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बनारस में ये हैं इंसानियत की भाषा सिखाने वाले मज़हबी मरकज़

बनारस का संकटमोचन मंदिर ऐसा धार्मिक स्थल है जो गंगा-जमुनी तहज़ीब को जिंदा रखने के लिए हमेशा नई गाथा लिखता रहा है। सांप्रदायिक सौहार्द की अद्भुत मिसाल पेश करने वाले इस मंदिर में हर साल गीत-संगीत की सरिता बहती है। ऐसी सरिता जिसमें दुनिया भर के संगीत प्रेमी गोता लगाते हैं, जिसमें न कोई हिन्दू होता है और न कोई मुसलमान।
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बनारस के लाटभैरव मंदिर के बगल में मजार व मस्जिद दोनों

उत्तर प्रदेश के वाराणसी में भले ही ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा सुलग रहा है, लेकिन इस शहर में कई ऐसे धार्मिक स्थल हैं जहां कोई मजहबी चश्मा नहीं लगता। सिर्फ बनारस ही नहीं, चंदौली, जौनपुर के अलावा यूपी में कई ऐसी जगहें हैं जो भाईचारा, कौमी एकता, गंगा-जमुनी तहजीब और सौहार्द के प्रतीक हैं। एक ही परिसर में नमाज सजदा की जाती है तो आरती-भजन भी होता है। धार्मिक अनुष्ठान में हर संप्रदाय के लोग एक-दूसरे का सहयोग करते हैं और तीज-त्योहार साथ-साथ मनाते हैं।

आजादी के बाद 1992 तक ज्ञानवापी मस्जिद-मंदिर को लेकर कोई विवाद नहीं था। मस्जिद के बेसमेंट में चूड़ियां बिका करती थी और कोयला भी। न कोई रोक-टोक थी और न श्रृंगार गौरी के दर्शन-पूजन को लेकर कोई पाबंदी। अभी ज्यादा दिन नहीं गुजरे हैं जब मुस्लिम समुदाय के लोगों ने काशी विश्वनाथ मंदिर के लिए जमीन मुहैया कराई थी। आपसी समझौते के तहत मस्जिद को 1700 वर्ग फ़ीट की ज़मीन के बदले विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट ने एक हज़ार वर्ग फ़ीट ज़मीन दी थी। कोर्ट के बाहर हुए इस समझौते के बाद मंदिर से जुड़े लोग खुश नजर आए तो मुसलमानों ने भी इसे सांप्रदायिक सौहार्द के मिसाल के तौर पर पेश किया। दरअसल ज्ञानवापी मस्जिद के पास विश्वनाथ मंदिर से सटी तीन ज़मीनें हैं, उसी में से एक प्‍लॉट 1700 वर्ग फ़ीट का है। इस ज़मीन पर 1991 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद ज्ञानवापी मस्जिद और विश्वनाथ मंदिर की सुरक्षा के लिए कंट्रोल रूम स्थापित किया गया था। जमीन की दिक्कत हुई तो अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी आगे आई और अपनी जमीन देने पर राजी हो गई। तब न कोई बवाल हुआ और न कोई बितंडा खड़ा हुआ।

जौनपुर में मंदिर- मस्जिद एक साथ

सौहार्द का प्रतीक है यह मंदिर

बनारस का संकटमोचन मंदिर ऐसा धार्मिक स्थल है जो गंगा-जमुनी तहजीब को जिंदा रखने के लिए हमेशा नई गाथा लिखता रहा है। सांप्रदायिक सौहार्द की अद्भुत मिसाल पेश करने वाले इस मंदिर में हर साल गीत-संगीत की सरिता बहती है। ऐसी सरिता जिसमें दुनिया भर के संगीत प्रेमी गोता लगाते हैं, जिसमें न कोई हिन्दू होता है और न कोई मुसलमान। संगीत समारोह में जो कोई आता है उसका धर्म और ईमान सिर्फ संगीत होता है। यहां जो एक बार भी गा-बजा लेता है, वह जगत प्रसिद्ध हो जाता है। संकटमोचन संगीत समारोह आयोजक महंत विशंभरनाथ मिश्र कभी हिन्दू-मुस्लिम फनकारों में भेद नहीं करते। इसी साल शिराज अली खां, कोलकाता (सरोद वादक), बिलाल खां, कोलकाता (तबला वादक), उस्ताद साकिर खां, पुणे (सितार वादक), उस्ताद गुलाम अब्बास खां, मुंबई (गायन), सलीम अल्लाहवाले, भोपाल (तबला), उस्ताद शाहिद परवेज खां, पुणे (सितार), उस्ताद मशकूर अली खां, कोलकाता (गायन), उस्ताद मोइनुद्दीन खां व मोमिन खां, जयपुर (सारंगी युगलबंदी), उस्ताद अकरम खां, दिल्ली (तबला) ने अपने कंठ का जादू विखेरा था।

