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ट्रांस पुरुषों का स्वास्थ्य और चुनौतियां

'आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना' के तहत स्वास्थ्य-सहायता में ट्रांसजेंडर समुदाय को भी शामिल करने की घोषणा हुई। लेकिन इस योजना का लाभ उन्हें कितना मिला, यह बता पाना मुश्किल है।
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फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

थर्ड जेंडर के व्यक्तियों, ट्रांस-पुरुषों, ट्रांस-महिलाओं और अन्य लिंग के गैर अनुरूपता वाले लोगों के बीच भिन्नता, बाहरी लोगों को भ्रमित कर सकती है। कई लोग थर्ड जेंडर को केवल किन्नर समझते हैं, हालांकि कई दूसरे लिंग गैर-अनुरूप पहचान भी इस छत्र के नीचे आते हैं, इसके अलावा कुछ ऐसे भी हैं, जो “थर्ड”जेंडर का उपयोग न करने का तर्क प्रस्तुत करते हैं। ट्रांस और किन्नर पहचान के बीच मुख्य अंतर यह है कि ट्रांस लोगों को ट्रांस के रूप में स्वयं को पहचानने की स्वतंत्रता है। किन्नर के रूप में पहचाने जाने के लिए किन्नर रिवाजों के अनुसार चलने वाली लम्बी प्रक्रिया का हिस्सा बनना होता है जिसको अभी तक भारतीय कानून द्वारा मान्यता नहीं मिली। भारत में सामान्य ट्रांस आबादी ऐसी आंतरिक सामाजिक व्यवस्था का पालन नहीं करती है, वे किन्नरों की तरह समान हितों वाले समुदाय की तरह एक साथ नहीं रहते। साथ ही, ट्रांस-पुरुष किन्नर समुदाय का हिस्सा नहीं है।

ट्रांस-पुरुषों का समुदाय भारत में बहुत ढँका-छिपा रहता है। एक ट्रांस-पुरुष वह व्यक्ति होता है जिसे जन्म के समय स्त्री घोषित कर दिया जाता है। नीति-निर्माण के स्तर पर या उनके यौनिक/प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य जरूरतों के स्तर पर तो वे मानो अस्तित्व में ही नहीं होते। प्रतिनिधित्व की इस कमी की वजह से भारत के ट्रांस-पुरुष, एलजीबीटीक्यू नीतियों के ढाँचे से काफी हद तक बाहर छूट गये हैं। इस वजह से वर्तमान में चल रहे मध्यस्थता के कार्यक्रमों में इस समुदाय के लिए जागरूकता और प्रतिनिधित्व की कमी पैदा हुई है। भारत में ट्रांस-पुरुषों के बारे में चिकित्सीय शोध और जानकारियों की कमी है। उनके यौन-स्वास्थ्य को महिलाओं के प्रजनन संबंधी योजनाओं में ही शामिल कर दिया जाता है। एक पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की इच्छाएँ और परिवार संबंधी योजनाएं अक्सर जच्चा-बच्चा और जननी सम्बन्धी योजनाओं में ही सिमटकर रह जाती है जो हेटरो नॉर्मेटिव विचारों से ही बनती हैं।

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साथ ही, ऐसे परिवार जहां समलैंगिकों और ट्रांस लोगों के प्रति बेहद घृणा है तथा जबरदस्ती की शादी और कायांतरण की कोशिशें भी होती हैं। वहाँ ऐसे समुदायों पर होने वाली हिंसा छुपी ही रहती है। यह स्थिति उनके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव के सामाजिक कारणों में अत्यंत महत्वपूर्ण और अनचीन्हा कारण है। यह उन्हें खतरों के प्रति और संवेदनशील बनाता है।

समलैंगिकों और ट्रांस लोगों के प्रति बेहद घृणा

मेरे शोध के अनुसार ट्रांस पुरुषों का समुदाय जन्म से ही औरत बना दिए जाने से बहुत सी मुसीबतें झेलता है और लिंग-आधारित पालन-पोषण की चुनौतियों का सामना करता है। इस प्रक्रिया में उनकी स्वायत्तता, अभिव्यक्ति और आज़ादी बुरी तरह कुचल जाती है। वे लोग जिन्हें जन्म के समय स्त्री घोषित कर दिया जाता है, उनके प्रति समाज के रवैये से भी इस समुदाय को एलजीबीटीक्यू मुद्दों में भी हाशिये पर रखा जाता है। सामाजिक और पारिवारिक दबावों के चलते उन्हें पुरुषों के मुकाबले बाहर आने-जाने के मौके कम होते हैं, अपने जीवन पर और अपने निर्णयों पर अधिकार कम होता है। इसी तरह इस समुदाय के लोगों के लिए मिलने-जुलने, यहाँ तक कि ऑनलाइन माध्यमों पर भी सुरक्षित बातचीत कर सकने की जगहों का अभाव उन्हें अकेलेपन में धकेल सकता है और वृहत्तर एलजीबीटीक्यू समुदाय से उनका कोई जुड़ाव नहीं हो पाता। परिणामस्वरूप, ऐसे बहुत से लोग नकार दिये जाने और अकेले पड़ जाने के डर से अपनी सच्चाई को छुपा जाते हैं।

