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टिकटॉक पर प्रतिबंध और ट्रंप की जबरन उगाही की नीतियां

एक तरफ़ चीन के बाज़ार को खोलने की मांग की जाती है, दूसरी तरफ़ बाइटडांस पर टिकटॉक को बेचने या अपना काम बंद करने का दबाव बनाया जाता है, इस पूरी प्रक्रिया को चीन अफीम युद्ध की तरह ही देखते हैं। अगर टिकटॉक का अपने यूज़र्स का डाटा रखना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा है, तो फ़ेसबुक या गूगल का उनके यूज़र्स का डाटा इकट्ठा करना भी ऐसा ही ख़तरा पैदा करता है।
टिकटॉक पर प्रतिबंध और ट्रंप

ट्रंप प्रशासन ने बाइटडांस को टिकटॉक को बेचने या फिर अपनी दुकान बंद करने के लिए 90 दिन का वक़्त दिया है। बाइटडांस एक चीनी कंपनी है, जो टिकटॉक की मालिक है। टिकटॉक के अमेरिकी क्षेत्र व्यापार (जिसमें कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड भी शामिल हैं) को खरीदने के लिए माइक्रोसॉफ्ट, ओरेकल और ट्विटर जैसी कंपनियां बाइटडांस के साथ बातचीत कर रही हैं। जुलाई में बाइटडांस की कीमत 140 बिलियन डॉलर आंकी गई थी। इसमें से अमेरिका में कंपनी के व्यापार की हिस्सेदारी करीब़ 20 से 50 बिलियन डॉलर की मानी गई थी। चूंकि बाइटडांस को सिर्फ 90 दिन दिए गए हैं, इसलिए उसे अपनी संपत्ति को तेजी से बेचना होगा। ट्रंप की व्यापार और तकनीकी नीतियां किसी जिम्मेदार अंतरराष्ट्रीय साझेदार के बजाए, जबरदस्ती उगाही करने वाली राज्य नीतियों जैसी लगती हैं।

भारत ने जब टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाया था, तब भी बाइटडांस द्वारा भारत में अपनी संपत्तियों को बेचने के लिए रिलायंस के साथ बातचीत की बात सामने आ रही थी। भारत, टिकटॉक का सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय बाज़ार था, यहां उसके 20 करोड़ पंजीकृत उपोयगकर्ता थे।

भारत और अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों में राष्ट्रीय सुरक्षा को आधार बनाया गया। कहा गया कि एक चीनी सोशल मीडिया कंपनी, उपयोगकर्ताओं के डाटा को चीन की सरकार को उपलब्ध करवा सकती है। अमेरिकी सरकार द्वारा नागरिक डाटा पर राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल खड़ा करना बेहद विडंबनापूर्ण है, क्योंकि अमेरिका ने कभी दूसरे देशों की तरफ से उठाए गए इस तरह के सवालों को मान्यता नहीं दी। ना ही अमेरिका ने अपनी कंपनियों के पास इकट्ठा विदेशी नागरिकों के डाटा पर, गुप्तचर संस्थाओं की पहुंच को नियंत्रित करने वाली किसी अंतरराष्ट्रीय नीति पर सहमति जताई है। इन अमेरिकी कंपनियों में फ़ेसबुक और गूगल जैसी कंपनियां शामिल हैं। पिछले साल ही अमेरिका ने भारत को डाटा के स्थानीयकरण (डाटा लोकलाइज़ेशन) करने पर "US ट्रेड रेगुलेशन 301" के तहत धमकी दी थी।

अगर भारतीयों के निजी डाटा को गैर-भारतीय कंपनियों द्वारा इकट्ठा किया जाना खतरा माना जाता है, तो सिर्फ़ चीन की कंपनियों पर ही नियंत्रण क्यों, अमेरिका या दूसरे किसी देश की कंपनी के ऊपर लगाम क्यों नहीं लगाई गई? डाटा स्थानीयकरण के नियमों को कमजोर करने से सीधे तौर पर फ़ेसबुक और गूगल जैसी अमेरिका कंपनियों को फायदा होता दिख रहा है। जस्टिस श्रीकृष्णा कमेटी ने मजबूत डाटा स्थानीयकरण नियमों की पैरवी की थी। हमें सभी देशों और कंपनियों पर समान नियम लागू करना चाहिए। या मोदी सरकार को अमेरिकी या यूरोपीय एकाधिकार से कोई ख़तरा महसूस नहीं होता। आखिर यह एकाधिकार अमेरिका के रणनीतिक ब्लॉक वाले राष्ट्रों का हिस्सा हैं।

टिकटॉक केवल एकमात्र गैर अमेरिकी ऐप थी, जिसने दुनिया भर के सोशल मीडिया क्षेत्र में बड़ा बाज़ार बनाने में कामयाबी पाई। अपने होठ हिलाने वाले डांस वीडियो और मजेदार मीम्स के ज़रिए टिकटॉक ने दुनियाभर में तहलका मचा दिया था। यह दुनिया की सबसे ज़्यादा डाउनलोड की जाने वाली ऐप बन गई, जो फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम और यू ट्यूब से भी आगे थी। टिकटॉक के पास 800 मिलियन का एक्टिव यूजर्स बेस था, जबिक फ़ेसबुक के पास 2.7 बिलियन और यू ट्यूब के पास दो बिलियन का एक्टिव यूजर्स बेस है।

