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इमरजेंसी से भी ज़्यादा ख़तरनाक हैं आज के हालात

पिछले नौ वर्षों से बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के नाम पर जिस बेशर्मी से अल्पसंख्यकों को डराया धमकाया जा रहा है और उनमें दहशत और ख़ौफ़ का माहौल पैदा कर दिया गया है वैसा तो इमरजेंसी में नहीं था।
Indira and Modi

25-26 जून 1975 को देश में आपातकाल या इमरजेंसी लगे आज 48 साल हो गए। लेकिन मेरे लिए वह दौर एक भयानक सपने की तरह कल की सी बात मालूम होती है। मेरी उम्र उस समय 11-12 साल की रही होगी। मेरे पिता सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े एक राजनीतिक व्यक्ति थे। 26 जून को जब वह घर छोड़ कर गए तो तीन माह तक यह पता नहीं चला की वह कहाँ हैं। बाद के 19 महीने उन्होंने बुलंदशहर, बरेली सेंट्रल जेल और नैनी सेंट्रल जेल (इलाहबाद) में मीसा बंदी के तौर पर गुज़ारे। इस बीच मेरे क़रीबी रिश्तेदारों ने भी हमसे मिलना जुलना बंद कर दिया क्यूंकि उन्हें डर था की कहीं उन्हें भी गिरफ़्तार न कर लिया जाये। दरअसल मेरे पिता का क़ुसूर सिर्फ इतना था कि 1971 के मध्यावधि लोकसभा चुनावों में उन्होंने रायबरेली से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और विपक्ष के साझा उम्मीदवार राजनारायण के लिए चुनाव प्रचार किया था।

इस चुनाव में राजनारायण, श्रीमती इंदिरा गांधी से बुरी तरह हार गए थे लेकिन उन्होंने इस चुनाव में सरकारी मशनरी का दुरुपयोग कर प्रधानमंत्री पर चुनाव जीतने का आरोप लगाया और इसके खिलाफ इलाहबाद हाईकोर्ट में इलेक्शन पिटीशन दायर कर दिया। इसी पिटीशन की सुनवाई करते हुए इलाहबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को अपनी अदालत में तलब किया और 12 जून 1975 को अपना फैसला सुनाते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी को चुनाव में अवैध तरीके अपनाने और सरकारी मशनरी का दुरुपयोग करने का दोषी ठहराते हुए उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया।

जस्टिस सिन्हा का यह फैसला श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा 25-26 जून 1975 को आपातकाल लगाए जाने का एक प्रमुख कारण बना।

इस फैसले पर लंदन के 'दा टाइम्स' अख़बार ने सुर्खी लगाई कि प्रधानमंत्री पर लगाए गए आरोप इतने हल्के थे कि ऐसे आरोप लगाकर किसी भी देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को उसके पद से हटाया जा सकता है। बावजूद इसके विपक्षी दलों ने श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया।

25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी दलों की ओर से एक बड़ी रैली आयोजित की गई थी जिसे सर्वोदय नेता जयप्रकाश नारायण ने संबोधित किया। इसी रैली में जेपी ने श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ आगामी 29 जून से देशव्यापी सत्याग्रह शुरू करने और सेना तथा अर्ध सैनिक बलों से सरकारी आदेश ना मानने की अपील कर दी। जेपी ने इंदिरा गांधी द्वारा पद छोड़ने से इनकार करने से उत्पन्न फासीवाद के खतरे के खिलाफ भी चेतावनी दी। उन्होंने कहा कि भारत न तो बांग्लादेश है और न ही पाकिस्तान, जहां इस तरह के घटनाक्रम को बर्दाश्त किया जाएगा। अपने 80 मिनट के लंबे भाषण में, जेपी ने "जानबूझकर" पुलिस, सशस्त्र बलों और सरकारी कर्मचारियों से सरकार के "अवैध और अनैतिक" आदेशों का पालन नहीं करने की अपील दोहराई। (इंडियन एक्सप्रेस 26 जून 1975).