संकटमोचन मंदिर में वही पूजा स्थल है जिसे सात मार्च 2006 को बम धमाकों से दहलाने की कोशिश की गई थी। आतंकवादी घटना के बाद भाजपा से जुड़े संगठनों ने बितंडा खड़ा करना चाहा और मंदिर कैंपस में धरना देने के लिए सरकार व प्रशासन से अनुमति मांगी थी, लेकिन सांप्रदायिकता का जहर घोलने में वो नाकाम रहे।

बनारस में अभी भी दर्जन भर धार्मिक स्थल ऐसे हैं जहां गंगा-जमुनी तहजीब का दर्शन होता है। इसी में एक है लाट भैरव मंदिर और लाट भैरव मस्जिद। मंदिर के बगल में एक मजार भी है। यहां करीब 350 साल से हर शारदीय नवरात्र में मस्जिद के चबूतरे पर कौमी एकता का अद्भुत नजारा दिखता है। एक ओर झाल-मजीरे पर रामायण की चौपाइयां गाई जाती हैं तो दूसरी ओर चबूतरे के एक हिस्से में नमाज अदा की जाती है। मुस्लिम समुदाय के लोग हिन्दुओं को मस्जिद परिसर की ओर से भी प्रवेश देते हैं।

लाट मस्जिद के मुतवल्ली सरदार मकबूल हसन अंसारी कहते हैं,  "साल 1930 में एक एग्रीमेंट हुआ था कि लाट भैरव मंदिर में साल में सिर्फ पांच पूजा होगी, लेकिन आपसी सौहार्द ऐसा है कि इस मंदिर में हर रोज पूजा होती है।" लाटभैरव मंदिर की देखरेख करे वाले अजय  सिंह बताते हैं, "देश में धार्मिक जलजले बहुत उठे, मगर यहां सालों से कोई विवाद नहीं हुआ। सुरक्षा के लिहाज से मस्जिद के कोने पर पीएसी की गारद है। सीसी टीवी कैमरा भी लगा दिया गया है। यहां भादो पूर्णिमा के दिन बाबा लाट भैरव की बारात उठती है जो  मंदिर के पीछे एक कूप पर पहुंचती है। यहां बाबा के शादी की तैयारी चलती है और अचानक टूट जाती है। फिर शादी अगले साल के लिए टाल दी जाती है। यह सिलसिला अनवरत जारी है। "

अजय यह भी बताते हैं, "यहां तीन तरह की नवइयत है। प्लाट नंबर एक पर राजौरी बाबा की मजार है और यहां मुसलमानों से ज्यादा हिन्दुओं की भीड़ भी जुटती है। प्लाट नंबर-दो पर लाटभैरव की मूर्ति है। यहीं लाटभैरव कुंड भी है। लाखों रुपये खर्च होने के बावजूद इस कुंड की दशा काफी खराब है, जिस पर सरकार तनिक भी ध्यान नहीं दे रही है। लाट भैरव मंदिर में सुबह-शाम कुंड की आरती होती है। यहां रविवार और मंगलवार के अलावा हर महीने की अष्टमी के दिन बाबा का भव्य श्रृंगार और हवन होता है। मनदीप सोनकर, मुन्नालाल यादव, बच्चेलाल बिंद की देखरेख में पूजा-प्रार्थना चलती रहती है। लाट भैरव मंदिर के सामने ईद के दिन नमाज होती है।"

