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एक तरफ़ मेले की चकाचौंध और दूसरी तरफ़ सफ़ाईकर्मियों की दुर्दशा पेश करती यह रिपोर्ट

“एक तरफ़ बड़े-बड़े शामियाने, रौशनी और एक सुखद अहसास और दूसरी तरफ इस कड़कड़ाती ठंड में खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर वे लोग जिनकी पेट की आग उन्हें शायद ठंड का एहसास होने नहीं देती”
एक तरफ़ मेले की चकाचौंध और दूसरी तरफ़ सफ़ाईकर्मियों की दुर्दशा पेश करती यह रिपोर्ट

संगम नगरी प्रयागराज में मकर संक्रांति से दुनिया का सबसे बड़ा आध्यात्मिक माघ मेला शुरू हो चुका है। लेकिन हम इस मेले में आने वाले न लाखों श्रद्धालुओं की बात करेंगे न साधु संतों की और न ही कल्पवासियों की, हम बात करेंगे मेले में रोजगार के लिए आने वाले उन हजारों सफाईकर्मियों की जिनके बिना कोई भी आयोजन अधूरा है और उनकी बात करना इसलिए जरूरी है क्योंकि हम जानते हैं कि किसी भी चमक-धमक के पीछे एक स्याह पहलू जरूर छिपा रहता है। अन्य दूसरे मेलों की तरह इस बार भी माघ मेले में  इलाहाबाद के अलावा उत्तर प्रदेश के दूसरे जिलों जैसे बांदा, फतेहपुर, कौशांबी, चित्रकूट आदि के अलावा पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश से भी सैकड़ों सफाईकर्मी अपने परिवार के साथ पहुंच चुके हैं और अभी फ़रवरी में भी एक बड़ी तादाद आने वाली है। लेकिन इस माघ मेले की बात करने से पहले हम थोड़ा पीछे जाते हुए जिक्र करेंगे 2019 में हुए कुंभ मेले की। जी हां, वही कुंभ मेला जिसमें प्रधानमंत्री जी ने पांच सफाई कर्मियों के पैर धोए थे और अन्य पांच सफाई कर्मियों को उनके बेहतर काम के लिए पुरस्कार देकर सम्मानित किया था। 

अब यहां यह बताना जरूरी है कि आखिर पिछले कुंभ मेले का जिक्र क्यों किया गया, क्योंकि एक तरफ हम देशवासियों के सामने एक सुखद तस्वीर पेश की गई तो वहीं दूसरी तरफ इसी कुंभ मेले में पांच सफाई कर्मियों ने ठंड से दम तोड़ दिया था, क्योंकि इन सफाई कर्मियों के रहने के लिए की जाने वाली व्यवस्था उतनी बेहतर नहीं होती जितनी होनी चाहिए। मेला भी हुआ, पैर भी धोए गए, सम्मानित भी किए गए और प्रधानमंत्री द्वारा इन्हें ढेरों आश्वासन भी मिले तो क्या इस माघ मेले में तस्वीर कुछ अलग थी,  यह जानने के लिए मेले में इन सफाई कर्मियों के बीच जाना जरूरी था। अब लौटकर आते हैं इस माघ मेले की ओर, और ले चलती हूं आप को सफाई कर्मियों की उस कालोनी की ओर जो उनके लिए मेला होने तक बसाई जाती है। रोजगार पाने की लालसा में मेले में अपने परिवार के साथ आने वाले सफाई कर्मी आख़िर इस हाड़ मांस गला देने वाली ठंड में किस हालात में रहते हैं, इसे जानने के लिए वहां जाना जरूरी था जहां इनके लिए व्यवस्था की जाती है। 

