलते बर्ख़ास्त कर दिया गया था। बिजली विभाग के शाहीन लोन को हिज़बुल मुहाहिदीन को हथियारों की तस्करी करने के संदेह में बर्ख़ास्त कर दिया गया था। इस समिति की चौथी बैठक में बर्ख़ास्त किये गये एक कांस्टेबल अब्दुल शिगन पर सुरक्षा बलों पर हमले करवाने का संदेह था। प्रमुख अलगाववादी सैयद अली शाह गिलानी और हिज़बुल प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन के बच्चों को भी बर्ख़ास्त कर दिया गया। 20 जुलाई, 2021 तक बर्खास्त किये गये लोगों की संख्या अठारह थी।

16 सितंबर के आदेश के बाद छह अन्य लोगों को बर्ख़ास्त कर दिया गया था, जिनमें वे पुलिसकर्मी और शिक्षक शामिल थे, जिन्हें आतंकवादी समूहों के लिए कथित तौर पर 'ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता' कहा गया था। वह आतंकवादी, जिसने हथियार छोड़ दिये थे और जिसका पुनर्वास कराया गया था, उस शिक्षक अब्दुल हामिद वानी के बारे में कहा जाता है कि 2016 में हिज़बुल मुजाहिदीन के बुरहान वानी की मौत के बाद विरोध प्रदर्शन का आयोजन करने वाला वही था। शिक्षक लियाक़त अली काकरू को 2002 में गिरफ़्तार किये जाने के बाद साफ़ तौर पर बर्ख़ास्त कर दिया गया था, हालांकि बाद में उन्हें आरोपों से बरी कर दिया गया था। दो अन्य लोग- एक पुलिस कांस्टेबल और दूसरा सड़क और निर्माण विभाग में एक कनिष्ठ सहायक को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) की ओर से आरोपी बनाया गया है और इस समय वे दोनों ज़मानत पर बाहर हैं। एक फ़ॉरेस्ट रेंज अफ़सर को हथियार पहुंचाने और नक़ली मुद्रा की तस्करी के आरोप में बर्ख़ास्त कर दिया गया था, और एक अन्य पुलिस कांस्टेबल को हथियार लूटने के आरोप में बर्ख़ास्त कर दिया गया था। 

समस्याग्रस्त बर्ख़ास्तगी 

बर्ख़ास्त किये गये ज़्यादातर लोगों के ख़िलाफ़ जो आरोप हैं, वे गंभीर क़िस्म के हैं, लेकिन चूंकि लोगों के सामने इन आरोपों को लेकर कोई सबूत नहीं रखा गया है, इसलिए यह साफ़ नहीं है कि उन आरोपों में दम है भी या नहीं। मीडिया रिपोर्टों को देखते हुए ये बर्ख़ास्तगी दो श्रेणियों की हैं: पहली श्रेणी की बर्ख़ास्तगी में 16 सितंबर के आदेश में सूचीबद्ध 'महज़ नज़दीकी' के साथ-साथ कभी आतंकवादी/उग्रवादी के हमदर्द होने को लेकर पिछली सज़ा को देखते हुए की गयी बर्ख़ास्तगी है, जबकि दूसरी श्रेणी में हथियार पहुंचाने जैसी वास्तविक आपराधिक गतिविधि शामिल है।

यह साफ़ है कि दोनों की बराबरी नहीं की जा सकती। अलगाववादियों और/या उग्रवादियों से महज़ नज़दीकी बर्ख़ास्तगी का आधार तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि यह नहीं दिखाया जा सके कि सवालों के घेरे में आये कर्मचारी ने अपराध किया है। प्रभावित कर पाने की उनकी संवेदनशीलता का अनुमान नहीं लगाया जा सकता और अगर ऐसा है भी तो यह अपराध किये जाने की ओर नहीं ले जाता। अगर नज़दीकी, प्रभाव और अपराध के बीच एक कारण-परिणाम की श्रृंखला को मान लिया जाये, तब तो हमें अपनी राष्ट्रीय और राज्य प्रशासनिक सेवाओं, दोनों के एक बड़े हिस्से को खारिज करना होगा।

चिंताजनक रूप से साल 2020 से लेकर इस समय तक की बर्ख़ास्तगी के आदेशों का यह सिलसिला 2002 से लेकर 2014 की शांति-स्थापना अवधि में अपनायी गयी रणनीतियों के एक और बदलाव को सामने रख देता है। आत्मसमर्पण करने वाले उग्रवादियों का पुनर्वास 1990 के दशक के दौरान विकसित की गयी एक ऐसी नीति थी, जिसे सेना आज भी लागू करने की कोशिश कर रही है। इसका नतीजा यह हुआ है कि हज़ारों पूर्व उग्रवादियों को नागरिक व्यवसायों में फिर से शामिल किया गया और इनमें से बहुत कम लोगों ने फिर से हथियार उठाये हैं। इस नीति को 2000 के दशक में पाकिस्तानी कब्ज़े वाले कश्मीर में फ़ंसे उन कश्मीरी आतंकवादियों के लिए भी विस्तार दिया गया था, जो हथियार छोड़कर अपनी जन्मभूमि पर लौटना चाहते थे। असल में सलाहुद्दीन के बच्चों के लिए दी गयी नौकरी शांति स्थापित करने की उस पहल का ही हिस्सा थी, जिसका मक़सद (हथियार छोड़ने के बाद) उनकी वापसी भी था। मगर, कई कारणों से ऐसा नहीं हुआ।

