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भारत
राजनीति
'व्यापक आज़ादी का यह संघर्ष आज से ज़्यादा ज़रूरी कभी नहीं रहा'
जानी-मानी इतिहासकार तनिका सरकार अपनी इस साक्षात्कार में उन राष्ट्रवादी नायकों की नियमित रूप से जय-जयकार किये जाने की जश्न को विडंबना बताती हैं, जो "औपनिवेशिक नीतियों की लगातार सार्वजनिक आलोचना" करते रहे थे। लेकिन आज अगर इन्हीं तरीक़ों का अनुसरण किया जाता है, तो "हम उन्हें आतंकवाद, राष्ट्र विरोधी साज़िश बताकर निंदा करते हैं।"
आईसीएफ़
28 Jan 2022
indian freedom struggle
प्रतीकात्मक फ़ोटो।

प्रख्यात इतिहासकार तनिका सरकार का कहना है कि भारत जबकि इस साल आज़ादी के 75 वां साल मना रहा है, तो जीवन के हर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर व्याप्त दमन को ख़त्म करने के लिए उसी प्रेरणा को फिर से अमल में लाये जाने की ज़रूरत है। आधुनिक भारत के जानी-मानी इतिहासकार साहबा हुसैन के साथ एक साक्षात्कार में वह कहती हैं कि औपनिवेशिक शासन से देश की आज़ादी सही मायने में एक ऐतिहासिक घटना थी, लेकिन जब तक कि देश में दमन, शोषण और ग़ैर-बरारबरी है, तब तक आज़ादी या स्वतंत्रता लगातार चलनी रहने वाली एक परियोजना होती है, एक अधूरा मिशन होती है। प्रस्तुत है इस साक्षात्कार का संपादित अंश:

आईसीएफ़: इस साल देश भारत की आज़ादी का 75 वां साल मना रहा है। देश का मौजूदा राजनीतिक माहौल को देखते हुए कृपया इन समारोहों की अहमियत पर अपने विचार हमारे साथ साझा करें।

तनिका सरकार: औपनिवेशिक शासन से आज़ादी बेशक हमारे इतिहास की एक ऐतिहासिक घटना थी। मैं तो कहूंगी कि यह विश्व इतिहास के लिए भी एक ऐतिहासिक घटना थी। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारत की आज़ादी दुनिया के अब तक देखे गये कुछ सबसे बड़े जनांदोलनों का नतीजा थी। इससे भी अहम बात तो यह है कि स्वतंत्रता संग्राम के हर चरण चरण में हर तरह की आज़ादी- दलितों, श्रमिकों, किसानों, आदिवासियों, महिलाओं की आज़ादी, यानी संक्षेप में कहा जाये, तो सभी तरह के निम्न तबके से जुड़े लोगों की आकांक्षायें सामने आ गयी थीं। इन आज़ादियों के संघर्ष उपनिवेशवाद से मुक्ति के संघर्ष से कम महत्वपूर्ण नहीं थे।

दुर्भाग्य से सरकार और मुख्यधारा के समाज के एक बड़े हिस्से का यह मानना है कि अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद आज़ादी पूरी तरह से हासिल हो गयी है और यह राजनीतिक संप्रभुता ही तो थी, जिसके लिए हम संघर्ष कर रहे थे। हालांकि, आज़ादी एक ऐसी परियोजना है, एक ऐसा अधूरा मिशन है, जो तबतक चलते रहते हैं, जब तक कि देश में दमन, शोषण, भेदभाव है।

मुझे हैरत होती है कि हम नियमित रूप से उन राष्ट्रवादी नायकों की जय-जयकार करते हैं, जो सीधे-सीधे औपनिवेशिक नीतियों की सार्वजनिक आलोचना और बड़े पैमाने पर विरोध करते थे, लेकिन अगर आज इन्हीं तरीक़ों को अमल में लाया जाता है, तो हम उन तरीक़ों को आतंकवाद, राष्ट्र विरोधी साज़िश ठहराकर उनकी निंदा करते हैं। आख़िर यह कहां लिखा है कि राष्ट्र-राज्य के संप्रभु और स्वतंत्र होने के बाद हमें सिर्फ़ सरकार के आदेशों का पालन करना चाहिए और जैसे ही राष्ट्र-राज्य संप्रभु और स्वतंत्र हो जाये, तो देश की सरकार की आलोचनात्मक जांच-पड़ताल का काम हमें अपने हुक़्मरानों पर छोड़ देना चाहिए? 

