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नेट परीक्षा: सरकार ने दिसंबर-20 और जून-21 चक्र की परीक्षा कराई एक साथ, फ़ेलोशिप दीं सिर्फ़ एक के बराबर 

केंद्र सरकार द्वारा दोनों चक्रों के विलय के फैसले से उच्च शिक्षा का सपना देखने वाले हज़ारों छात्रों को धक्का लगा है।
UGC NET

केंद्र में सत्ताधीन भारतीय जनता पार्टी, छात्र समुदाय खासकर उच्च शिक्षा का सपना देख रहे छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही है। कोरोना महामारी की आड़ में दिन-प्रतिदिन छात्रों के प्रति उसकी उदासीनता बढ़ती ही जा रही है। खासकर उच्च शिक्षा को लेकर उसका रवैया बिलकुल ठीक प्रतीत नही हो रहा है। वह उच्च शिक्षा का निजीकरण करने की ओर अग्रसर है और उसमें बहुत हद्द तक कामयाब भी हो गई है। ऐसा आरोप है केंद्रीय विश्वविद्यालय में शोध कर रहे छात्र अजय कुमार मंडल का।

दरअसल फ़रवरी माह की 19 तारीख को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा यूजीसी राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) का परिणाम प्रकाशित किया गया। इस परिणाम में दो चक्रों को विलय (मर्ज्ड) कर उसका परिणाम एक साथ घोषित किया गया, लेकिन इस परीक्षा के आधार पर फ़ेलोशिप देने के लिए जितने छात्रों का चयन होता है उसकी संख्या एक ही चक्र के अनुपात के अनुसार आवंटित की गई। जबकि यूजीसी की अधिसूचना के अनुसार दोनों चक्रों की परीक्षा एक साथ ली गई तो चयन भी इसी अनुपात में यानी की दोगुने होने चाहिए थे। विलय होने के कारण छात्र काफ़ी हताश और निराश हो गए हैं।

केंद्र सरकार ने नेट की परीक्षा में खिलवाड़ करने के अलावा अनुसूचित जातीको मिलने वाली फ़ेलोशिप में भी कटौती कर दी है, और एमफिल प्रोग्राम बंदकरने के बाद भी पीएचडी की सीटों में बढ़ोतरी नहीं कर रही है जिसके कारण भी छात्र काफी परेशान हैं।

क्या है दोनों चक्रों (दिसंबर-2020 और जून-2021 साइकल्स) के विलय का पूरा मामला?

ज्ञात हो कि यूजीसी द्वारा नेट की परीक्षा का आयोजन साल में दो बार होता है, एक जून माह में और दूसरा दिसंबर माह में। पिछले कुछ चक्रों से कोरोना महामारी के कारण इस परीक्षा का आयोजन सुनियोजित समय पर नहीं हो पा रहा है। महामारी के कारण पिछले दो चक्रों यानी की दिसंबर-2020 और जून-2021 चक्रों का एक साथ विलय कर इसकी परीक्षा ली गई थी। इस परीक्षा में कुल 12,66,509 परीक्षार्थियों ने फॉर्म भरा था, जिसमें से 6,71,288 छात्रों ने परीक्षा में भाग लिया था। परीक्षा के परिणाम की बात करें तो 52,857 लोग सफल हुए जिनमें 43,730 छात्र केवल असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में सफल हुए और वहीं 9,127 छात्र असिस्टेंट प्रोफेसर और जूनियर रिसर्च फेलो(जेआरएफ) के रूप के सफल हुए। छात्रों का आरोप है की अगर यूजीसी ने दोनों चक्रों का विलय कर परीक्षा ली थी तो फ़ेलोशिप के लिए छात्रों का चयन भी दो गुना होना चाहिए था लेकिन चयन केवल एक चक्र के अनुपात में हीहुआ है, जो कि किसी भी सूरत में न्यायोचित नहीं है।

दोनों चक्रों के विलय होने के बाद क्यों होनी चाहिए थीं सीट दो गुनी ?

अगर पिछले कुछ समय के नेट के परिणाम के आंकड़ों पर नज़र डालें तो यह बात साफ तौर पर कोई भी कह सकता है कि सरकार ने दो चक्रों को एक साथ मिला कर छात्रों के साथ नाइंसाफी की है। जून 2018 चक्र में कुल 11,38,225 छात्रों ने फॉर्म भरा था और जिनमें से 8,59,498 छात्र परीक्षा में बैठे थे। इस चक्र में 55,872 छात्रों ने नेट और वहीँ 3,929 छात्रों ने जेआरएफ की परीक्षा उत्तीर्ण की। बाकी चक्रों के आंकड़े इस नीचे दिए हुए बॉक्स से समझे जा सकते हैं।

यह आंकड़ा देख कर साफ़ अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि किसी भी एक चक्र में नेट की परीक्षा के आवेदकों की संख्या तक़रीबन दस लाख के आसपास रहती है और इसी के अनुपात में यूजीसी फेलोशिप भी प्रदान करती है। इस आंकड़े से यह आंकलन आसानी से निकला जा सकता है कि अगर सरकार साल में दो बार परीक्षा लेती तो आवेदक तो उसी संख्या में ही होते लेकिन फ़ेलोशिप का फायदा ठीक दो गुना छात्रों को मिलता। इसलिए सीटों की संख्या विलय के बावजूद दो गुनी होनी चाहिए थी।

दोनों चक्रों के विलय (मर्ज्ड) कहने का क्या मतलब?