लाट भैरव मस्जिद पर न्यूजक्लिक से बातचीत में अब्दुल मजीद कहते हैं, "हम सभी एक दूसरे के जलसे में बैठते हैं। ईद-बकरीद और जुमा की नमाज होती है। हम चाहते हैं कि हमेशा यहां अमन बना रहे। यहां न कोई विवाद है और न ही मुकदमा। हिन्दुओं के बगैर हमारा काम नहीं चल सकता और न हमारे बगैर उनका। मस्जिद के बगल में मकदूम शाह की मजार पर हिन्दूधर्मावलंबी ज्यादा पहुंचते हैं। उर्स के दिन कोई भी यहां आकर गंगा-जमुनी तहजीब से रूबरू हो सकता है।" लाटभैरव मस्जिद में मिले अजय राय। वह राजगीर मिस्त्री का काम करते हैं। बोले, "हम तो मंदिर में भी जाते हें और मजार पर भी। रोजा रखते हैं और नमाज भी अदा करते हैं। सबका ईश्वर एक है और सभी का खून लाल है। हमें दर्द इस बात का है कि सरकार न महंगाई पर ध्यान दे रही और न बेरोजगारी पर। गरीब आदमी तो रोटी के लिए मोहताज है। जब पेट में भूख की आग लगती है तब न हिन्दू दिखता है और न ही मुसलमान।"

अजय राय नमाज भी पढ़ते हैं, पूजा भी करते हैं

हिन्दुओं के हाथ में मस्जिद की ख़िदमत

सांस्कृतिक नगरी काशी को गंगा जमुनी तहजीब का शहर यूं ही नहीं कहा गया है। इस शहर में अगर मुस्लिम महिलाएं रामलीला में राम की आरती उतारती हैं तो हिंदू भाई रमजान के रोजे रखकर प्रेम व सौहा‌र्द्र का पैगाम देते हैं। वाराणसी में गंगा किनारे चौखंभा में 800 साल पुरानी अनारवाली मस्जिद की रखवाली और खिदमत हिंदुओं के हाथ में है। बीते 60 साल से इस मस्जिद को महफूज रखने की जिम्मेदारी 75 साल के बेचन यादव और उनके परिवार के कंधों पर है। लोग इन्हें बेचन बाबा के नाम से बुलाते हैं। खुद का घर होने के बावजूद बेचन यादव ने मस्जिद के बाहर अपना घर बसा लिया है। माथे पर तिलक लगाए उनके बेटे आशीष यादव चाय की दुकान लगाते हैं, जहां दिन भर लोगों का जमावड़ा लगा रहता है, जहां यह फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान?

अनारकली मस्जिद में अगाध श्रद्धा रखने वाले बेचन बाबा बताते हैं, "हम हर साल पूरे रमजान रोजा रखते हैं और दोनों नवरात्रों पर व्रत भी। हमारे मंदिर में लक्ष्मी-गणेश की मूर्ति है। मंदिर-मस्जिद को लेकर हुए हमने तीन दंगे देखे हैं। इसके बावजूद हमारे इलाके में कभी हिंसा नहीं भड़की। दोनों धर्मों में भाईचारा सलामत रहा। पूरी गली हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल है।" अनारकली मस्जिद के पास सैयद ताराशाह, मीराशाह, अनार शहीद और चौखंभा बाबा की कब्रें हैं। साथ ही जिन्नातों का खेड़ा भी है, जिनके बीच पलती है गंगा-जमुनी तहजीब। बेचन बाबा पिछले साठ सालों से लोगों की खिदमत कर रहे हैं और उन्होंने कभी गंगा-जमुनी तहजीब पर आंच नहीं आने दी।"

बनारस के डीएवी कालेज के पीछे है जगद्गुरु नरहरियानंद का पातालपुरी मठ। इसी से सटा है मुस्लिम समुदाय का कब्रिस्तान। यहीं मुमताज हाफिज की फुटही मजार भी है। पातालपुरी मठ के महंत बालकदास बताते हैं, "मठ और कब्रिस्तान में जाने का रास्ता एक ही है। कब्रिस्तान परिसर में ही मंदिर है। इसी रास्ते से विश्व प्रसिद्ध भरत मिलाप के दौरान काशी नरेश की सवारी जाती है और राम रथ भी। दोनों समुदाय के लोग एक साथ राम रथ पर फूलों की बारिश करते हैं। कब्रिस्तान के पूरब में बघवाबीर का मंदिर है। मठ और कब्रिस्तान के दरवाजे आमाने-सामने हैं। कब्रिस्तान की देखरेख करते हैं नुरुद्दीन अंसारी। वह कहते हैं, "यहां अमन-चैन है। सालों पुरानी रवायत निभाते आ रहे हैं। हिन्दुओं से हमें कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। वो हमें खाना भी खिला देते हैं।"