हक़ीक़त तो यही है कि आज के मुक़ाबले इस बड़ी आज़ादी के लिए संघर्ष इतना ज़रूरी कभी नहीं रहा। अगर स्वतंत्रता दिवस समारोह के मनाये जाने का कोई मतलब है, तो वह यही होना चाहिए कि जीवन के हर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर व्याप्त दमन को ख़त्म करने के उन्हीं प्रेरणाओं को फिर से जीवंत किया जाये। सबसे अमीर लोग कल्पना से भी परे अमीर हैं और सबसे ग़रीब लोग पिछले पांच सालों में ग़रीबी की सबसे निचले स्तर पर आ गये हैं।

अल्पसंख्यकों और दलितों पर होते ज़ुल्म, महिलाओं के ख़िलाफ़ चल रही ज़बरदस्त हिंसा न सिर्फ़ जारी है, बल्कि उनमें और तेज़ी आ गयी है और सरकार अब उन्हें रोकने का सांकेतिक प्रयास करती भी नहीं दिख रही। हर आलोचना में नक्सलवाद या आतंकवाद के रूप में ब्रांडेड होने की क्षमता होती है। मगर, यह वह तो नहीं है, जहां हमें आज़ादी के 75 वें साल की ओर ले जाना चाहिए था।

आसीएफ़: आप भारत को इस 75 वें साल में किस तरह परिभाषित करेंगे? आपके मुताबिक़, आज़ादी के बाद से भारत के सफ़र में कौन-कौन से ऐतिहासिक क्षण हैं?

तनिका सरकार: जब हम नेहरूवादी युग के बारे में सोचते हैं या फिर उसके बाद के कांग्रेस शासन के बारे भी सोचते हैं, तो हम संविधान, बांडुंग सम्मेलन, अफ़्रीकी और दक्षिण एशियाई मुक्ति संघर्षों के लिए भारत के समर्थन, उस अंतर्राष्ट्रीयता के सिलसिले में सोचते हैं, जो कि अब भी हमारे कुछ सड़क के दिये गये नामों में जीवित है। हम दक्षिण अफ़्रीका के रंगभेद के शिकार लोगों, फ़िलिस्तीनियों के लिए अपने राष्ट्र के समर्थन के बारे में सोचते हैं। हम हिंदुओं के भीतर छुआछूत और लिंगगत भेदभाव के सुधार को लेकर क़ानूनी उन्मूलन को लेकर सोचते हैं। हम सबसे अपर्याप्त संचार नेटवर्क वाले इस देश में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव कराये जाने की शानदार उपलब्धि के बारे में सोचते हैं और उस नौकरशाही के बारे में सोचते हैं, जिसका इस्तेमाल अभी तक इस तरह की क़वायद में ठीक से नहीं किया गया है।

और यह सब विभाजन से मिले घाव और शरणार्थियों की उस भारी आमद के बावजूद हासिल किया गया था, जिसे देश के ढांचे में समायोजित किया जाना था, जो कि मुश्किल से काम करना शुरू ही हुआ था। हम एक नियोजित अर्थव्यवस्था, काफ़ी तेज़ औद्योगीकरण, और उस सार्वजनिक क्षेत्र के विकास के बारे में सोचते हैं, जिसने श्रमिकों के लिए कुछ अधिकार सुनिश्चित किये थे, साथ ही बैंकों के राष्ट्रीयकरण, भूमि सुधार, प्रिवी पर्स और ज़मींदारी उन्मूलन के बारे में भी सोचते हैं। हम बांग्लादेश मुक्ति संग्राम को दिये अपने समर्थन का भी जश्न मनाते हैं।

