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सरकार जम्मू और कश्मीर में एक निरस्त हो चुके क़ानून के तहत क्यों कर रही है ज़मीन का अधिग्रहण?

जम्मू और कश्मीर को अपना विशेष संवैधानिक और राज्य का दर्जा छिन जाने के तक़रीबन दो साल बाद भी यहां के नागरिकों की ज़मीन का अधिग्रहण उन क़ानूनों के तहत आज भी हो रहा है, जो निरस्त हो चुके हैं। डॉ राजा मुज़फ़्फ़र भट केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में सरकार की ओर से इन केंद्रीय क़ानूनों के असंगत इस्तेमाल और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करते समय जो उसके फायदे गिनाते हुए जो वादे किए गए थे उन्हें पूरा न कर पाने की नाकामी के बारे में लिखते हैं।
Forests of Doodhpathri area

जम्मू से भारतीय जनता पार्टी (BJP) के वरिष्ठ नेता और प्रधानमंत्री कार्यालय के केंद्रीय राज्य मंत्री (MoS) डॉ जितेंद्र सिंह ने "रिप्लिकेशन ऑफ़ गुड गोवर्नेंस प्रैक्टिस” (सुशासन के प्रचलन की प्रतिकृति) नामक एक अर्ध-वर्चुअल क्षेत्रीय सम्मेलन के दौरान कहा कि अनुच्छेद 370 को हटाये जाने के बाद से जम्मू-कश्मीर में 800 से ज़्यादा केंद्रीय क़ानूनों का विस्तार किया गया है। इस साल जुलाई में श्रीनगर में आयोजित इस सम्मेलन में तक़रीबन एक दर्जन राज्यों के 750 अधिकारियों ने भाग लिया था।

इन 800 केंद्रीय क़ानूनों का एक-एक करके विश्लेषण कर पाना तो मुमकिन नहीं है, लेकिन भूमि अधिग्रहण से जुड़े सबसे प्रगतिशील क़ानूनों में से एक उचित मुआवज़ा अधिनियम के ढीले-ढाले कार्यान्वयन से पता चलता है कि भारत सरकार जम्मू और कश्मीर के नागरिकों को इन प्रगतिशील क़ानूनों से होने वाले फ़ायदों को मुहैया करा पाने से हिचकिचा रही है।

भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम (उचित मुआवज़ा अधिनियम) में उचित मुआवज़े और पारदर्शिता का अधिकार 31 अक्टूबर, 2019 से जम्मू और कश्मीर में लागू किया गया था, लेकिन सरकार इस्तेमाल से बाहर हो चुके उस राज्य भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1990 (1934 A.D.) (J & K भूमि अधिग्रहण अधिनियम) को लागू करते हुए भूमि और संपत्ति के अधिग्रहण को जारी रखे हुई है, जिसे अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद ख़त्म कर दिया गया था।

सरकार ने अभी तक नामित कलेक्टरों के लिए ओरिएंटेशन वर्कशॉप का आयोजन तक नहीं किया है या फिर नियमों में आये उन प्रासंगिक बदलावों को भी प्रकाशित नहीं करवाया है, जो इस केंद्र शासित प्रदेश में लागू होंगे। विडंबना यह है कि कलेक्टर न सिर्फ़ निरस्त अधिनियम के प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए भुगतान किये जाने का फ़रमान जारी कर रहे हैं, बल्कि सरकार भी कई मामलों में जम्मू-कश्मीर में इस भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत अधिसूचना जारी कर रही है, जिससे नागरिकों को उचित मुआवज़े के अधिकार से वंचित किया जा रहा है।

पीएमजीएसवाई सड़क के लिए भूमि अधिग्रहण

18 अक्टूबर, 2019 को जम्मू और कश्मीर सरकार ने निरस्त हो चुके जम्मू-कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 4 के तहत एक अधिसूचना जारी की थी, जो कि राजौरी ज़िले के खदरियान स्थित एक गांव में 37 कनाल 14 मरला (तक़रीबन 5 एकड़) की भूमि के एक टुकड़े से सम्बन्धित है।