सवाल छात्रों का दरअसल यहाँ यह उठता है कि अगर दो चक्रों (साइकल्स) को विलय (मर्ज्ड) किया गया तो उसी अनुपात में परिणाम भी आने चाहिए थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। परिणाम एक ही चक्र के अनुपात में आये। यूजीसी के अनुसार परीक्षा के बैठने वाले कुल छात्रों के छह प्रतिशत छात्रों को इस परीक्षा में सफलता मिलती है। 

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के यूरोपीय अध्ययन केंद्र में शोध कर रहे छात्र राजेंद्र यादव कहते हैं कि अगर दो चक्रों का विलय हुआ था तो परिणाम भी तो दो गुना आने चाहिए थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ, परिणाम एक ही चक्र के अनुसार घोषित हुए तो फिर विलय कहने का क्या मतलब। उनका कहना है कि इसे एक चक्र का परिणाम ही कहा जाए और दोनों चक्रों का विलय होना न कहा जाए। 

केंद्र सरकार ने दोनों चक्रों का विलय कर बचाए तक़रीबन 22,500,000,000 भारतीय रुपये

अगर यह परीक्षा अपने निर्धारित समय सीमा पर होती तो ठीक दो गुने छात्र सफल होते और ठीक इसी अनुपात में छात्रों को जेआरएफ फ़ेलोशिप भी मिलती। यूजीसी अगर दो चक्रों का एक साथ विलय न करती तो तक़रीबन नौ हज़ार लोगों को जेआरएफ मिलता और वहीँ तक़रीबन 40000 से भी ज़्यादा लोगों को केवल नेट का प्रशस्ति पत्र भी मिलता।

आपको बता दें कि वर्तमान समय में जेआरएफ और एसआरएफ धारक छात्रों को 31-35 हज़ार रुपये प्रति माह डीए और अतिरिक्त भत्तों के अलावा राशि मिलती है। इन्हीं आंकड़ों के आधार पर देखा जाए तो एक जेआरएफ और एसआरएफ धारक को उसके पीएचडी करने के कार्यकाल में तक़रीबन 25 लाख रुपये फ़ेलोशिप के तौर पर मिल जाते हैं। और अब गुणा-भाग कर के देखें तो सरकार ने दोनों चक्रों का विलय कर तक़रीबन 22,500,000,000 भारतीय रुपये से भी अधिक की राशि बचा ली या यूँ कहें कि छात्रों के हक़ का निवाला उनके मुंह से छीन लिया।

दिसंबर-2021 चक्र के नेट की परीक्षा होनी अभी भी लंबित है और साथ ही जून-2022 चक्र की परीक्षा का समय भी बहुत दूर नहीं है। ऐसे में सरकार अगर इस बार भी पिछली बार जैसा फार्मूला लगा कर नेट की परीक्षा लेती है तो यह छात्रों के ऊपर एक और अत्याचार होगा। कोरोना महामारी के बाद पीएचडी परीक्षा में हो रही देरी और अनियमितता से उच्च शिक्षा का स्वप्न देखने वाले छात्रों के साथ अगर यह धोखा फिर से होता है तो हज़ारो छात्रों के सपने हमेशा के लिए अधर में रह जायेंगे। 

अगर अगले नेट की परीक्षा में भी फ़ेलोशिप प्रदान करने के लिए यही विधि अपनाई जाती है तो इसका खामियाज़ा एक बार फिर से छात्रों को भुगतना होगा और सरकार एक बार फिर से छात्रों के हक़ के 22,500,000,000 भारतीय रुपये छीन लेगी।

अनुसूचित जाती के छात्रों के साथ हो रहा अलग से भेदभाव 

गौर करने वाली बात यहाँ यह भी है की सरकार ने न केवल दो चक्रों का विलय कर हज़ारों छात्रों के साथ नाइंसाफी की बल्कि इसी परीक्षा में मूल्यांकन के आधार पर अनुसूचित जाति को मिलने वाली फेलोशिप में भी कटौती कर दी। दरअसल अनुसूचित जाति को जेआरएफ व एसआरएफ फ़ेलोशिप के अलावा केंद्र सरकार राष्ट्रीय फ़ेलोशिप भी देती है। जिसके अंतर्गत हर चक्र में 1500 छात्रों को फेलोशिप प्रदान की जाती है और अगर किसी चक्र में 1500 छात्र इस फ़ेलोशिप को नहीं ले पाते हैं तो बची हुई फ़ेलोशिप की सीट अगले चक्र में जुड़ जाती है। 