ये सभी बेहद अहम उपलब्धियां हैं और इन्हें लेकर जश्न मनाया जाना चाहिए। लेकिन, आज लगातार चल रहे दमन के दबाव में हम कभी-कभी इस तस्वीर के स्याह पहलू को भूल जाते हैं। औद्योगीकरण और बड़े बांधों ने बेशुमार ग़रीबों को उनकी ज़मीन, घर और आजीविका से बेदखल कर दिया। अस्पृश्यता का उन्मूलन काग़ज़ों पर हुआ है और दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार पिछले कुछ सालों में बढ़े हैं। राजद्रोह कानूनों को तेज़ किया गया है और सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (AFSPA- Armed Forces Special Powers Act) और ग़ैरक़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (UAPA- Unlawful Activities Prevention Act) जैसे नये सख़्त क़ानून हुक़ूमत में दाखिल हो गये हैं। कश्मीरी लोगों के लिए घातक होने का हवाला देते हुए कश्मीर में जनमत संग्रह कराये जाने के वादे कभी ज़मीन पर नहीं उतरे और रियासतों के भारत में एकीकरण की प्रक्रिया में कभी-कभी क्रूर सैन्य बल का इस्तेमाल भी शामिल थे। सांप्रदायिक दंगे जारी रहे, हालांकि, हाल के दिनों के उलट राज्य ने पहले उन्हें दबाने की कोशिश की थी।

सालों से किसानों से किये गये भूमि अधिग्रहण ने बड़े पैमाने पर ख़ास तौर पर आदिवासियों के विस्थापन को अंजाम दिया है और पर्यावरण सुरक्षा उपायों में लगातार कमी आयी है, जिसका नतीजा पर्यावरण को हुए गंभीर नुक़सान के रूप में सामने आया है। इन सबसे बढ़कर आपातकाल के समय की तानाशाही और सिखों के ख़िलाफ़ हुए नरसंहार की हिंसा को एक पल के लिए भी नहीं भूला जाना चाहिए। महिलाओं के आंदोलन ने राज्य से कम से कम कुछ क़ानूनी अधिकार छीनने के लिए कड़ा संघर्ष तो किया है, लेकिन उनमें से कई क़ानून व्यवहारिक रूप से लागू नहीं हो पाये हैं। आज़ादी के 75 साल बाद भी भारत सबसे निरक्षर देशों में से एक बना हुआ है।

आईसीएफ़: जाति, वर्ग, धर्म और लिंग से परे सभी के लिए बराबरी की संवैधानिक गारंटी और वादे को लेकर आपका क्या कहना है ? आपके मुताबिक़ इन 'श्रेणियों' के आधार पर जारी (संस्थागत और सामाजिक) भेदभाव के कारण क्या हैं ?

तनिका सरकार: वर्ग पर आधारित ग़ैर-बराबरी ने तो सही मायने में भयावह रूप अख़्तियार कर लिया है, क्योंकि हमने अपनी ज़मीन और श्रम के दरवाज़े बहुराष्ट्रीय पूंजीपतियों के साथ-साथ स्वदेशी पूंजीपतियों के लिए भी खोल दिये हैं। ट्रेड यूनियन अधिकारों का लगातार क्षरण हो रहा है। जहां तक लिंग, जाति और धार्मिक भेदभाव का सवाल है, तो मैं कहूंगी कि इनकी हमारी सांस्कृतिक मूल्य में इतनी गहरी पैठ हैं कि हमें इन्हें ख़त्म करने के लिए निरंतर संघर्ष और रचनात्मक शिक्षा शिक्षा की ज़रूरत है।

हालांकि, हाल के दिनों में दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहार पर बातें करना भी एक ख़तरनाक और जोखिम भरा मामला बन गया है और बदलाव की गुंज़ाइश तो लगातार कम होती जा रही है। असली प्रतिक्रिया धार्मिक भेदभाव के क्षेत्र में है। अब हम सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिहाज़ से एक हिंदू राष्ट्र हैं।

आसीएफ़: क्या आज़ादी के बाद के दशकों में भारत में अल्पसंख्यकों और महिलाओं की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार हुआ है ? आज उनके सामने मुख्य चुनौतियां क्या हैं ?

