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यूपी चुनाव 2022: शांति का प्रहरी बनता रहा है सहारनपुर

बीजेपी की असली परीक्षा दूसरे चरण में हैं, जहां सोमवार, 14 फरवरी को वोट पड़ेंगे। दूसरे चरण में वोटिंग सहारनपुर, बिजनौर, अमरोहा, संभल, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली, बदायूँ, शाहजहांपुर ज़िलों की विधानसभा सीटों पर है।
Saharanpur
फोटो साभार

बीजेपी की असली परीक्षा दूसरे चरण में हैं, जहां सोमवार, 14 फरवरी को वोट पड़ेंगे। दूसरे चरण में वोटिंग सहारनपुर, बिजनौर, अमरोहा, संभल, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली, बदायूँ, शाहजहांपुर ज़िलों की विधानसभा सीटों पर है। इसमें मुरादाबाद रूलर, मुरादाबाद नगर, कुन्दरकी, बिलारी, चंदौसी, असमोली, संभल, स्वार, चमरुआ, बिलासपुर, रामपुर, मिलक, धनेरा, नौगाव सादत, बेहट, नकुड, सहारनपुर नगर, सहारनपुर, देवबंद, रामपुर-मनिहारन, गंगोह, नजीबाबाद, नगीना, बरहापुर, धामपुर, नहटौर, बिजनौर, चांदपुर, नूरपुर, कांठ, ठाकुरद्वारा, अमरोहा, हसनपुर, गुन्नौर, बिसौली, सहसवान, बिलसी, बदायूं, शेखपुर, दातागंज, बहेड़ी, मीरगंज, भोजीपुरा, नवाबगंज, फरीदपुर, बिथारी, चैनपुर, आँवला, कतरा, जलालाबाद, तिलहर, पुवायाँ, शाहजहांपुर और ददरौल विधानसभा सीटों पर वोट डाले जाएंगे।

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अभी तक जो मीडिया मेरठ, मुज़फ़्फ़रनगर और बुलंदशहर को जाट लैंड बोल रहा था, वह क्या इसे मुस्लिम लैंड कहेगा? इनमें से कहीं पर भी मुस्लिम आबादी एक लाख से कम नहीं है और इनमें से अधिकांश सीटों पर मुसलमानों के बाद नंबर दो पर यादव वोट हैं। उत्तर प्रदेश में एंटी बीजेपी वोट की जो धुरी है, वे यही वोट हैं। सरकार समर्थक मीडिया में जो पहले चरण में जाट वोटों को इधर-उधर बता रहे थे, वे अब चुप साधे हैं। वे सहारनपुर से शाहजहाँपुर के रुझान पर कुछ नहीं बोल रहे। यह वह क्षेत्र है, जहां सहारनपुर शहर छोड़ कर सभी जगह सपा की राह आसान है। इसकी वजह भी है, अधिकांश इलाक़े शांत हैं और मुरादाबाद व बरेली को छोड़ कर बाक़ी ज़िलों में कभी कोई हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण नहीं रहा है। इसके अतिरिक्त यह इलाक़ा दस्तकारी में कुशल मुसलमानों का इलाक़ा है। दस्तकारी के बूते व्यापार फलता-फूलता है इसलिए भी लोग शांत रहते हैं।

कुछ बातें ध्यान रखनी चाहिए। मसलन, सहारनपुर उत्तर प्रदेश का पहला ज़िला है। अंग्रेजों ने इसे 1802 में ज़िला बनाया जब द्वितीय आँग्ल-मराठा युद्ध में मराठों की हार हुई और यह इलाक़ा अंग्रेजों के पास आया। यह उत्तर प्रदेश का पहला ज़िला है और यहाँ की सीट बेहट उत्तर प्रदेश विधान सभा में क्रमांक एक पर दर्ज है। इस पूरे ज़िले में मुस्लिम आबादी पूरे प्रदेश में सबसे अधिक है। मराठों के पहले इस क्षेत्र को अफ़ग़ान लड़ाके नजीबुद्दौला ने मुग़लों से जीता था और यहाँ पर बहुत भारी संख्या में अफ़ग़ान लाकर बसाये थे। ये अफ़ग़ानी मुसलमान कृषि में कुशल तो नहीं थे लेकिन दस्तकारी में बहुत निपुण थे। इसलिए यह वह इलाक़ा है, जहां लकड़ी की कारीगरी, बर्तनों पर कारीगरी आदि खूब होती है।