पानी और कीचड़ भरी ज़मीन के किनारे रहने को मजबूर 

एक तरफ मेले की चकाचौंध तो दूसरी तरफ अंधेरे में सिमटी छोटे-छोटे झोलदारी टेंटो की वह लाईन जहां सफाईकर्मी अपने परिवार के साथ आकर ठहरे हैं। पानी और कीचड़ भरी जमीन के एक किनारे  खिलौनेनुमा टेंटो के घर। घर तो बस कहने भर को, इन बेहद छोटे छोटे टेंटो में कोई इंसान कैसे रह सकता है वो भी परिवार के साथ कल्पना से भी परे है तो स्वाभाविक है खुले आसमान के नीचे दिन बीताने के अलावा और कोई चारा भी नहीं। इस भीषण ठंड में भी बच्चे टेंटो से बाहर हैं। महिलाएं अपने छोटे छोटे बच्चों को गोदी में समेटे ठंड से बचाने की कोशिश कर रही हैं तो अंदर इतनी भी जगह नहीं कि वे लोग अपना सामान तक टेंटो के अंदर रख सकें। अपने सामान और परिवार के साथ टेंट से बाहर बैठे बांदा से आए सफाईकर्मी रमेश ने बातचीत के दौरान बताया कि हम सफाईकर्मियों के लिए रहने की व्यवस्था बेहद खराब रहती है,  वे कहते हैं इतने छोटे-छोटे तम्बू रहते हैं कि उनके अंदर सामान रखें या परिवार, तो वहीं बांदा से ही आए सफाईकर्मी अशोक कहते हैं जितनी हम मेहनत करते हैं उतना हमारे लिए सोचा नहीं जाता, इस ठंड में यदि हम या हमारे परिवार का कोई सदस्य बीमार पड़ जाए तो इलाज भी अपने पैसों से करवाना पड़ता है। रमेश और अशोक की तरह अन्य सफाईकर्मियों की भी यही शिकायत थी कि प्रशासन द्वारा उन्हें बस बैठने भर के लिए एक छोटा सा तंबू दे दिया जा जाता है इसके बाद हमारी कोई सुनवाई नहीं ।

भुगतान भी समय पर नहीं होता

बातचीत के दौरान इन सफाईकर्मियों के बीच एक जिस बात को लेकर सबसे ज्यादा आक्रोश था वह यह कि कड़ी मेहनत करने के बावजूद उनके पैसों का भुगतान समय पर नहीं किया जाता इस बात का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि 2019 में  कुंभ मेले में किए काम का पैसा अभी तक इन सफाई कर्मियों के बैंक खाते तक नहीं पहुंचा है और जिनका पहुंचा भी है वो भी पूरा नहीं । मेले में काम करने आए सफाई कर्मी सरवन को बेहद गुस्से में देखा, कारण पूछने पर बताया कि जब हमारी मेहनत और काम में कोई कमी नहीं रहती तो हमको हमारा पैसा समय पर क्यों नहीं दिया जाता है। वे कहते हैं कुंभ मेले में तो प्रधानमंत्री जी ने खुद आकर हमारे लोगों के पैर धोए थे और सम्मानित भी किया था, बावजूद इसके हालात आज और भी बदत्तर है।  तो वहीं अशोक साफ-साफ कहते हैं कि पहले यह हालात नहीं थे।

समय पर पैसा मिल जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। जब उनसे पूछा कि "न तो आप लोगों को समय पर पैसा मिलता है, न ही रहने खाने और इलाज की उचित व्यवस्था रहती है और न ही आप लोगों की कोई सुनवाई है तो आप लोग इतनी दूर-दूर से आते क्यों है" इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं , पेट की भूख और परिवार को घूमाने की लालसा उन्हें यहां तक ले आती है। सरवन कहते हैं हमारे जीवन में पैसों और मौकों का इतना अभाव रहता है कि हम सोचते हैं ऐसे आयोजनों में काम भी मिल जाएगा और परिवार को घुमाने का शौक़ भी पूरा हो जाएगा ताकि हमारे घर के बच्चे भी  बाहर की दुनिया देख सकें। तो वहीं इलाहाबाद के संजय कालोनी में रहने वाले सफाई कर्मी अशोक कुमार कहते हैं कि इन्हीं सब बदत्तर हालातों के चलते वे अब ऐसे आयोजनों में काम करना पसंद नहीं करते । वे सफाई-मजदूर एकता मंच के भी सदस्य हैं और इन सफाई कर्मियों के बीच आकर समय-समय पर इन्हें जागरूक करने का काम भी करते हैं। 

शीतल देवी.......याद है न आपको

अब बारी थी उन सफाई कर्मियों में से किसी एक से भी मिलने की जिनके पैर कुंभ मेले में प्रधानमंत्री ने धोए थे और जिन्हें पुरस्कृत किया था, तो पता चला कि शीतल देवी उनमें से एक हैं। मालूम पड़ा कि शीतल देवी इलाहाबाद के संजय कलोनी में रहती हैं। उनके घर जाने पर उनसे मुलाक़ात हो गई। वे भी इन दिनों माघ मेले में ही ड्यूटी कर रही हैं। सैकड़ों सफाई कर्मियों के बीच जिन पांच लोगों को प्रधानमंत्री ने सम्मानित किया था, शीतल देवी उन्हीं में से एक हैं। पहले तो वे खुलकर बात करने से झिझक रही थीं, उनका भयग्रस्त होना स्वाभाविक था। जब पूरे देश में आपको चर्चा का विषय बना दिया जाए और देश के प्रधानमंत्री स्वयं आपको सम्मानित करें तो किसी के लिए भी सिस्टम के ख़िलाफ़ बोलना महंगा पड़ सकता है, लेकिन परिवार वालों के समझाने के बाद शीतल देवी बोलने को तैयार हो गईं। 