इस चक्र में एक तो हुआ यह कि दो चक्रों को मिलाकर कुल 3000 अनुसूचित जाति के छात्रों को फ़ेलोशिप मिलने के बजाय केवल 1500 छात्रों को ही प्रदान की गई। दूसरी बात यह कि जो पिछले चक्र की फ़ेलोशिप सीट इस चक्र में जुड़ जानी थी वह जुड़ी भी नहीं। 

दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्वी एशियाई अध्ययन केंद्र में शोध कर रहे छात्र अजय कुमार मंडल कहते हैं कि यूजीसी की 25 नवंबर 2021 की गाइडलाइन्स के मुताबिक जो "कैरी फॉरवर्ड" यानी कि पिछले चक्र की बची हुई सीटें अगले चक्र में जुड़ने का प्रावधान था उसे ख़त्म कर दिया। ऐसा कर केंद्र सरकार ने छात्रों के साथ नाइंसाफी की है। कैरी फॉरवर्ड न होने के कारण छात्र मानसिक तौर पर प्रताड़ित हो रहे हैं और इसे ख़त्म हो जाने की वजह से छात्रों को जो प्रोत्साहन मिलता था वह अब नहीं मिलेगा।

केंद्र सरकार अपनी पार्टी के सांसद द्वारा दिए गए सुझावों को भी कर रही नज़रअंदाज़

ज्ञात हो कि बीते वर्ष भारतीय जनता पार्टी के राज्यसभा सांसद व शिक्षा, महिला, बाल, युवा संबंधी स्थाई समिति के अध्यक्ष डा. विनय पी. सहस्रबुद्धे की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने संसद में अपनी रिपोर्ट में उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई सुझाव दिए थे। जिसमें एक सुझाव पीएचडी कर रहे छात्रों को मिलने वाली राशि को बढाकर 50 हज़ार प्रति माह करने की बात की गई थी जो अभी 31-35 हज़ार रुपये प्रति माह मिलती है। इसके अलावा भी इस संसदीय समिति ने उच्च शिक्षा को लेकर कई सिफारिशें की थीं लेकिन केंद्र सरकार के रवैये से ऐसा प्रतीत होता है की उसने खुद की पार्टी के सांसद के इन सुझावों को भी ठन्डे बस्ते में डाल दिया है।

एमफिल प्रोग्राम बंद लेकिन पीएचडी की सीटों में कोई इज़ाफ़ा नहीं ?

नई शिक्षा नीति लागू होने के बाद एमफिल प्रोग्राम को तमाम विश्वविद्यालययों से हटाना पड़ा। जिसके कारण भी छात्रों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। छात्रों का आरोप है कि सरकार ने अगर एमफिल प्रोग्राम ख़त्म किया था तो उसकी जगह पीएचडी की सीटों में वृद्धि करनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि पीएचडी की सीटों में ही कई जगह कमी की जा रही है। जिस कारण शोध करना अब सामान्य बात नहीं रह गई है।

जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में पीएचडी में प्रवेश की तैयारी कर रहे छात्र एहतेशाम खान कहते हैं कि हाल के वर्षो में पीएचडी की सीट घटा दी गई हैं। साथ ही जहां हमेशा से प्रतिवर्ष दो बार पीएचडी में प्रवेश लेने की प्रक्रिया थी अब उसके बजाये यह प्रक्रिया एक एक ही बार हो रही है। कईविश्वविद्यालय तो साल में एक बार भी प्रवेश नहीं ले रहे हैं। जैसे जामिया ने पिछले दो वर्षों में केवल एक बार ही पीएचडी में दाखिला लिया है।

पीएचडी की सीटों में कमी के कारण उच्च शिक्षा का सपना लिए छात्रों को पीएचडी में प्रवेश मिलना बहुत मुश्किल हो रहा है। पहले एमफिल प्रोग्राम था तो छात्र अपनी शोध की नींव वहीँ से डालनी शुरू कर देते थे और अब यह प्रोग्राम ख़त्म होने के कारण छात्रों को यह मौका भी नहीं मिल पा रहा है।

छात्रों को लेकर सत्ताधीन पार्टी से लेकर विपक्षी पार्टियां कोई गंभीर नही

कोरोना महामारी के कारण मानसिक, भावनात्मक और आर्थिक रुप से जो समुदाय सब से ज़्यादा प्रभावित हुआ है वह है छात्र, लेकिन सरकार इनकी अतिरिक्त सहायता करने के बजाये इन्हें हताश व निराश कर रही है।

सत्ताधीन पार्टी के अलावा विपक्षी पार्टियां भी छात्रों के मसले को लेकर गंभीर नहीं रही हैं। यूजीसी नेट की परीक्षा के परिणाम में छात्रों के ऊपर हुई इतनी नाइंसाफी का किसी भी विपक्षी पार्टी ने संज्ञान नहीं लिया और न ही इस मसले पर सरकार को कठघरे में खड़ा किया।

अगर हालात यही रहे तो उच्च शिक्षा के निजीकरण में ज़्यादा देर नहीं रह जाएगी। साथ ही गरीबों और निम्न वर्गों के छात्रों से शोध करना बहुत दूर की बात हो जाएगी।

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