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सिविल सर्विसेज़ में OBC और SC/ST का कम होता प्रतिनिधित्व चिंता का विषय!

पिछले पांच वर्षों में ऑल इंडिया सर्विसेज़ की नियुक्तियों में अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व की दर क्रमश: 15.92 फीसदी, 7.65 फीसदी और 3.80 फीसदी है।
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फ़ोटो साभार : PTI

कहते हैं कि जब सामाजिक परिवर्तन आम जनता के पक्ष में हो जाएगा तब भी वंचित समुदायों को उनका सामाजिक-आर्थिक हक़ दिलाने का संघर्ष चलता रहेगा। हिंदुस्तान की कहानी कुछ अधिक भयानक है क्योंकि यहां वंचित तबक़ा निचली जातियों से आता है जिसे धामिक ग्रंथों में अनुमति दी गई है। जाती-व्यवस्था ने हमारी राजनीतिक और सामाजिक मानसिकता में इतनी गहरी जड़े बना ली हैं कि जीवन के हर-एक पहलू में जाति-आधारित भेदभाव खुला नज़र आता है।

इस पृष्ठभूमि में कुछ चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं कि पिछले पांच वर्षों में ऑल इंडिया सर्विसेज़ की नियुक्तियों में अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व की दर क्रमश: 15.92 फीसदी, 7.65 फीसदी और 3.80 फीसदी है जबकि आबादी में इन समुदायों का हिस्सा क़रीब आधा है। इतना कम प्रतिनिधित्व गंभीर भेदभाव को दर्शाता है।

उक्त जानकारी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के राज्यसभा सांसद श्री जॉन ब्रिटास द्वारा संसद में पूछे गए प्रश्न संख्या 2686 के जवाब में मिली। जॉन ब्रिटास ने संसद में केंद्र सरकार से पूछा था कि,

* पिछले पांच वर्षों में सीधे तौर पर ऑल इंडिया सर्विसेज़ में कितनी नियुक्तियां की गईं उनका ब्यौरा दिया जाए;

* और पांच सालों में इन नियुक्तियों में अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कितने सदस्य नियुक्त किए गए उसका भी ब्यौरा दिया जाए।


केंद्र सरकार द्वारा दिए गए जवाब में बताया गया कि पिछले पांच वर्षों में ऑल इंडिया सर्विसेज़ में नियुक्तियों के मामले में भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए 2163, भारतीय पुलिस सेवाओं के लिए 1403 और भारतीय वन सेवाओं के लिए 799 नियुक्तियां की गई है। इनमें अनुसूचित जाति समुदायों के लिए 334 (7.65 प्रतिशत), अनुसूचित जनजातियों के लिए 166 (3.8 प्रतिशत) और ओबीसी के लिए 695 (15.92 प्रतिशत) भर्तियां की गई हैं। जबकि सीधे भर्ती के मामले में अनुसूचित जातियों के लिए 15 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति समुदायों के लिए 7.5 प्रतिशत तथा ओबीसी के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है।

ऐसा नहीं है कि इन समुदायों के भीतर लायक प्रतिनिधि नहीं हैं जैसा कि अक्सर बहाना बनाया जाता है। लेकिन यह सामंती और जातीय मानसिकता है जो वंचित तबकों को उनका हक़ दिलाने से रोक रही है। सामाजिक न्याय का सपना तब तक पूरा नहीं होगा जब तक कि सामाज में मौजूद वंचित और पिछड़े तबकों को उनका हक़ नहीं दिला दिया जाता और इसकी शुरुआत सरकारी नौकरियों में आरक्षण को पूरी तरह से लागू करके की जा सकती है।

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