यह धारा 4 उचित मुआवज़ा अधिनियम की धारा 11 से मेल खाती है और सार्वजनिक उद्देश्य को लेकर अधिग्रहित की जा रही किसी भी भूमि के विवरण को रेखांकित करते हुए एक शरुआती अधिसूचना के प्रकाशन को अनिवार्य बनाती है। 18 महीने बाद 23 अप्रैल, 2021 को जम्मू-कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 6 के तहत एक अधिसूचना जारी की गयी, जिसमें कहा गया कि धारा 4 अधिसूचना के ख़िलाफ़ किसी तरह की कोई आपत्ति नहीं दर्ज की गयी है। यह घोषित किया जाता रहा है कि कलेक्टर की रिपोर्ट के बाद सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए इस ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है।

सबसे पहली बात तो इस निरस्त हो चुके जम्मू-कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 4 के तहत जारी अधिसूचना अपने आप में ही संदिग्ध थी क्योंकि इसे धारा 370 को निरस्त करने के तक़रीबन तुरंत बाद जारी किया गया था। 31 अक्टूबर, 2019 से ही इस उचित मुआवज़ा अधिनियम को जम्मू और कश्मीर में लागू कर दिया गया होता, जिससे सरकार की तरफ़ से जल्दबाज़ी में उस निरस्त क़ानून के तहत एक अधिसूचना जारी किये जाने पर सवाल उठता है, जिसे भाजपा के नेताओं और भारत की केंद्र सरकार पुरानी और जनविरोधी मानती थी।

अगर राजौरी के इन दूरदराज़ के गांवों के ग़रीब ज़मीन मालिकों और किसानों की मदद करने को लेकर सरकार के ईमानदार इरादे होते, तो इस अधिग्रहण की सुविधा के लिए उचित मुआवज़ा अधिनियम की धारा 11 को लागू करते हुए 31 अक्टूबर के बाद इसअधिसूचना को जारी करने का इंतजार किया जा सकता था।

इससे उन लोगों को फ़ायदा हुआ होता जिनकी ज़मीन प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना (PMGSY) के तहत लायी जा रही थी ताकि राजौरी ज़िले में खदरियान से खाह तक सड़क बन सके। उचित मुआवज़ा अधिनियम न सिर्फ़ अधिग्रहित भूमि के लिए कहीं ज़्यादा मुआवज़े की गारंटी देता है, बल्कि यह पुनर्वास और पुनर्स्थापन को भी सुनिश्चित करता है। जम्मू-कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम राज्य को जबीराना (मुआवज़ा) के महज़ 15 प्रतिशत का भुगतान करने के बाद ही भूमि अधिग्रहण करने और ऐसी गणना के लिए सर्कल रेट के इस्तेमाल की इजाज़त देता है। इसके उलट, उचित मुआवज़ा अधिनियम 100 प्रतिशत मुआवज़ा मुहैया कराता है, जबकि यह भी ज़रूरी है कि राज्य एक ऐसी दर को लागू करे जो ज़मीन के बाज़ार मूल्य से दोगुनी हो।

मिसाल के तौर पर खाह या खदेरियन गांवों में किसी परिवार को जम्मू-कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत मुआवज़े के रूप में अगर 10 लाख रुपये का भुगतान किया जाता है, तो संभव है कि उचित मुआवज़ा अधिनियम के तहत उसी संपत्ति के लिए वह 40 लाख रूपये का भुगतान पाने का हक़दार हो।

ऐसा लगता है कि अधिकारियों की यह "चूक" जानबूझकर की गयी थी, और इसका मक़सद जम्मू-कश्मीर के लोगों को उनकी ज़मीन के बदले में उचित मुआवज़े से वंचित करना था। ग़ौरतलब है कि एक पहाड़ी राज्य होने के कारण जम्मू-कश्मीर की औसत भूमि जोत राष्ट्रीय औसत से काफ़ी कम है। जम्मू और कश्मीर में 80 प्रतिशत से ज़्यादा किसान आधिकारिक तौर पर सीमांत किसान हैं। 2015-16 की कृषि जनगणना के मुताबिक़ जम्मू-कश्मीर में कृषि भूमि का औसत आकार 0.59 हेक्टेयर था, लेकिन अनौपचारिक सूत्रों का कहना है कि वे औसतन 0.45 हेक्टेयर से भी बहुत छोटा हैं।