तनिका सरकार: मैं कहूंगी कि अल्पसंख्यकों की स्थिति में ख़तरनाक तौर पर गिरावट आयी है। जहां तक महिलाओं का सवाल है, नारीवादी राजनीति के विकास ने कुछ सकारात्मक बदलाव ज़रूर किये हैं और हमें उन्हें कम करके नहीं आंकना चाहिए। लेकिन, स्टेट के अत्याचारों से सुरक्षा, पितृसत्तात्मक सांस्कृतिक मूल्यों से सुरक्षा और ज़्यादा से ज़्यादा उन बदलावों की तत्काल ज़रूरत है, जो कि एक बहुत ही आधुनिक प्रतीत होता हो और प्रगतिशील रूप धारण कर सकता हो, न कि महिलाओं को पारंपरिक मानदंडों, विज्ञापन संस्कृति या मीडिया चर्चाओं के रूप में निर्दयतापूर्वक अधीनस्थ बनाता हो।

वैवाहिक बलात्कार को लेकर चलते मौजूदा विवाद से यही पता चलता है कि पति के नियंत्रण की धारणा कितनी गहरी है। तथाकथित लव-जिहाद विरोधी अभियानों ने दो धर्मों के लोगों के बीच स्वतंत्र रूप से चुने गये प्रेम और विवाह की क़वायद पर रोक लगाने की धमकी वैसी ही है, जैसी कि 1930 के दशक में नाज़ी जर्मनी के नूर्नबर्ग क़ानूनों में थी।

आईसीएफ़: आपने 90 के दशक में महिलाओं और भारत में दक्षिणपंथ के उदय पर किताबें भी लिखी हैं। आरएसएस/भाजपा के उदय और लामबंदी को देखते हुए आज महिलाओं की राजनीतिक संस्थाओं और लैंगिक समानता के लिहाज़ से इसका निहितार्थ/नतीजे क्या हैं ?

तनिका सरकार: मैंने सांप्रदायिक संगठनों में महिलाओं की भूमिका को लेकर बहुत आलोचनात्मक रूप से लिखा है। लेकिन, हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि दक्षिणपंथी संगठन महिलाओं को बेहद नज़र आती संभावनाओं के साथ आगे रखते हैं। उनके पास ख़ासकर धर्म को लेकर अपील के ज़रिये अपनी निष्ठा हासिल करने के बहुत ही नये-नये और सूक्ष्म तरीक़े होते हैं। सही मायने में वे हिंसा में लैंगिक समानता का एक घातक रूप प्रदान करते हैं, जो कि जीवन के बाक़ी क्षेत्रों में महिलाओं की अधीनता के लिहाज़ से आंशिक रूप से भरपाई कर सकता है। हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि ज़रूरी नहीं कि अन्य दलों ने अपने यहां इन लैंगिक पूर्वाग्रहों को दूर कर लिया हो और शायद महिलाओं को राजनीतिक अहमियत भी कम से कम दिया है।

मैं हिंदू चरमपंथियों की इस लैंगिक विचारधारा को सामाजिक रूढ़िवाद का एक रूप कहूंगी, जो कि सिर्फ़ उनकी श्रेणी से आने वाली महिलाओं के लिए राजनीतिक सशक्तिकरण के एक स्तर से युक्त है। यह स्तर अभी पूरी तरह से कट्टरवादी तो नहीं है, लेकिन जल्द ही इस तरह से आगे बढ़ सकता है। वास्तव में महिला संगठनों को यह मांग करनी चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी अचानक हम पर थोप दे, इससे पहले सार्वजनिक बहस के लिहाज़ से समान नागरिक संहिता को लेकर अपनी रूप-रेखा का ख़ुलासा करे।

आईसीएफ़ :ऐसा लगता है कि नागरिकता, लोकतंत्र, राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता और न्याय जैसे शब्दों ने हाल के सालों में नये मायने अख़्तियार कर लिये हैं। ऐसा ही असहमति और विरोध का भी हाल है। इस पर और भारतीय स्टेट के (बदलते) चरित्र पर आपके क्या विचार हैं ?

