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ब्लॉग : दिल्ली हिंसा का जो सबसे खराब सबक़ है वह केजरीवाल और पुलिस का रोल है

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने नैतिक बल के चलते ही हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की है, क्योंकि पुलिस और सुरक्षा बल तो उनके पास कभी नहीं थे, लेकिन दुखद यह है कि दिल्ली में हो रही हिंसा में उन्होंने अपने नैतिक बल का भी इस्तेमाल नहीं किया।
Arvind kejriwal

'कुछ तो उनकी साज़िश ठहरी
कुछ अपनी मक्कारी है
आग ये ऐसे नहीं लगी है
सबकी हिस्सेदारी है'

कवि-पत्रकार मुकुल सरल की ये पंक्तियां फेसबुक पर पढ़ने को मिलीं। पिछले हफ्ते भर से दंगों की रिपोर्टिंग करने के बाद लगा कि ये पंक्तियां सच को बयान कर रही हैं। गौरतलब है कि उत्तर पूर्वी दिल्ली में नफ़रत और हिंसा की आग में अब तक 42 लोग जान गंवा चुके हैं। सैकड़ों घरों और दुकानों में आग लगा दी गई है। संपत्ति और कारोबार का करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ है। बड़ी संख्या में लोग घायल हैं।

अब भी हिंसा प्रभावित इलाकों में पुलिस और अर्धसैनिक बल पेट्रोलिंग कर रहे हैं। जिस तरीके से सड़कों पर नफ़रती भीड़ ने तांडव किया वह देश के दिल और राजधानी दिल्ली के माथे पर बदनुमा दाग़ है। विभाजन और सिख दंगों की पीड़ा झेल चुकी दिल्ली को इस हिंसा को भी भुलाकर आगे बढ़ने में लंबा वक्त लगेगा।

दंगों के दौरान दिल्ली के सड़कों पर रिपोर्टिंग करते हुए जेहन में तमाम तरह के सवाल उठ रहे थे। जैसे, इतने बड़े नुकसान के बाद आखिर पुलिस और प्रशासन सक्रिय क्यों नहीं हो रहा है? अब जब पुलिस कह रही है कि दिल्ली में हुई हिंसा के बारे में कई खुफिया सूचनाएं थीं तो सही समय पर, सही संख्या में, सही जगह पर सुरक्षाबल तैनात क्यों नहीं किये गये? इस शहर में बड़े—बड़े भाषणबाज, संवाद कला में माहिर राजनेता रहते हैं, वे क्यों इन इलाकों में उतर नहीं रहे हैं? दिल्ली के मुख्यमंत्री और सरकार ऐसे वक्त में क्या कर रही है? एनजीओ और पीस कमेटियां कहां गायब हैं? लोगों के बीच में इतनी नफरत और हिंसा क्यों भर गई है? आखिर हमारा सामाजिक तानाबाना इतना कमजोर क्यों हो गया कि लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए?

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फिलहाल इस हिंसा में जिसकी कलई सबसे ज्यादा खुली वह पुलिस और गृह मंत्रालय है। देश में उपलब्ध सबसे बेहतरीन तकनीक, नेटवर्क और सबसे चुस्त दुरुस्त दिल्ली पुलिस को प्रदेश के एक हिस्से में हो रही हिंसा पर लगाम लगाने में हफ्ता भर लग गया। सोचने वाली बात यह है कि यह बल गृह मंत्रालय के अधीन है। और देश के गृह मंत्री को मोदी सरकार का सबसे ताकतवर और कड़े फैसले लेना वाला मंत्री माना जाता है। हिंसा के दौरान स्थिति यह थी कि देश के सबसे मजबूत नेता के नीचे काम करने वाली सबसे अत्याधुनिक पुलिस हिंसा के दौरान सड़कों पर बेचारी नजर आई।

यहां तक की रिपोर्टिंग के दौरान कई जगह पर दंगाई यह कहते नजर आए कि वो दिल्ली पुलिस को बचाने आए हैं। हाथ में लोहे की रॉड, पत्थर और पेट्रोल बम लिए हुए दंगाई जब यह कहते थे तो मुझे सड़क पर खड़े पुलिसकर्मी का चेहरा नहीं बल्कि उनके मुखिया अमित शाह का चेहरा नजर आता था। निसंदेह अब जब पुलिस तमाम तरह के इनपुट के बारे में बता रही है तो यह साफ लग रहा है कि गलती सड़क पर खड़े मजबूर पुलिसकर्मियों की नहीं बल्कि उनके उच्चाधिकारियों की ही है। जिन्हें तीन दिन लग गए सड़क पर उतरने में और स्थिति को सामान्य करने में। साफ तौर पर इस हिंसा ने देश के सबसे मजबूत प्रधानमंत्री, कड़े फैसले लेने वाले गृहमंत्री और हाईटेक दिल्ली पुलिस की छवि को तोड़ दिया है और दंगा करती भीड़ ने बता दिया कि इनकी ये छवियां मीडिया द्वारा गढ़ी गई हैं। ये सच नहीं है।

वैसे इस हिंसा ने सिर्फ प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और केंद्र सरकार के नेताओं के बारे में बनी छवियों को ही नहीं तोड़ा है, बल्कि देश की राजधानी में रहने वाले उन सभी दलों के करीब 1000 से ज्यादा बड़े नेताओं के बारे में बनाए गए भ्रम को तोड़ दिया है कि उन्हें जनता की चिंता है। ये नेता संवाद कला में माहिर हैं, खुद को जननेता कहते हैं, बड़े भाषणबाज हैं, टीवी स्क्रीन और संसद में देश के आखिरी आदमी की वकालत करते नजर आते हैं लेकिन जब दिल्ली में दंगे हो रहे थे तो इसमें से कोई भी सड़क पर नहीं उतरा।