कश्मीर घाटी में तो जोत का औसत आकार और भी छोटा है। 2010-2011 की कृषि जनगणना के दौरान भारत में इस्तेमाल की जा रही ज़मीन की जोत का औसत आकार 1.15 हेक्टेयर था। जम्मू और कश्मीर के लिए यह आंकड़ा भी कम यानी 0.62 हेक्टेयर था।

कश्मीर घाटी के कुछ ज़िलों में कुल मिलाकर केंद्र शासित प्रदेश के मुक़ाबले भूमि जोत का आकार छोटा था। अनंतनाग में यह मात्र 0.39 हेक्टेयर है, जबकि कुलगाम में यह 0.39 हेक्टेयर है। शोपियां में औसत जोत का आकार 0.56 हेक्टेयर और पुलवामा में 0.48 हेक्टेयर है। श्रीनगर, बडगाम और बारामूला में से हर एक में जोत का औसत आकार क्रमशः 0.31, 0.43 और 0.51 हेक्टेयर है। गांदरबल में यह 0.37 हेक्टेयर है, जबकि बांदीपोरा और कुपवाड़ा में ज़मीन का औसत आकार क्रमशः 0.48 और 0.51 हेक्टेयर है। घाटी में जहां ज़्यादातर किसानों के पास एक एकड़ से भी कम ज़मीन है, इस आंकड़े में 2015-16 की कृषि जनगणना के दौरान और भी गिरावट आयी।

ऐसी स्थिति में सरकार को अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले किसानों को तो कहीं ज़्यादा मुआवज़ा देना चाहिए था। मगर,दुर्भाग्य से उन्हें उचित मुआवज़ा अधिनियम के ज़रिये स्थापित उचित मुआवज़ा ढांचे के तहत गारंटीशुदा बुनियादी अधिकारों से भी वंचित कर दिया गया है।

ट्रांसमिशन लाइन के लिए भूमि अधिग्रहण

कश्मीर घाटी में ज़ैनाकोट-एलेस्टेंग से मीर बाज़ार तक एक ट्रांसमिशन लाइन बिछाने के लिए जम्मू और कश्मीर सरकार श्रीनगर और कुछ अन्य ज़िलों में विभिन्न स्थानों पर भूमि अधिग्रहण करना चाहती है। लेकिन,सरकार ने जम्मू-कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 4 के तहत अधिसूचना जारी नहीं की थी।

इसके बजाय, हैरतअंगेज़ तरीक़े से पिछले एक दशक में बिजली विभाग ने पहले ही विभिन्न जगहों पर ज़मीन का "अतिक्रमण" कर लिया था, और टावरों का निर्माण किया और ट्रांसमिशन लाइनें बिछा दीं।

जब ज़मीन के मालिकों ने एक साल से ज़्यादा समय तक विरोध किया, तो सरकार ने उन्हें कुछ मुआवज़ा देने का फ़ैसला किया। उल्लेखनीय है कि विद्युत विकास विभाग में भूमि अधिग्रहण करने वाले कलेक्टर का पद ख़ाली पड़ा हुआ है। इस लेखक को पिछले साल जम्मू-कश्मीर सरकार के सामान्य प्रशासन विभाग (GAD) के सचिव के साथ इस मामला को उठाना पड़ा था। इसके बाद यह पद सहायक आयुक्त (नज़ूल), श्रीनगर को सौंपा गया था।

कुछ महीने पहले उस अधिकारी को एक औपचारिक आदेश जारी किया गया था, जिसमें उन्हें उचित मुआवज़ा अधिनियम की धारा 11 के तहत एक अधिसूचना जारी करने की ज़रूरत थी। इसके बजाय, उन्होंने श्रीनगर ज़िले के पीड़ित भूमि मालिकों को 21 सितंबर, 2021 को एक आधिकारिक चिट्ठी (संख्या: एलए-पीडीडी/एमएचपीएस/271-73) के ज़रिये अपने दफ़्तर में एक निजी बातचीत के लिए बुलाया। उन्होंने श्रीनगर स्थित ट्रांसमिशन लाइन मेंटेनेंस डिवीज़न-VII (TMLD-VII) के एक्ज़क्युटिव इंजीनियर को चतरहामा, खिम्ब्रेर, हरवान और ब्रिन गांवों के उन भू-स्वामियों के साथ 28 सितंबर, 2021 को अपने दफ़्तर आने के लिए कहा, जिनकी ज़मीन श्रीनगर के बाहरी इलाक़े में ट्रांसमिशन लाइन टावरों के निर्माण के लिए पहले ही अधिग्रहित कर ली गयी थी।