यूँ भी इस इलाक़े में आधा हिस्सा वह है, जो शिवालिक की पहाड़ियों व तराई के जंगलों से घिरा है। एक तरफ़ तो गंगा और यमुना का दोआबा है और दूसरी तरफ़ शिवालिक की पहाड़ियाँ। यही कारण है कि यहाँ पर वनोपज भी पर्याप्त है। इस वनोपज से मूँज बनती हैं, जो चारपायी बुनने से रस्सी बनाने के काम आती है। जंगल लकड़ी से खिड़की, दरवाज़े, कुर्सी-टेबल आदि बनती है और ये सब काम मुस्लिम कारीगर करते हैं।

सहारनपुर से लेकर मुरादाबाद, बरेली आदि में ज़्यादातर कारीगर हैं। साथ ही यहाँ जो हिंदू हैं, वे अधिकतर व्यापारी हैं या किसान। उनके सारे काम इन मुस्लिम कारीगरों से पड़ते हैं और इस वज़ह से परस्पर सौहार्द है। दलितों की आबादी भी यहाँ बहुत है और कारीगरी के चलते उनमें भी संपन्नता है।

लेकिन इस शांति को ध्वस्त करने के प्रयास कई बार हुए। इसी सहारनपुर में शांति को आँच आई थी, 2017 में योगी आदित्यनाथ सरकार बनने के बाद से। तब यहाँ के शब्बीरपुर गांव में जाटव और राजपूतों के बीच खूनी झगड़ा हुआ था। दलितों के घर फूंके गए थे और एक राजपूत युवक मारा भी गया था। लेकिन यहाँ के शांतप्रिय लोगों ने झगड़े को स्वयं शांत कर लिया था। यूँ भी अगर आप चीजों को बिगाड़ना चाहें तो आग लगाइए मगर यदि आप हालात सुधारना चाहें तो कुछ सकारात्मक काम करिए। राजनीतिक लाभ उठाने की मंशा वाले नेताओं ने सहारनपुर के हालात खूब बिगाड़े पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो चीजों को सुधारने के लिए गतिशील रहते हैं।

सहारनपुर के उसी शब्बीरपुर गांव से जहां से स्थितियां बिगड़ीं राजपूतों ने एक नजीर पेश की। दलित बेटियों का कन्यादान किया और भात लेकर उनके घर पहुंचे। मालूम हो कि पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भात लेकर जाने को भाई का पुनीत कर्त्तव्य समझा जाता है। भात यानी जिस मां की बेटी की शादी होती है उसका भाई शादी के एक रोज पहले बहन व बहनोई को कपड़े एवं जेवर लेकर जाता है। अगर भात न आए तो माना जाता है कि इस स्त्री के मायके वाले दुष्ट हैं। चाहे जितने हालात खराब हों पर भात जरूर जाएगा। यह भात अगर मायके वाले नहीं लाते तो मुंहबोले भाई भी ले आते हैं। पांच मई 2017 की घटना के बाद जो आग लगी थी उससे इस भात से कुछ ठंडक पहुंची। और तनाव आया-गया हो गया। ऐसा लगा था, मानों तपती धूप में अचानक आसमान में कोई बादलों का घेरा बना और मन-मिजाज व माहौल में ठंडक प्रदान कर गया।