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यह तब है जब इन नेताओं को विरासत में ऐसी तमाम कहानियां मिली हैं जिसमें उनके पूर्वजों द्वारा ऐसे दंगों को रोकने के लिए सड़क पर उतरने की मिसाल है। इसी दिल्ली में दंगों को रोकने की महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल की तमाम कहानियां इतिहास में दर्ज है। यानी हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जब हमारे राजनेता सिर्फ कुर्सी की राजनीति कर रहे हैं। एक बार कुर्सी मिल जाने के बाद उन्हें जनता की फिक्र नहीं है और न ही अच्छे नागरिकों का निर्माण वो करना चाहते हैं।

अब चर्चा दिल्ली में मौजूदा और हाल फिलहाल में कुर्सी पर दोबारा काबिज हुए आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल की। इन दंगों के दौरान जिसका चेहरा सबसे ज्यादा खुला और जिसने सबसे ज्यादा निराश किया वो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल रहे। दंगों के दौरान वो और उनकी पार्टी सड़कों से बिल्कुल नदारद थी। दिल्ली पुलिस पर नियंत्रण नहीं होने की बात कहने वाले अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी का रवैया जिस तरह का था वह गुस्सा दिलाने वाला था। बेशक दिल्ली पुलिस का नियंत्रण केजरीवाल के पास नहीं है लेकिन क्या उनके पास इतना नैतिक बल भी नहीं है कि वह अपनी दिल्ली के जनता के पास जा सकें। उस जनता के पास जिसने अभी उन्हें एक बार फिर अपना नेता चुना था।

सड़कों पर रिपोर्टिंग करने के दौरान बार-बार यह लग रहा था कि अगर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल राजघाट जाने के बजाय अपने सभी 62 विधायकों के साथ इन इलाकों में एक बार घूम जाएं तो भी क्या लोग दंगा करते रहेंगे? हमारा दुर्भाग्य ये है कि आंदोलन से पैदा हुए और पिछली बार शपथ लेते समय 'इंसान का इंसान से हो भाई चारा' का गाना गाने वाले केजरीवाल के पास अब इतना भी नैतिक बल नहीं बचा है कि वो यह साहस दिखा सकें। दरअसल उन्हें केंद्र सरकार की उस सुरक्षा बल पर इतना यकीन था कि वह हिंसा खत्म देगी जिस पर इस दंगों और इससे पहले निष्पक्ष व्यवहार नहीं करने के तमाम आरोप लगे हैं।

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यह भी हो सकता है कि भविष्य में केजरीवाल के पास वह नैतिक बल भी न बचे जिसके सहारे उन्होंने विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की थी। सुरक्षा बलों की ताकत उनके पास आने से रही, ऐसे में उन्हें अपने बोए हुए को काटना पड़ेगा। दरअसल केजरीवाल को यह समझना होगा कि सिर्फ स्कूल, अस्पताल और इंफ्रास्ट्रक्चर से लोकतंत्र का निर्माण नहीं होता है। यह सब जरूरी है, लेकिन लोकतंत्र में अच्छे नागरिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के निर्माण की जिम्मेदारी उससे भी ज्यादा जरूरी है। अगर वो इसमें असफल रहे तो दीर्घकालिक समय में इसके परिणाम समाज की हत्या के रूप में सामने आएंगे।

आखिरी सवाल जनता के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों और आमजन को लेकर भी है। सड़कों पर घूमते समय जब भी कोई आईकार्ड मांग रहा था तो बस इतना कहता था कि भाई हिंदुस्तानी हूं। क्या ये पहचान आपके लिए पर्याप्त नहीं है। क्या इन सड़कों पर घूमने के लिए मुझे हिंदू या मुसलमान होना पड़ेगा तभी मैं सुरक्षित हूं।

साथ ही दिल्ली की सड़कों पर घूमते हुए लगा कि विधानसभा चुनावों के दौरान हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के प्रयास भले ही उसके नतीजों को न बदल पाये हों लेकिन उसने कई लोगों के मन में बहुत-बहुत सारा जहर तो भर ही दिया था। जिसका इस्तेमाल बाद में हुआ। इसके अलावा एक बात साफ थी कि नफरत फैलाने वाले समूहों ने अपना काम ईमानदारी से किया तो वहीं अमन और शांति का पैगाम देने वाले लोग नाकाम नजर आए। रही सही कसर सोशल मीडिया यानी व्हाट्सऐप, फेसबुक, ट्विटर और तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया के एक हिस्से ने पूरी कर दी।

हालांकि इस दौरान सड़कों पर तमाम ऐसे लोग मिले जिन्होंने अपने दिल में दिल्ली की उस छवि को बसाए रखा था जो सांझी विरासत लिए है। उनसे मिलकर यह लगा कि केजरीवाल और दिल्ली पुलिस भले ही अपने रोल को ठीक ढंग से अदा नहीं कर पा रहे हैं। ये लोग जब तक हैं तब तक अमन की कहानियां सुनने को मिलती रहेंगी। मोहब्बत की कहानियां सुनने को मिलेंगी।

मुकुल सरल की कविता की आखिरी चंद पंक्तियां भी इसी का संदेश दे रही हैं। इसे पढ़ा जाय...

'मुल्क है सबका साझा सपना
मैं भी तेरा, तू भी अपना
कौन यहां पर गैर बताओ
फिर क्यों मारा मारी है!

आओ आओ साथ में आओ
मिलकर सारे आग बुझाओ
मेरा घर है, तेरा घर है
सबकी ज़िम्मेदारी है।'

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