कलेक्टर की ओर से भूमि अधिग्रहण के सिलसिले में दिनांक 21 सितंबर, 2021 को लिखी गयी चिट्ठी

उस बैठक में कलेक्टर ने निरस्त हो चुके जम्मू-कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम के मुताबिक़ पीड़ित ज़मींदारों के मुआवज़े का आकलन किया। वह अधिकारी उचित मुआवज़ा अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने के लिए तैयार नहीं था। जब पीड़ित के साथ आने वाले वकीलों ने यह तर्क दिया कि वे 100 प्रतिशत मुआवज़े के हक़दार हैं और मुआवज़े के आकलन की गणना ज़मीन के बाज़ार मूल्य से दोगुने पर की जानी है (चूंकि यह इलाक़ा एक ग्रामीण बस्ती है), तब कलेक्टर ने कहा कि सरकार को अभी इस नये क़ानून के तहत नियम बनाना बाक़ी है, जिससे कि इस मामले में उन प्रावधानों को लागू करना मुमकिन नहीं है।

हाईकोर्ट के आदेश भी दरकिनार

बडगाम के कई गांवों के पीड़ितों ने इस साल की शुरुआत में जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट का दरवाज़ा यह दलील देते हुए खटखटाया था कि उनकी ज़मीन को वर्ष 2017 में भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 4 के तहत अधिग्रहित करने के लिए अधिसूचित किया गया था, और यह भी कि ये कार्यवाही पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 11 बी के मुताबिक़  समय के बीत जाने के चलते "अब वैध नहीं" रह गयी है। याचिकाकर्ताओं ने दलील दी थी कि न तो उनसे ली गयी भूमि पर कब्ज़ा था, न ही उन्हें किसी तरह के मुआवज़े का कोई फ़रमान मिला था या जम्मू-कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 17 के तहत कोई मुआवज़ा दिया गया था।

जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने इस साल जून में उस याचिका को लेकर नोटिस जारी किया था और मध्य कश्मीर के बडगाम ज़िले में रिंग रोड के निर्माण के लिए अधिग्रहण की जा रही भूमि के कब्ज़े के सिलसिले में 'यथास्थिति' बनाए रखने का अंतरिम आदेश दे दिया था।

बडगाम ज़िले के चून गांव के ग़ुलाम अहमद बुडू, उनके भाई और उनके दो भतीजे इस मामले में बने याचिकाकर्ताओं में शामिल थे। लेकिन,धारा 6 के तहत अधिसूचना जारी होने के चार साल बाद भी परिवार को कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया है। दरअसल, उनके मुआवज़े का आदेश जुलाई 2019 में तैयार कर दिया गया था, लेकिन उनके खातों में पैसे जमा नहीं हुए थे।

चून गांव के ज़मीन मालिकों ने सेब के बागानों वाली अपनी-अपनी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया है।

1 अक्टूबर, 2021 को भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI), बडगाम के जिला प्रशासन और पुलिस के अधिकारियों की अगुवाई वाली एक टीम ने बुडू परिवार से सम्बन्धित ज़मीन पर जबरन कब्ज़ा करने की कोशिश की।

एक जेसीबी मशीन से वहां कुछ मिट्टी खोद दी गयी और ज़मीन और उन पर लगे हुए पूरी तरह से पके हुए सेब के पेड़ों को नुक़सान पहुंचाया गया।