दूसरी तरफ दलितों ने भी दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। सहारनपुर के तब सुप्रसिद्ध दलित नाट्यकर्मी दिनेश तेजान ने ठाकुरों और दलितों के बुजुर्गों को परस्पर मिलाने का प्रयास किया था ताकि ये दिलों की दूरियां खत्म हों और परस्पर एका आए। मगर दिक्कत यह होती है कि मीडिया में उन्हीं खबरों को ज्यादा हाईलाइट किया जाता है जिनमें अराजकता और हिंसा को बढ़ावा मिले। यह एक राजनीतिक षडयंत्र के तहत होता है जिसमें सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही शरीक होते हैं। क्योंकि इस तरह से जनता का ध्यान उन मुद्दों से हट जाता है जिनके चलते सरकारें स्वयं को असहज पाती हैं। मसलन महंगाई, भूख और जनता के आम जनजीवन से जुड़ी चीजें। शुक्र है कि लोगों ने इसे समझा और हालात कुछ काबू में आए। लेकिन इसमें न तो रोल मीडिया का था न सरकार का और न ही विपक्ष का बल्कि उस जनता का रोल था जो फालतू की बातों के लिए अपना सिर कलम करवाती रही है।

सहारनपुर में दलित आमतौर पर खेत बटाई पर लेकर जोतते-बोते हैं और ठाकुर ही जमींदार हैं। अगर बटाई के नियमों में बदलाव के लिए यह संघर्ष होता तो उसकी परिणिति शुभ होती मगर यहां पर तो सिवाय मूंछों के और कुछ नहीं था। न तो राणा प्रताप का कोई ऐसा इतिहास है कि उस इतिहास की रक्षा के लिए दलितों पर रौब गाँठा जाए। आखिर राणा प्रताप तो स्वयं ही आदिवासी समुदाय की मदद लेकर ही बादशाह अकबर की सेना से भिड़े थे और अकबर का सेनापति मानसिंह स्वयं राजपूत था एवं राणा प्रताप का सेनापति हकीम सूरी एक अफगान। तब यह लड़ाई न तो हिंदू मुसलमान की थी न दलित-राजपूत की। इसलिए सहारनपुर में पांच मई 2017 को जो कुछ हुआ वह सिर्फ उस माहौल का नतीजा था जो योगी की हिंदू वाहिनी बना रही थी।

इसी तथ्य को समझ कर सहारनपुर के उसी गांव शब्बीरपुर में ठाकुरों ने एक दलित बेटी का कन्यादान किया। मालूम हो कि शब्बीरपुर से ही हिंसा की शुरुआत हुई थी और वहां पर पांच मई 2017 को राजपूतों ने दलित बस्ती के कई घरों में आग लगा दी थी। इसी शब्बीरपुर में चाँद नाम के एक दलित की बेटी का ब्याह था। बारात आने को थी मगर पुलिस ने इतना सख्त पहरा दे रखा था कि न तो कोई वहां आ सकता था न नाच-गाना चल सकता था तब गांव के ही ठाकुरों ने मोर्चा लिया और इस बारात में न सिर्फ कन्यादान किया बल्कि डीजे लगाकर खूब नाच गाना किया। इससे दलितों में एक भरोसा जगा। दिनेश तेजान नाम के एक दलित नाट्यकर्मी ने राजपूतों और दलितों दोनों ही समुदायों के बुजुर्गों से अनुरोध किया था कि आप लोग अपने-अपने समाज के युवाओं को समझाएं। क्योंकि अगर आग में ऐसे ही घी पड़ता रहा तो जातीय नफरत का यह सिलसिला बदस्तूर चलता रहेगा और इस आग में कई घर तथा कई जानें खामखाँ में स्वाहा होंगी। लड़ाई “हैव्ज और हैव्ज नॉट” के बीच होती है मूँछों की लड़ाई तो सिर्फ कायर करते हैं। तेजान की यह पहल रंग लाई थी और दोनों ही समुदायों के बीच एक नई संधिरेखा बनी। दलितों के यहां हारी-बीमारी तथा खुशी और गमी के मौके पर राजपूत जाने लगे तथा राजपूतों के यहां दलित आने लगे हैं। इससे आसार बने कि समय रहते ही वह नासूर दूर कर लिया जाएगा जिसके चलते मई के पहले सप्ताह में सहारनपुर जैसा शांत जिला जलने लगा था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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