यहां तक कि अगर भारत सरकार ने उनके दिये गये आश्वासन पर भरोसा किया होता, तो इतने लोगों की हत्याओं में उनकी संलिप्तता को आसानी से न तो छुपाया जा सकता था और न ही इस बात की संभावना थी कि पाकिस्तान उसे आत्मसमर्पण करने वाले आतंकवादी के रूप में लौटने की अनुमति देता, यानी कि उसके आकाओं के लिए तो लौटने से बेहतर उसकी मौत होती।

शांति पहल की नाकामी के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र में यह दिखाने के लिए बहुत ही कम चीज़े हैं कि उनके बच्चे, या अन्य उग्रवादी ऐसी गतिविधियों में लिप्त हैं, जो राज्य की सुरक्षा के लिए ख़तरा हों।

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2010 में जब जाने-माने पत्रकार डॉ. दिलीप पडगांवकर, सूचना आयुक्त एम.एम. अंसारी और मुझे ख़ुद केंद्र सरकार की ओर से जम्मू और कश्मीर के लिए वार्ताकार नियुक्त किया गया था, जो कि छोटे-छोटे शुरुआती विश्वास-निर्माण उपायों में से एक था। हमने जिस बात की अनुशंसा की थी, वह यह थी कि आतंकवादियों से जुड़े लोगों के पासपोर्ट के बारे में पूछताछ करने की ज़रूरत को हटा दिया जाये। इसे लेकर हमारी दलील थी कि मौलिक नागरिकता के अधिकार से इन्कार करना तो दूर की बात है, महज़ जुड़ा होना भी संदेह का आधार नहीं हो सकता। हमारे उस अनुरोध को केंद्रीय विदेश मंत्रालय में सहानुभूति के साथ मान लिया गया था, और उस ज़रूरत को हटा दिया गया था। ऐसे मामलों में पुलिस सत्यापन प्रक्रिया काफ़ी सख़्त थी, जिसकी सही मायने में कोई ज़रूरत नहीं थी और इस बात की ज़्यादा आशंका थी कि इसका ग़लत इस्तेमाल किया जाये। 

ग़लत इस्तेमाल का यह मुद्दा जम्मू और कश्मीर प्रशासन के जुलाई 2020 से लेकर सितंबर 2021 तक के सेवा आदेशों से बेहिसाब जटिल हो जाता है। पारदर्शिता या जवाबदेही के सभी प्रावधानों को इस तरह हटाये जाने के साथ ही सरकारी कर्मचारियों के ख़िलाफ़ गंभीर आरोप लगाये जा सकते हैं, जिससे न सिर्फ़ उनकी रोज़ी-रोटी का नुक़सान होता है, बल्कि उनके ऊपर सामाजिक कलंक भी चस्पा हो जाता है। लेकिन, हैरत है कि तब भी आरोप लगाने वालों को अदालत या सार्वजनिक डोमेन में उन आरोपों को साबित करने की ज़रूरत नहीं होती। इन कर्मचारियों को अपने ख़िलाफ़ कथित साक्ष्य पाने तक का कोई अधिकार नहीं है। जहां तक इस सिलसिले में किसी मुख्य सचिव या लेफ़्टिनेंट गवर्नर की पसंदगी की बात है, तो सवाल है कि मनमाने तरीक़े से की जाने वाली इस इस तरह की बर्खास्तगी को रोक पाने को लेकर क्या प्रावधान है ?

धारा 370 के निरस्त किये जाने और पूर्व जम्मू कश्मीर राज्य के दो केंद्र शासित प्रदेशों में बंटवारे के बाद से घाटी में ज़बरदस्त ग़ुस्से का माहौल है और इस माहौल में ख़ास तौर पर यह देखते हुए कि इस बर्ख़ास्तगी की बड़ी संख्या स्थानीय कर्मचारियों की है, और बर्खास्त करने के फ़ैसले केंद्र सरकार के उन अधिकारियों की ओर से लिये जाते हैं, जिनके पास इस पूर्व राज्य को लेकर या तो सीमित जानकारी है या फिर कोई जानकारी ही नहीं है। ऐसे में इस तरह के क़दमों को लोगों को ग़लत तरह से किये जा रहे शिकार के रूप में देखा जा सकता है। सही मायने में बाहरी पर्यवेक्षकों के लिए भी इन आदेशों को किसी ओर तरीक़े से देख पाना मुश्किल है, लेकिन जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए तो यह साफ़ तौर पर शत्रुतापूर्ण रवैया है।

(डॉ. राधा कुमार नारीवादी, शैक्षणिक विद्वान और लेखक हैं, और 2010-11 में जम्मू और कश्मीर के लिए सरकार की ओर से नियुक्त वार्ताकार थे। व्यक्त विचार निजी हैं।)

यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

New Service Rules in Jammu and Kashmir Open Doors to a Witch Hunt

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