तनिका सरकार: इसका जवाब छोटा है और वह यह कि ये लोकतंत्र की मौत के संकेत हैं। इन तमाम शब्दावलियों में से हर एक शब्द के स्वीकृत अर्थों को उल्टा कर दिया गया है और इसका मज़ाक उड़ाया गया है।

आईसीएफ़: नागरिक और लोकतांत्रिक अधिकार आंदोलन के साथ-साथ देश में महिला आंदोलन के प्रति आपकी सक्रिय प्रतिबद्धता जानी पहचानी रही है। कृपया इन सालों में इन संघर्षों और सीखे/सीखाने वाले सबक़ को लेकर अपनी इस समझ के बारें में हमें बतायें।

तनिका सरकार: यह मेरे लिए बहुत दुख और मलाल की बात है कि जिन तमाम साथियों से मैंने सीखा है कि शांति और धर्मनिरपेक्षता के लिए संघर्ष कैसे किया जाता है, उनमें से बहुत सारे साथी इस समय अनिश्चित काल के लिए और बेहरहम हालात में जेल में हैं। जिन छात्रों के साथ मैं बहस करती थी और उनसे सीखना पसंद करती थी, वे तमाम होनहार नौजवान इस समय बर्बाद होते करियर, सार्थक सक्रियता के ख़ात्मे और भयानक क़ैद का सामना कर रहे हैं।

मुझे याद है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद हममें से कुछ लोग गौतम नवलखा के निर्देशन में किस तरह धर्मनिरपेक्षता के लिए जनांदोलन की स्थापना के लिए एक साथ मिले थे, कैसे हम शांति को लेकर बात करने की ख़ातिर सभी तरह के मोहल्लों, कॉलेजों और स्कूलों में गये थे, किस तरह हम उस ज़माने के ज्वलंत मुद्दों पर छात्रों और शिक्षकों के साथ स्कूल स्तर पर चर्चा करते थे और उन चर्चाओं को उन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में ले जाते थे, जहां हम पढ़ाया करते थे। हमने समकालीन समय में जाति को समझने के लिए आनंद तेलतुम्बडे को पढ़ते थे, जिन्होंने सुमित (इतिहासकार सुमित सरकार) को दिल्ली विश्वविद्यालय में जाति पर एक कोर्स को पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया था। बाद में मैंने भी जेएनयू में एक कोर्स की पेशकश की थी। मुझे याद है कि एक बेहद नौजवान सुधा भारद्वाज कई बार हमारे घर आती थीं और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथ अपने काम के ब्योरे सुनाकर हमें मंत्रमुग्ध कर देती थीं। क्या वो दिन कभी वापस आ पायेंगे ?

आईसीएफ़: 75 वें साल का यह समारोह 2020 से चल रही उस महामारी और उसके चलते लगाये जाने वाले लॉकडाउन के साथ कोई संयोग दिखता है, जिससे कि लोगों, ख़ासकर महिलाओं और हाशिए पर रह रहे तबकों को भारी पीड़ा और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। इस स्थिति को देखते हुए लोगों की आकांक्षाओं और शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका की सुलभता को लेकर आपके क्या विचार हैं?

मुझे लगता है कि मैंने पहले ही इसका जवाब दे दिया है। महामारी ने ग़रीबों और मेहनतकशों के प्रति अधिकारियों की घोर निष्ठुरता को इस रूप में पहले कभी नहीं चित्रित किया था। मुझे नहीं लगता कि केंद्र सरकार ने यह भी ख़ुलासा करने की जहमत उठायी कि उन्होंने राहत के लिए जो फ़ंड जुटाया था, उसे किस तरह ख़र्च किया गया। ऊपर से उन्होंने उन पत्रकारों को दंडित किया, जिन्होंने इस पीड़ा की वास्तविक तस्वीर को सामने लाया था।

आईसीएफ़: क्या स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में कलकत्ता में बिताये गये आपके बचपन और बड़े होने की उम्र के दौर की आपकी कुछ यादें हैं ?