बनारस में पातालपुरी मठ के बगल में कब्रिस्तान 

कब्रिस्तान के बीच मंदिर

द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है ओंकालेश्वर महादेव मंदिर। यह मंदिर कब्रिस्तान के बीचो-बीच में है। मंदिर के पास है फरदू शहीद की मजार। काशी खंड के अनुसार ओंकालेश्वर मंदिर में कपिलेश्वर और नादेश्वर महादेव का विग्रह है। इलाकाई पत्रकार दिलशाह अहमद कहते हैं, "ओंकालेश्वर मंदिर में वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को वार्षिक पूजा और श्रृंगार का आयोजन किया जाता है। इस मौके पर बड़ी संख्या में दोनों संप्रदायों के लोग जुटते हैं। जयघोष से समूचा ओंकालेश्वर मुहल्ला गूंज उठता है। करीब 21 साल पहले फरदू शहीद की मजार की चादर में अराजकतत्वों ने आग लगा दी थी, जिसके चलते पुलिस और इलाकाई नागरिकों के बीच झड़प हो गई थी। हिन्दू-मुसलमानों के बीच यहां कभी कोई सीधा विवाद नहीं हुआ। दोनों संप्रदायों के लोग मिल-जुलकर प्रार्थना-पूजा करते हैं।"

बनारस के महामृत्युंजय महादेव मंदिर मार्ग पर हरतीरथ में शिया समुदाय की फव्वारा मस्जिद है। यहां एक तरफ महामृत्युंजय मंदिर में घंटे-घड़ियाल बजते हैं तो मंदिर परिसर से सटी फव्वारा मस्जिद में अल्लाह की इबादत भी होती रहती है। यहां गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल यह है यहां मुसलमान भी होली-दिवाली मनाते हैं तो हिन्दू ईद-बकरीद। फव्वारा मस्जिद से सटा है कृतिवाशेश्वर महादेव का मंदिर। यहां दोनों समुदाय के लोग एक साथ ईश्वर की पूजा-प्रार्थना करते हैं। समीपवर्ती महामृत्युंजय मंदिर के महंत परिवार से जुड़े किशन दीक्षित कहते हैं, "यहां कभी कोई विवाद नहीं हुआ। गंगा-जमुनी तहजीब को जिंदा रखने के लिए दोनों समुदाय के लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते रहते हैं। ज्ञानवापी का मामला उछलने के बाद यहां पुलिस प्रशासन ने यहां एतिहात के तौर पर पुलिस फोर्स तैनात कर दी है।"

बनारस के सेंट मैरी कैथेड्रल की दीवारों पर गीता के श्लोक लिखे गए हैं, जो लोगों को प्रेम और भाईचारे का संदेश देते हैं। यह चर्च धार्मिक एकता और सौहार्द की मिसाल पेश करता है। सेंट मैरी कैथेड्रल अपने आप में बेहद खास है। इस चर्च की दीवारों पर पीतल के अक्षरों में न सिर्फ बाइबल, भगवद् गीता और बुद्ध के संदेश उकेरे गए हैं। यहां प्रार्थना सभाओं में भी इनकी गूंज साफ-साफ सुनाई देती है। इस चर्च में सभी धर्मो के लोग पहुंचते हैं। चर्च के मुख्य पादरी विजय शांतिराज हैं। वह कहते हैं, "सेंट मैरी कैथेड्रल में सिर्फ ईसाई ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मो के लोग भी आते हैं। वहीं यूपी के मऊ में फातिमा अस्पताल इलाके में स्थित एक चर्च ने बाइबल के संदेशों के साथ-साथ रामायण के दोहों और कुरान की आयतों को भी चर्च की दीवरों पर लिखवा रखा है। ये कदम धार्मिक एकता, सौहार्द और आपसी भाईचारा बनाए रखने के लिए अच्छा संदेश दे रहे हैं।"