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर अपने पद से इस्तीफ़ा देने का दबाव बढ़ गया था और वह काफी परेशान थीं। लेकिन उनके छोटे बेटे संजय गांधी और किचन कैबिनेट के अन्य लोग और उनके नज़दीकी नहीं चाहते थे कि श्रीमती इंदिरा गांधी अपने पद से इस्तीफ़ा दें और उनकी जगह कोई अन्य व्यक्ति प्रधानमंत्री बने। इस बीच जेपी के बयान ने इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगाने का हथियार दे दिया।

राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री की सलाह पर 26 जून 1975 को आपातकाल लगाए जाने की घोषणा कर दी। इस आदेश पर 25-26 जून की दरम्यिानी रात को साइन किए गए। इसलिए 25 जून आपातकाल की बरसी के तौर पर मनाया जाता है। अपने आदेश में उन्होंने लिखा : "संविधान के अनुच्छेद 352 के खंड (1), द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए, मैं, फखरुद्दीन अली अहमद, भारत का राष्ट्रपति, इस उद्घोषणा द्वारा घोषित करता हूं कि देश में एक गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है, जिससे आंतरिक गड़बड़ी होने और भारत की सुरक्षा को खतरा है।"

राष्ट्रपति द्वारा आपातकाल की घोषणा कर दिए जाने के फ़ौरन बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी के ज़रिये राष्ट्र को सम्बोधित किया और कहा कि--

"राष्ट्रपति ने आपातकाल की घोषणा कर दी है लेकिन इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। मुझे यकीन है कि आप सभी उस गहरी और व्यापक साजिश से अवगत हैं, जो तब से चल रही है जब से मैंने लोकतंत्र के नाम पर भारत के आम आदमी और महिलाओं के लाभ के कुछ प्रगतिशील उपाय शुरू किए हैं। इसने लोकतंत्र के कामकाज को ही नकारने की कोशिश की है। लोकतान्त्रिक और विधिवत ढंग से निर्वाचित सरकारों को काम नहीं करने दिया गया, और कुछ मामलों में तो निर्वाचित विधानसभाओं के सदस्यों पर बल का प्रयोग करते हुए उन्हें इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया ताकि विधान सभाओं को भंग करवाया जा सके।

विरोध प्रदर्शनों ने माहौल को हिंसक घटनाओं तक पहुंचा दिया है। मेरे कैबिनेट सहयोगी श्री एल.एन. मिश्रा की नृशंस हत्या से पूरा देश स्तब्ध है। हम भारत के मुख्य न्यायाधीश पर हुए कायरतापूर्ण हमले की भी गहरी निंदा करते हैं।

कुछ शक्तियां हमारे सशस्त्र बलों को विद्रोह और उकसाने की हद तक चली गई हैं। पुलिस से विद्रोह करने की अपीलें की गयी हैं। तथ्य यह है कि हमारे रक्षा बल और पुलिस अनुशासित और गहरे देशभक्त हैं और इसलिए उन्होंने इसमें भाग नहीं लिया। लेकिन इससे उकसावे की गंभीरता कम नहीं हो जाती। विघटन की ताकतें पूरे जोरों पर हैं और साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काया जा रहा है, जिससे हमारी एकता को खतरा पैदा हो रहा है।

मुझ पर तरह-तरह के झूठे आरोप लगाए गए हैं। भारतीय लोग मुझे बचपन से जानते हैं। मेरा सारा जीवन अपने लोगों की सेवा में ही रहा है। यह कोई व्यक्तिगत मामला नहीं है। मैं प्रधानमंत्री रहूं या न रहूं यह महत्वपूर्ण नहीं है। हालाँकि, प्रधानमंत्री की संस्था महत्वपूर्ण है, और इसे बदनाम करने का राजनीतिक प्रयास लोकतंत्र या राष्ट्र के हित में नहीं है।

हमने इन घटनाक्रमों को लंबे समय तक अत्यंत धैर्य के साथ देखा है। अब हम सामान्य कामकाज को बाधित करने की दृष्टि से पूरे देश में कानून और व्यवस्था को चुनौती देने वाले नए प्रपंचों को देख रहे हैं। ऐसे में सरकार नाम की कोई भी संस्था कैसे खड़ी रह सकती है और देश की स्थिरता को खतरे में डालने की अनुमति कैसे दे सकती है?