बुड्डू की ज़मीन से मिट्टी खोदती जेसीबी मशीन।

इस क़दम का विरोध करने वाले बुडू के बेटे वसीम अहमद बुडू को एक अन्य ज़मीन मालिक उमर के साथ हिरासत में ले लिया गया। उन्हें कुछ घंटों के लिए बडगाम थाने में पुलिस हिरासत में रखा गया था। एनएचएआई अधिकारियों की अगुवाई वाली उस टीम ने ज़मीन मालिकों को बताया कि उनके मुआवज़े के पैसे स्थानीय ज़िला अदालत में जमा कर दिये गये हैं।

क़ानून के जानकार और राज्य की न्यायपालिका के पूर्व प्रशासनिक अधिकारी सैयद नसरुल्ला का कहना है कि सरकार को ताक़त का इस्तमाल करके ज़मीन पर कब्ज़ा करने का हक़ नहीं है क्योंकि किसानों को मुआवज़े के फ़रमान निर्धारित समय सीमा के भीतर नहीं दिये गये थे। उनका कहना था कि जैसा चून गांव के मामले में हुआ था कि भले ही यह फ़रमान निर्धारित समय सीमा के भीतर तैयार कर लिया गया था, लेकिन जुलाई 2019 में प्रभावित ग्रामीणों के खातों में पैसा जमा नहीं किया गया था।

वह आगे कहते हैं, "इसके अलावा जम्मू-कश्मीर के जीए पॉल बनाम केंद्र शासित प्रदेश के मामले में हाईकोर्ट की खंडपीठ की ओर से सड़क निर्माण पर रोक लगा दी गयी है और चून के ग्रामीण उस मामले में भी याचिकाकर्ता हैं।

वसीम अहमद बुडू ने द लीफ़लेट को बताया, “हमने इस साल जून में हाईकोर्ट से यथास्थिति का आदेश तो हासिल कर लिया है, लेकिन पिछले चार सालों से हमें कोई भुगतान नहीं किया गया है क्योंकि तत्कालीन भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 6 के तहत नोटिस जारी किया गया था। अगस्त 2017 में जम्मू-कश्मीर के सरकारी अधिकारी हमारी ज़मीन का जबरन अधिग्रहण कैसे कर सकते हैं? जब मैंने उन्हें हाई कोर्ट का आदेश दिखाया तो उन्होंने कहा कि उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं है। ये सरकारी नौकर नहीं, बल्कि ग़ुंडे हैं।”

उन्होंने आगे कहा, "सरकार ने अब हमारे मुआवज़े का पैसा स्थानीय अदालत में जमा कर दिया है और हाईकोर्ट ने अधिग्रहण प्रक्रिया पर रोक लगा दी है। हमें उस मुआवज़े की पेशकश की जा रही है, जो ज़मीन के बाज़ार मूल्य से 50 फ़ीसदी कम है। केंद्रीय अधिनियम के तहत बतौर गारंटी 100 फ़ीसदी के बजाय महज़ 15 फ़ीसदी मुआवज़े ही भुगतान किये जाते हैं। भारत सरकार ने यह कहकर हमें बेवकूफ़ बनाया है कि अनुच्छेद 370 के हटने के बाद हमें फ़ायदा होगा। हमसे हमारी ज़मीन और संपत्ति लूटी जा रही है और प्रगतिशील केंद्रीय क़ानूनों का फ़ायदा हमें नहीं दिया जा रहा है। अब हम मुआवज़े के पैसे से आधा एकड़ ज़मीन भी नहीं ख़रीद सकते। यह कैसा इंसाफ़ है ?”

ताज़ा अधिसूचना जारी नहीं

18 मई, 2020 को बडगाम के उपायुक्त की ओर से कश्मीर के संभागीय आयुक्त को एक आधिकारिक चिट्ठी (संख्या: डीसीबी/एलएएस/20/300-10) भेजी गयी थी। उस चिट्ठी में श्रीनगर रिंग रोड के निर्माण को लेकर भूमि अधिग्रहण के सिलसिले में एक व्यापक गांव-वार स्थिति रिपोर्ट शामिल भी है।

बडगाम के उपायुक्त ने अपनी चिट्ठी में साफ़ तौर पर लिखा है कि कई गांवों में सक्षम प्राधिकारी की ओर से हिसाब-किताब को लेकर किसी तरह की कोई मंज़ूरी नहीं मिली है।