बनारस में करीब दो सदी पहले लिखे गए इस शोर को पढ़िए, " ख़ुदा करे गुंडे पकड़े जाएं/लाल खां के खूटे में जकड़े जाएं।" यह शेर बनारस के एक ऐसे शख्स की शान में लिखा गया था जिनकी न्यायप्रियता की मिसाल उस काल में समूचा उत्तर भारत देता था। इस बहमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति का नाम था लाल खां जो कि तत्कालीन काशी नरेश के सेनापति थे, उन्होंने अपनी वीरता से काशी के विस्तार और विकास में बड़ा योगदान दिया। काशी नरेश ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए लाल खां की मृत्यु के बाद राजघाट किले के दक्षिण पूर्व कोण पर दफन कराया। बाद में उसी स्थान पर उनका भव्य मकबरा भी बनवाया। लाल खां, न सिर्फ एक प्रसिद्ध नायब थे, बल्कि एक न्यायप्रिय अफसर भी थे और उन्हें गुंडे बदमाशों से सख्त नफरत थी। उन्होंने उस दौर में नगर में अलग अलग स्थानों पर सार्वजनिक खूंटे गड़वाए थे जिसमें वे चोरों और बदमाशों को बंधवा दिया करते थे और उन्हें कुछ दिनों के लिए वहीं रहने देते थे। ऐसा करने पर सारा शहर उन्हें देखता था। वहां से गुजरने वाला हर आदमी उन बदमाशों का उपहास उड़ाया करता था। इस सजा की वजह से बदमाश अपनी पहचान जाहिर होने के कारण या तो अपराध छोड़ देते थे या फिर वे नगर छोड़ कर कहीं दूर चले जाते थे। इन खूंटों के खौफ के कारण नगर में अमन-चैन बना रहता था।

जिंदा हैं सद्भाव की रवायतें

बनारस में कई ऐसी रवायतें हैं जिसे सांप्रदायिक सद्भाव के मिसाल के तौर पर देखा जाता है। बनारस में गाजी मियां के शादी टूटने की रश्म आज भी हर साल निभाई जाती है, जिसमें मुस्लिम शामिल होते हैं तो बड़ी संख्या में हिन्दू भी। बड़े अरमान के साथ बेचारे सैय्यद सलार मसूद गाजी मियां हर साल दूल्हा बनते हैं। अचानक घराती-बाराती किसी बात को लेकर आपस में भिड़ जाते हैं और शादी टूट जाती है। और बाद में उनकी ख्वाहिशों पर पानी फिर जाता है। गाजी मियां कुंवारे ही रह जाते हैं। फिर शादी अगले साल तक के लिए टाल दी जाती है।

पीलीकोठी के अब्दुल कलाम कहते हैं, "गाजी मियां की शादी टूटने की परंपरा सैकड़ों साल पुरानी है। जैनपुरा (जैतपुरा) से उनकी बारात सलारपुर स्थित उनके आस्ताने पर पहुंचती है, जहां बड़े मेले का आयोजन होता है। गाजी मियां की दरगाह पर मुसलमान ही नहीं, हिन्दू भी हाजिरी लगाते है। हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदायों की मनौती पूरी होने लोग अपने बच्चों का मुंडन संस्कार कराते हैं और प्रसाद चढ़ाते हैं।"

बनारस में चेतगंज की नक्कटैया में निकाले जाने वाले लाग विमानों में तमाम पात्र मुस्लिम होते हैं। बनारस के नाटी इमली पर ऐतिहासिक भरत मिलाप की लीला देखने सिर्फ हिन्दू नहीं, हजारों मुसलमान भी जुटते हैं। राजघाट पर चंदन शहीद की मजार पर हर साल लगने वाले उर्स में गंगा-जमुनी तहजीब के दर्शन होते हैं।

बनारस में हिन्दुओं के साथ मुस्लिम समुदाय के लोगों ने सांप्रदायिक सद्भाव की गंगा बहाई है। इन्हीं में एक हैं अधिवक्ता नूल फातिमा, जिन्होंने हिन्दू भक्तों के लिए शिव मंदिर का निर्माण कराया है। फातिमा मंदिर में पूजा करने के अलावा नमाज भी बखूबी पढ़ती हैं। बनारस के कचहरी में फौजदारी की वकील नूर फातिमा बताती है, "जहां मैं रहती हूं वह कॉलोनी हिंदुओं की है। मैं सिर्फ यहां अकेली मुस्लिम महिला हूं। जब मेरे पति की डेथ हुई तब मेरे मन में मंदिर बनवाने का विचार आया। यदि हिंदू-मुसलमान मिलकर रहेंगे तो देश का विकास होगा।"