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2015 के केरल के ट्रांसजेंडर सर्वे में पाया गया कि उनमें से अधिकांश लोग अपनी शारीरिक बनावट बदलवाना चाहते थे, लेकिन उनमें से 80% लोगों को कोई सहयोग नहीं मिला। अक्टूबर 2021 में भारत सरकार के द्वारा एक प्रमुख योजना 'आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना' (PM-JAY) की शुरुआत की गई जिसमें सारे सरकारी और संबद्ध निजी अस्पतालों में प्रति परिवार पाँच लाख रुपए की स्वास्थ्य-सहायता देने की बात थी। इसके अंतर्गत घोषणा की गयी कि 'सपोर्ट फॉर मार्जिनलाइज़्ड इंडिविजुअल्स फॉर लाइवलीहुड एंड एंटरप्राइज (SMILE)' की नयी योजना के तहत ट्रांसजेंडर जनसंख्या को भी इसमें शामिल किया जाएगा। इस स्वास्थ्य-सहायता में ट्रांसजेंडर लोगों के लिए स्वास्थ्य सहायता एवं जांच शामिल होंगे। हालांकि, वर्तमान स्थिति में इस घोषणा को मूर्त रूप कैसे दिया जाएगा और इस योजना से लाभ मिलने में ढांचागत चुनौतियां कैसी होंगी - यह बता पाना मुश्किल है। साथ ही, मौजूदा स्वास्थ्य बीमा में लिंग-सकारात्मक सर्जरियां, उसके बाद की प्रक्रियाएं और उनमें आने वाला खर्च शामिल नहीं होता। क्योंकि यह सब 'सौंदर्य-प्रसाधन' समझा जाता है, कोई आवश्यक सर्जरी नहीं।

साथ ही, लैंगिक रूप से सहायक वस्तुएँ जैसे बाइंडर्स (ट्रांस पुरुषों का अन्तःवस्त्र) एवं प्रोस्थेटिक्स (कृत्रिम अंग) इस देश में आसानी से उपलब्ध नहीं हैं और बहुत से लोग इन्हें ख़रीद पाने में सक्षम नहीं है। बहुत से ट्रांस-पुरुष बाईंडर्स के लिए अपने समूह के अंदरूनी नेटवर्क पर निर्भर हैं। इस समुदाय के कुछ लोगों ने इसकी सप्लाई शुरू कर दी है। कुछ उपभोक्ताओं ने ऑनलाइन बाइंडर्स खरीदे, लेकिन उनकी गुणवत्ता बेहद खराब थी। उनको बनाने में इस्तेमाल हुई चीज़ें भारत जैसे गर्म और नमी वाले देश के‌ लिए उपयुक्त नहीं थीं और गर्मियों में उसके कारण बहुत पसीना आता था।

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हालांकि ट्रांस-पुरुषों के समुदाय से बहुत से लोग सोशल मीडिया जैसे माध्यमों पर सामने आ रहे हैं। वे जागरूकता पैदा करते हैं और अपने शारीरिक स्वास्थ्य की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ऑनलाइन माध्यमों पर ऐसे मंचों की जानकारी देते हैं जो ट्रांस-पुरुषों के लिए ही बनाये गये हैं। जैसे यूट्यूब या अन्य सोशल मीडिया माध्यमों के समूह या व्हाट्सएप समूह आदि। अतः ट्रांस-पुरुषों के समुदाय तक सचमुच पहुँचने और स्वास्थ्य-संबंधी उनकी ज़रूरतों को प्राथमिकता देने के लिए ज़रूरी है कि ज़मीनी स्तर पर योजनाबद्ध तरीके से उन तक पहुँचने और उन्हें जोड़ने के सफल कार्यक्रम चलाए जाएँ। इनमें क्वीयर मुद्दों में विभिन्न समुदायों का पक्ष रखने के लिए नयी और सुरक्षित डिजिटल जगहें तैयार की जाएँ। इसके द्वारा बहुत से ट्रांस-पुरुषों में क्षमता-निर्माण किया जा सकता है।

(इना गोयल एक स्वतंत्र लेखक और लाडली मीडिया फेलो 2022 हैं। इना चाइनीज यूनिवर्सिटी ऑफ़ हांगकांग के एन्थ्रोपोलॉजी विभाग में पीएचडी कर रही हैं। इसके पहले उन्होंने जेएनयू (नयी दिल्ली) से सोशल मेडिसीन एंड कम्युनिटी हेल्थ में एम. फिल और दिल्ली यूनिवर्सिटी से मास्टर ऑफ़ सोशल वर्क की पढ़ाई की है। इस आलेख में प्रस्तुत विचार लेखक के अपने निजी हैं जिसका लाडली और यूएनएफपीए से कोई सम्बन्ध नहीं है।)

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