कुछ लोगों की हरकतें विशाल बहुमत के अधिकारों को खतरे में डाल रही हैं। कोई भी स्थिति जो देश के अंदर निर्णायक रूप से कार्य करने की राष्ट्रीय सरकार की क्षमता को कमजोर करती है, बाहर से खतरों को प्रोत्साहित करने के लिए बाध्य है। एकता और स्थिरता की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है। ऐसे में देश की एकता और अखंडता कड़ी कार्रवाई की मांग करती है।

आंतरिक स्थिरता के लिए खतरा उत्पादन और आर्थिक विकास की संभावनाओं को प्रभावित करता है। पिछले कुछ महीनों में हमने जो दृढ़ कार्रवाई की है, वह मूल्य वृद्धि को काफी हद तक नियंत्रित करने में सफल रही है। हम अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए और गरीबों तथा कमजोरों और निश्चित आय वाले लोगों सहित विभिन्न वर्गों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए और उपायों पर सक्रिय रूप से विचार कर रहे हैं। मैं जल्द ही इनकी घोषणा करुँगी।

मैं आपको आश्वस्त करना चाहती हूं कि नई आपातकालीन उद्घोषणा किसी भी तरह से कानून का पालन करने वाले नागरिकों के अधिकारों को प्रभावित नहीं करेगी। मुझे विश्वास है कि आंतरिक स्थितियों में तेजी से सुधार होगा ताकि इस उद्घोषणा को (इमरजेंसी को) जल्द से जल्द समाप्त कर सकें।

मैं भारत के सभी हिस्सों और सभी वर्गों के लोगों से सदभावना के संदेशों से अभिभूत हूं। मैं आने वाले दिनों में आपके निरंतर सहयोग और विश्वास की अपील करती हूं"।

- श्रीमती इंदिरा गांधी का राष्ट्र के नाम संबोधन

दिलचस्प बात ये है कि प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम दिए गए इस उदबोधन के बावजूद आम नागरिकों के अधिकार ख़त्म कर दिए गए। आपातकाल की ज़्यादतियों की जाँच के लिए बनाये गए न्यायमूर्ति एम बी शाह आयोग को दिए गए सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ देश भर में एक लाख से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं को आपातकाल के दौरान आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (MISA) और भारत रक्षा अधिनियम (DIR) के तहत अवैध रूप से गिरफ्तार या हिरासत में लिया गया था। इनमें बहत्तर वर्षीय जयप्रकाश नारायण सहित विरोधी दलों के लगभग सभी प्रमुख नेता शामिल थे जिनमें से पांच मोरारजी देसाई, चरण सिंह, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी और एच डी देवेगौडा बाद में प्रधानमंत्री बने।

शाह आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, 75818 लोग DIR के तहत गिरफ्तार किए गए जबकि 34988 लोगों को मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया। सबसे ज्यादा गिरफ्तारीयां यूपी में हुईं, जहां 24781 लोगों को डीआईआर के तहत और 6956 को मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया।

(शाह जांच आयोग - तीसरी और अंतिम रिपोर्ट। पृष्ठ संख्या 134)।

इमरजेंसी के दौरान तानाशाही अपने उरूज पर थी। संजय गांधी और उनके समर्थकों का बोलबाला था। नागरिक अधिकारों के ख़ात्मे के अलावा प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी गई। बिना सरकार की इजाज़त और उससे 'क्लीरेंस' मिले बिना कोई भी खबर छापना अपराध था। विधायिका और न्यायपालिका का गला घोंट दिया गया। पुलिस और प्रशासन पूरी तरह सरकार के क़ब्ज़े में था और सरकार की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता था। कई जगहों पर पुलिस फायरिंग के चलते लोगों की मौते भी हुईं। जिनमें दिल्ली के तुर्कमान गेट, उत्तर प्रदेश के कैराना और सुल्तानपुर की घटनायें उल्लेखनीय हैं। इसके अलावा उत्तर भारत में खासकर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली में बड़े पैमाने पर ज़ोर ज़बरदस्ती से लोगों की नसबंदी भी की गयी।

पर इस डर और खौफ के माहौल में कुछ अच्छी बातें भी हुईं। ट्रेनें समय पर चलने लगीं। सरकारी कर्मचारी वक़्त की पाबन्दी के साथ दफ्तर आने लगे। रिश्वत का बाज़ार बंद हो गया। स्कूल-कॉलेजेस में ठीक से पढाई होने लगी और हड़तालों पर पाबन्दी लग गई। इमरजेंसी के बारे में कहा जाता था 'ना कोई अपील, ना कोई वकील ना कोई दलील।'