उन्होंने यह भी क़ुबूल किया है कि इन गांवों के लिए भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही की समय-सीमा ख़त्म हो गयी है।

बडगाम के उपायुक्त ने तब श्रीनगर के संभागीय आयुक्त से केंद्रीय भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत नयी कार्यवाही शुरू करने के निम्नलिखित शब्दों में निर्देश मांगे:

“अगर पत्र (a) में दिये गये ब्योरे वाले गांवों के भूमि अधिग्रहण मामलों को भूमि अधिग्रहण पुनर्वास और पुनर्वास अधिनियम 2013 में उचित मुआवज़ा और पारदर्शिता के अधिकार के मुताबिक़ नये सिरे से शुरू किया जाना है,तो कृपाया दिशा-निर्देश दें।”

सरकार ने इस चिट्ठी पर कोई कार्रवाई नहीं की और कार्यवाही के ख़त्म हो जाने के बावजूद हिसाब-किताब तैयार किये गये। जम्मू-कश्मीर भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 11 बी के मुताबिक़, प्रभावित लोगों को अंतिम हिसाब-किताब और भुगतान इस अधिनियम की धारा 6 के तहत की गयी घोषणा से दो साल के भीतर किया जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया जाता है, तो सरकार को नयी अधिसूचना जारी करनी होगी, क्योंकि भूमि अधिग्रहण की पूरी कार्यवाही ही ख़त्म हो जाती है।

बडगाम के ज़्यादातर गांवों में धारा 6 के तहत अगस्त 2017 में घोषणा पत्र जारी किया गया था और जुलाई 2019 तक सरकार को प्रभावित ज़मीन मालिकों या किसानों को भुगतान कर देना चाहिए था। 30 प्रतिशत से ज़्यादा किसानों को चार साल बीत जाने के बाद भी अभी तक कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया है।

जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट ने 9 नवंबर, 2020 को अपने आदेश में अब्दुल सलाम भट बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर मामले में भी कहा था कि अगर सरकार को सेमी रिंग रोड के निर्माण के लिए ज़मीन की ज़रूरत है, तो वथूरा में भूमि अधिग्रहण के लिए नया नोटिस जारी किया जाये। लेकिन, अंतरिम आदेश पर कोई सुनवाई नहीं हुई।

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और अन्य भाजपा नेताओं ने बार-बार यह कहते हुए दावा किया है कि देश के बाक़ी हिस्सों में विस्तारित प्रमुख कार्यक्रमों के तहत जम्मू और कश्मीर के लिये इन केंद्रीय क़ानूनों का विस्तार से यहां के लोगों को फ़ायदा मिलेगा।

सवाल है कि जम्मू-कश्मीर में इन 800 केंद्रीय क़ानूनों के विस्तार का आख़िर मक़सद ही क्या है, जब लोगों को उनसे फ़ायदा ही नहीं हो रहा है? अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के दो साल से ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी कश्मीर के लोगों को उचित मुआवज़ा, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार, वन अधिकार और कई दूसरे मामलों से जुड़े क़ानूनों का लाभ मिलने का अब भी इंतज़ार है। उचित मुआवज़ा अधिनियम के तहत नियुक्त कलेक्टर इस क़ानून को लागू करने से इसलिए ख़ौफ़ खाते हैं क्योंकि उन्हें इस बात का डर लगता है कि इससे सरकार नाराज़ हो सकती है। सरकार ने इन क़ानूनों को लेकर शायद ही कोई ओरिएंटेशन प्रोग्राम आयोजित किया है, जो साफ़ तौर पर जम्मू और कश्मीर में इन प्रगतिशील केंद्रीय क़ानूनों को लागू करने में बरती जा रही ईमानदारी की कमी को दिखाती है।

(राजा मुज़फ़्फ़र भट श्रीनगर के एक कार्यकर्ता, स्तंभकार और स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। वह एक्यूमेन इंडिया फ़ेलो हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

मूल रूप से लीफ़लेट में प्रकाशित

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why is the Government Acquiring Land Under a Repealed Statute in Jammu & Kashmir?

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