बाइटडांस के अलावा वीचैट को भी ट्रंप प्रशासन ने बंद करने का आदेश दिया है। वीचैट बड़े पैमाने पर चीनी छात्रों और अमेरिका में रह रहे प्रवासी चीनियों द्वारा अपने दोस्तों और संबंधियों से मेल-मिलाप करने में उपयोग होता था। इसकी मालिक कंपनी टेंसेंट, दुनिया की सबसे बड़ी तकनीकी कंपनियों में से एक है। टेंसेंट का बाज़ार पूंजीकरण 600 से 700 बिलियन डॉलर है। अपने सोशल मीडिया और संदेश पहुंचाने में उपयोग के अलावा, वीचैट को व्यवासायिक गतिविधियों के लिए भी उपयोग किया जाता था। यह अपने विकसित अनुवाद उपकरणों द्वारा चीन और अन्य जगह के व्यापारियों को आपस में बात करने में मदद करता था। भारत में वीचैट पर प्रतिबंध लगने का मतलब यह है कि हमारे यहां के व्यापारियों को अब चीन के व्यापारियों से बातचीत करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

जब तक अमेरिका सोशल मीडिया और टेलीकॉम में प्रभुत्वशाली था, तब तक तकनीक और बाज़ारू शक्ति पर अमेरिका का पर्याप्त नियंत्रण था। जैसे ही अमेरिका का तकनीक में पिछड़ना शुरू हुआ और वह टेलीकॉम में कीमतों के मोर्चे पर मात खाने लगा, तब राष्ट्रीय सुरक्षा और "पूर्वी एशिया के लोगों से डर" का शिगूफा बनाना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए किया गया, ताकि चीन की कंपनियों को ज़्यादातर बाज़ारों से बाहर रखा जा सके।

एक वीडियो प्लेटफॉर्म को अमेरिका द्वारा तकनीकी जंग का मैदान बनाना अजीबोगरीब लग सकता है। लेकिन जब हम इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से उपजने वाले आर्थिक आंकड़ों का परीक्षण करते हैं, तो हमें यह प्रासंगिक दिखाई पड़ता है। यह प्लेटफॉर्म अपने ऐप्स और उपकरणों का उपोयग मुफ़्त में देने की सुविधा देते हैं। सिर्फ चार सालों में ही बाइटडांस की कीमत 100-140 बिलियन डॉलर तक हो चुकी है, तो यह नई डिजिटल दुनिया में हमारे डाटा की कीमत के बारे में क्या बताता है? इस चीज को समझने के लिए वॉल्ट डिज़्नी कंपनी का उदाहरण लीजिए। 100 से ज़्यादा सालों में इस कंपनी का बाज़ार पूंजीकरण 180-190 बिलियन डॉलर है। जबकि अपने बनने के कुछ ही सालों में बाइटडांस इस आंकड़े को छूती हुई नज़र आ रही थी। वॉल्ट डिज़्नी मिकी माउस पर अधिकार के ज़रिए, "बौद्धिक संपदा एकाधिकारों" की पुरोधा कंपनी रही है।

वॉल्ट डिज़्नी का प्रभुत्व और उभार उत्पादों पर एकाधिकार के ज़रिए सुनिश्चित हुआ। पेटेंट, डिज़ाइन पर कॉपीराइट और दूसरे कानूनी ज़रियों से एकाधिकार बनाया जाता है। वहीं हमारे अपने दोस्तों के साथ सोशल मीडिया पर किए गए व्यवहार का आंकड़ा डिजिटल प्लेटफॉर्म इकट्ठा करते हैं। अब तक इस डाटा के ऊपर अमेरिका का वैश्विक एकाधिकार था। इसकी कंपनियों के केवल चीन का ही डाटा उपलब्ध नहीं था। चीन का बाज़ार एक तरफ बंद था, वहीं टेंसेंट, अलीबाबा और अब बाइटडांस जैसी कंपनियों ने वैश्विक टक्कर और पहुंच की ऐप्स बनाने की अपनी क्षमता दिखाई। कई लोग सोचते हैं कि चीन का अपने डिजिटल क्षेत्र को बंद रखना लोगों पर सेंसरशिप लगाने के लिए किया जाता है। दरअसल लोग यह नहीं समझते कि ऐसा कर चीन अपने डिजिटल बाज़ार को बाहरी कंपनियों से सुरक्षित रखता है और स्थानीय कंपनियों के लिए स्थान बनाता है।