वे कहती हैं हमको केवल इस नज़रिए से देखा जाता है कि हमको प्रधानमंत्री के हाथों पुरस्कार मिला, लेकिन हालात से लड़ाई तो हम आज भी लड़ रहे हैं। हमारे लिए तो कुछ भी नहीं बदला। उनके मुताबिक जब उन्हें सम्मानित किया जाना था तो पहले ही कह दिया गया था कि कोई भी प्रधानमंत्री जी से बात नहीं करेगा। अपना पुरस्कार लेकर चले जाना है, लेकिन उन्होंने बात करने की हिम्मत की और अपने हालात को बयां करते हुए एक स्थाई नौकरी की बात कही। तब प्रधानमंत्री ने उनकी सुनी भी और उनके हालात सुधारने का आश्वासन भी दिया था। वे कहती हैं प्रधानमंत्री जी के आश्वासन के बाद उनका परिवार और वे बेहद खुश थे लेकिन हुआ तो कुछ भी नहीं आज भी वे एक अस्थाई नौकरी पर ही गुजर-बसर कर रहे हैं। नौकरी अस्थाई होने के कारण कब निकाल दिया जाए इसका डर हमेशा रहता है। शीतल देवी के मुताबिक मेले में हम सफाई कर्मियों को अपने रहने का इंतजाम खुद करना पड़ता है। प्रशासन द्वारा केवल एक छोटा सा तंबू दे दिया जाता है, इसके अलावा महिलाएं, बच्चें किन हालात में हैं कोई नहीं देखने-पूछने वाला। वे कहती हैं कई बार शराबी और गुंडे तत्व भी वहां घुस आते हैं तो महिलाओं के लिए हमेशा खतरा बना रहता है फिर भी कोई सुनने वाला नहीं। 

क्या कहता है सफाई मजदूर एकता मंच

इलाहाबाद सफाई मजदूर एकता मंच के अध्यक्ष राम सिया जी कहते हैं “ऐसे बड़े-बड़े आयोजनों में सफाई कर्मचारियों का उत्पीड़न भी खूब होता है। नाले किनारे उन्हें जगह दे दी जाती है, न ठंड से बचाने का कोई उपाय किया जाता है न महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के बारे में सोचा जाता है। यहां तक कि उनका मेहनताना भी उन्हें समय से नहीं मिल पाता है।”  वे बताते हैं कि पिछले कुंभ मेले में पांच सफाई कर्मियों की मौत  ठंड से हो गई थी जिनके मुआवजे के लिए मंच ने खूब लड़ाई लड़ी लेकिन आज तक उन्हें मुआवजा तक नहीं मिल पाया। राम सिया जी कहते हैं “केवल सफाई कर्मियों के पैर धोने से हालात नहीं सुधरेंगे, जिस कुंभ मेले में आकर प्रधानमंत्री जी ने सफाईकर्मियों के पैर धोकर देशभर में वाह-वाही लूटी थी, उसी कुंभ मेले में एक साधू द्वारा मध्यप्रदेश के छतरपुर से आए सफाईकर्मी आशादीन का हाथ तोड़ दिया गया था और वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि आशादीन द्वारा साधू की बाल्टी छू ली गई थी।” राम सिया जी कहते हैं ऐसा उत्पीड़न भी इन सफाई कर्मियों के साथ इन मेलों में होता है जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं, लेकिन फिर भी पेट की भूख उन्हें ऐसे आयोजनों तक खींच लाती है। जबकि अभी कुंभ मेले में ड्यूटी करने का पैसा अभी तक कई सफाई कर्मचारियों को नहीं मिल पाया है और इस मेले का भी पैसा कब मिले कुछ भी कहना संभव नहीं । 

मेलों की इस चकाचौंध के पीछे एक वर्ग की ऐसी अंतहीन वेदना भी छुपी है जिसका जिक्र किसी के लिए महत्व नहीं रखता एक तरफ बड़े-बड़े शामियाने, रौशनी और एक सुखद अहसास और दूसरी तरफ इस कड़कड़ाती ठंड में खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर वे लोग जिनकी पेट की आग उन्हें शायद ठंड का एहसास होने नहीं देती है। कुछ घूमने की लालसा और कुछ कमाने की चाह इनके शोषण की कहानी दबा कर रख देती है और बोले भी तो किससे, सुनने के लिए कान और देखने के लिए आंखे भी होनी चाहिए, जो इस सिस्टम ने बन्द कर दिए हैं।

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