लेकिन मौजूदा दौर की तुलना अगर उस समय से की जाये तो कहना पड़ेगा कि इमरजेंसी का दौर आज के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बेहतर था। हालांकि इमरजेंसी के अपराध अक्षम्य हैं और उन्हें किसी भी तरह माफ़ नहीं किया जा सकता साथ ही आज़ाद हिंदुस्तान के पचहत्तर सालों में 19 माह का आपातकाल का दौर एक बदनुमा दाग़ की तरह है।

पर उस समय अंध राष्ट्रवाद के नाम पर साम्प्रदायिकता का यह नंगा नाच नहीं था जो आज हमें देखना और झेलना पड़ रहा है। इमरजेंसी के दौरान गुजरात में 2002 में हुई स्टेट प्रायोजित जैसी साम्प्रदायिक हिंसा नहीं थी। उत्तर प्रदेश में बुलडोज़र और गोली के ज़रिये अपराध और अपराधियों का सफाया नहीं किया गया था। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, राजस्थान, हरियाणा और मध्य प्रदेश में जिस तरह सार्वजानिक रूप से 'लिंचिंग' की सैकड़ों घटनायें हुईं और गुजरात समेत कई राज्यों में दिन दहाड़े दलितों को कोड़े लगाए गए और उनकी खाल खींच ली गई उस तरह की घटनायें इमरजेंसी में नहीं हुईं।

पिछले नौ वर्षों से बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता के नाम पर जिस बेशर्मी से अल्पसंख्यकों को डराया धमकाया जा रहा है और उनमें दहशत और ख़ौफ़ का माहौल पैदा कर दिया गया है वैसा तो इमरजेंसी में नहीं था। तथाकथित 'धर्म संसदों' के ज़रिये खुलेआम मीडिया की मौजूदगी में अल्पसंख्यकों के सार्वजानिक बहिष्कार किये जाने, 'जेनोसाइड' यानी नरसंहार की धमकियां दी जा रहीं हैं। असामाजिक तत्व सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रदर्शन कर खुलेआम कह रहे हैं कि वे इस देश के संविधान को, संसद को, सुप्रीम कोर्ट को और क़ानून व्यवस्था को नहीं मानते। उनके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का मुक़दमा दायर होने के बावजूद कार्यवाही नहीं होती। 'हेट स्पीच' देने के मुक़दमें दर्ज नहीं किये जाते। अगर सुप्रीम कोर्ट या दूसरी अदालतों के आदेश पर दर्ज भी होते हैं तो गिरफ्तारियां नहीं होतीं। उलटे उन लोगों पर कार्यवाही होती है जो ऐसे असमाजिक तत्वों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं।

सीएए और एनआरसी क़ानूनों के ज़रिये अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों को अपने ही देश में पराया और दूसरे दर्जे का नागरिक बनने पर मजबूर किया जा रहा है। उनकी धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला किया जा रहा है। उनके खान-पान, पहनावे, भाषा और संस्कृति को निशाना बनाया जा रहा है।

जो लोग इमरजेंसी की निंदा करते हुए उस समय हुए नागरिक अधिकारों के हनन की बात कर रहे हैं उन्हें याद दिलाना होगा कि देश में आज जो कुछ हो रहा है उसे फ़ासीवाद के अलावा कुछ और नहीं कहा जा सकता। और इससे देश की एकता और अखंडता मज़बूत नहीं हो सकती बल्कि कमज़ोर ही हो रही है। अगर देश के सामाजिक ताने-बाने, आपसी सौहार्द और सदभाव को बचाना है तो उसी रास्ते पर चलना होगा जो महात्मा गांधी ने हमें राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान दिखाया था और जिनके नेतृत्व में जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और अन्य नेताओं ने आधुनिक भारत की नींव रखी थी। जिनकी सलाह पर डॉ. भीमराव अंबेडकर ने नए संविधान का निर्माण किया और जिसके आधार पर यह देश 65 वर्षों तक चला। इसमें जनता पार्टी (1977-1980) और 1999 से 2004 तक चली एनडीए की वाजपेयी सरकार भी शामिल है जिसमें भारतीय जनता पार्टी और उसकी पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ शामिल थी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में लिखते हैं और बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के साथ 14 साल काम किया है। ये लेखक के निजी विचार हैं।)

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