चीन की ऐप्स ने अमेरिकी कंपनियों के वैश्विक प्रभुत्व को जो चुनौती दी है, उसी की वजह से टिकटॉक और वीचैट के ऊपर प्रतिबंध लगाया गया है। सोशल मीडिया क्षेत्र में किसी तरह की हलचल से सबसे ज़्यादा ख़तरा फ़ेसबुक को है, क्योंकि इसका 98,5 फ़ीसदी राजस्व विज्ञापन से आता है, दूसरे शब्दों में कहें तो यह राजस्व फ़ेसबुक अपने ग्राहकों को विज्ञापनदाताओं को बेचकर कमाती है। जैसा हाल में एकाधिकार पर कांग्रेस की एक सुनवाई (US हॉउस ज्यूडीशियरी कमेटी एंटी ट्रस्ट हियरिंग) से पता चलता है, प्रतिस्पर्धा खत्म करने के लिए फ़ेसबुक अपने संभावी प्रतिस्पर्धी को खरीद लेती है, या उसे दबाने के लिए दूसरे तरीके अपनाती है। ऐसे ही एक तरीके के तहत ट्रंप प्रशासन को टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाने के लिए उकसाया गया। टिकटॉक को फ़ेसबुक ने अपने लिए अहम खतरे के तौर पर पहचाना था।

चार दिन पहले 'वाल स्ट्रीट जर्नल' ने एक रिपोर्ट में विस्तार से बताया कि कैसे फ़ेसबुक ने बाइटडांस और दूसरी चीनी कंपनियों के खिलाफ कैंपेन चलाया। रिपोर्ट में फ़ेसबुक के सीईओ मार्क जुकरबर्ग की अहम सीनेटर्स और सदन में शामिल लोगों समेत ट्रंप के साथ बैठकों का जिक्र है। इसमें संदेश दिया गया कि चीन अब तेजी से आगे बढ़ रहा है। अमेरिका के लोगों और उनकी आज़ादी के बीच सिर्फ अमेरिकी तकनीकी कंपनियां ही खड़ी हैं। जर्नल के मुताबिक़, फ़ेसबुक ने 'अमेरिकन एज' नाम के एक समूह को पैसा भी दिया, "जो अमेरिकी आर्थिक शक्ति, राष्ट्रीय सुरक्षा और सांस्कृतिक प्रभाव में अमेरिकी तकनीकी कंपनियों के योगदान की प्रशंसा का विज्ञापन करवा रहा था।" फिलहाल पैसा खर्च करने और लॉबिंग के मामले में फ़़ेसबुक सारी अमेरिकी तकनीकी कंपनियों का नेतृत्व करती है। बाइटडांस और टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाने से सबसे ज़्यादा फायदा भी फ़ेसबुक को होगा।

अमेरिका और पश्चिमी देश, दुनिया को नियम आधारित व्यवस्था और कानून के शासन पर उपदेश देते रहते हैं। औपनिवेशिक ताकतों ने तब तक अंतरराष्ट्रीय संधियों और कानूनों को मान्यता दी, जब तक उन्हें इनसे मदद मिलती रही, जब इनसे उन्हें मदद मिलना बंद हो जाती, तो वे इन्हें फाड़कर फेंक देते। चीन के खिलाफ़ अफीम युद्ध, मुक्त व्यापार की आड़ में लड़ा गया था, मतलब चीन में अफीम बेचने की यूरोपियन कंपनियों की आजादी, जिन्हें उनके साम्राज्यवादी संरक्षकों का समर्थन हासिल था। जबकि उनके खुद के देशों में अफीम बेचना प्रतिबंधित था। यह अफीम भारत से आ रहा था, जो औद्योगिक घराने अफीम का व्यापार कर रहे थे, वे भी भारत की बड़ी पूंजी के अहम हिस्सेदार बन गए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, जो औद्योगिक घराने और बैंक इस अफीम व्यापार के दौर में पैदा हुए, वे वैश्विक वित्त के अग्रणी बन गए।

दुनिया अफीम युद्धों को भूल चुकी है, लेकिन चीन नहीं भूला है। एक तरफ उनके बाज़ार को खोलने की मांग की जाती है, दूसरी तरफ बाइटडांस पर टिकटॉक को बेचने या अपना काम बंद करने का दबाव बनाया जाता है, इस पूरी प्रक्रिया को चीन के लोग अफीम युद्धों की तरह ही देखते हैं। लेकिन यह चुनौती सिर्फ चीन के सामने नहीं है। भारत जैसे देशों को भी समझना होगा कि यह अमेरिका और चीन के बीच की ही लड़ाई नहीं है, जिसमें हमारा कुछ दांव नहीं लगा है। या हमारा दांव चीन के खिलाफ़ लगा है। हमारे सामने जो बड़ी चुनौती है, टिकटॉक तो उसका एक छोटा सा हिस्सा है। चीनी, अमेरिकी या भारतीय- किसी भी एकाधिकारवादी कंपनी को हमारे डाटा का मालिकाना अधिकार देना हमारे लोकतंत्र और डिजिटल अधिकारों के लिए चुनौती है। यह वह मुख्य सवाल है, जिसका हमें समाधान खोजना है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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