तनिका सरकार: बचपन में हमें स्वतंत्रता सेनानियों के आदर्शवाद और बलिदान के बारे में पढ़ाया जाता था, लेकिन यह सब इतने ग़ैर-विश्लेषणात्मक और ग़ैर-आलोचनात्मक तरीक़े से पढ़ाया जाता था कि हम नहीं जान पाते थे कि उनके बीच गंभीर मतभेद या अंतर्विरोध भी रहे थे। ये सभी महापुरुष थे- कदाचित महान महिलायें थीं, और उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराया था। हमें आम लोगों के उपनिवेश-विरोधी संघर्षों के बारे में कभी बताया ही नहीं गया।

इस कहानी का मक़सद आशावाद पैदा करना था, लेकिन आमतौर पर इसे इतना आम बना दिया गया था कि यह एक उबाऊ अनुष्ठान बन जाता था। मुझे याद है कि साल दर साल हम सुनते रहे कि नेताजी (सुभाष चंद्र बोस) वापस आयेंगे और भारत को तमाम समस्याओं से मुक्ति दिला देंगे। दिलचस्प बात यह है कि कलकत्ता को गांधी से कोई लगाव ही नहीं था। विभाजन की भयावहता को सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता था, लेकिन तथाकथित मुस्लिम विश्वासघात और हिंसा की कहानियों ने हमारे कई दोस्तों के परिवारों में एक ज्वलंत सांप्रदायिकता को जीवंत रखा।

बचपन के यादों में तनख़्वाह में थोड़े इज़ाफ़े की मांग करते हुए निहत्थे श्रमिकों पर पुलिस हमलों और गोलीबारी की यादें भी हैं। पचास और साठ के दशक में कलकत्ता में बार-बार दंगे हुए। मुझे 1964 का वह दंगा एकदम से याद है, जिसके लिए मेरे ज़्यादतर स्कूली दोस्तों ने मुसलमानों की करतूतों को ज़िम्मेदार ठहराया था। मैंने बेबस मुसलमानों पर कुछ इस तरह के हमले देखे थे-पड़ोस की मस्जिद के एक पुराने इमाम को पड़ोस के लड़कों से बेरहमी से पीटते देखा था, बालीगंज झीलों में एक पुरानी मस्जिद को जला दिया गया था, एक मुसलमान शख़्स तेज़ रफ्तार से चलती एक ट्रामकार में शरण लेने के लिए दौड़ रहा था, जिसका पीछा एक भीड़ कर रही थी। ये तमाम घटनायें अचानक से मुझे अपने कई दोस्तों और पड़ोसियों को एक नयी रोशनी में दिखा था।

मेरी यह ख़ुशक़िस्मती है कि मैं एक बहुत ही धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील परिवार से थी और मेरे माता-पिता ने अंतर्धार्मिक विवाह किया था। नहीं, तो मैं भी उस ज़हरीली नफ़रत के आगे झुक जाती, जो साफ़ तौर पर भद्र और शांत कलकत्ता के माहौल में छुपी हुई थी।

बेशक, इसके अपवाद भी थे, और इसके समानांतर कलकत्ता के चरित्र में एक जीवंत और मज़बूत धर्मनिरपेक्ष लोकाचार भी था। लेकिन, यह सांप्रदायिकता कभी दूर नहीं हुई और हम कभी-कभी आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के उन स्कूलों और शाखाओं के असर में आते रहे, जो चुपचाप और सब्र के साथ अपना काम करते रहे।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

‘The Struggle for Larger Azadi has Never Been More Urgent than it is Today’

Indian independence
75th Independence day
FREEDOM STRUGGLE
Secularism
Indian democracy
British Colonial Rule
Partition

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