भाईचारे के शर्बत से बुझाई नफरत की गर्मी

तीज-त्योहारों के अवसर पर काशीवासी जाति-धर्म की भावना से परे उठ कर उत्सव के माहौल में डूब जाते हैं और सिर्फ इंसानियत को याद रखते हैं। कुछ ही दिन पहले बनारस लोगों ने ईद के मौके पर दुनिया को बड़ा संदेश दिया था। गंगा-जमुनी तहजीब का संदेश। सिगरा क्षेत्र में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ मार्ग स्थित बड़ी ईदगाह से नमाज पढ़कर निकले मुस्लिम बंधुओं को हिंदुओं ने भाईचारे का शर्बत पिलाकर नफरत की गर्मी बुझाई थी। ईदगाह के समीप स्टॉल लगाकर शर्बत पिलाने वाले भगत सिंह यूथ फ्रंट के अध्यक्ष हरीश मिश्रा कहते हैं, "बनारस गंगा-जमुनी तहजीब का शहर है। नमाजी भाइयों को हम शर्बत पिला कर उनकी दुआएं लेते हैं। हम अपने मुस्लिम भाइयों के साथ ईद मनाते हैं और वो हमारे साथ होली-महाशिवरात्रि मनाते हैं।"

वाराणसी के अनौला छोटा लालपुर के सलीम पूजा और इबादत दोनों करते हैं। एक बार उन्हें मौलाना ने भड़काने की कोशिश की तो वह गुस्से से लाल हो गए। मामूली सा सैलून के संचालक सलीम कहते हैं, "हमारी जितनी आस्था मक्का-मदीना में है उतनी गणेश-लक्ष्मी में भी। मैं दोनों भगवान का सम्मान करता हूं और अल्लाह का भी। हमारे घर में ईद मनाई जाती है तो दिवाली-दशहरा और होली भी। दुर्गा पूजा के लिए भी हम चंदा देते हैं। दीपावली पर हर साल अपने सैलून के सामने मैं खुद हवन करता हूं। मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि सांप्रदायिकता का चश्मा लगाकर रखने वालों को जब कभी खून की जरूरत पड़ती है तब यह क्यों नहीं पूछते कि कौन सा खून मुसलमानों का है और कौन हिन्दूओं का? जो लोग ईश्वर और अल्लाह फर्क करते हैं वह नफरत के काबिल हैं।"

इस मेले में सिर्फ इंसान पहुंचते हैं

बनारस से सटे चंदौली जिले (पहले बनारस का हिस्सा था) में एक गांव है लालपुर, जहां कोई मजहबी चश्मा नहीं लगाता। शहाबगंज प्रखंड का यह गांव लेवा-इलिया मार्ग पर तियरा के नजदीक है। यहां एक विशाल शिव मंदिर और उसी से सटी शहीद बाबा की मजार। परशुरामपुर के पारस यादव मंदिर में पूजा-प्रार्थना में सहयोग करते हैं। घंटा बजाने अथवा अजान से यहां किसी को कोई दिक्कत नहीं होती है। पास की मस्जिद में नमाज भी होती है, लेकिन किसी को कोई एतराज नहीं होता। उतरौत निवासी सियाराम कहते हैं, "लालपुर के शिव मंदिर में जलाभिषेक करने वालों की मनौती तभी होती है जब शहीद बाबा की मजार पर मत्था टेकते हैं। दोनों पूजा स्थालों की देख-रेख हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के लोग मिलकर करते हैं।" शांति निकेतन तकियाशाह भोला स्कूल के प्रधानाध्यापक कामरान अहमद और तियरा में मेडिकल स्टोर चलाने वाले अब्दुल जाहिद बताते हैं, "हमने जब से होश संभाला है तब से दोनों धार्मिक स्थानों पर पूजा-प्रार्थना होते देख रहे हैं। यहां शिवरात्रि के दिन विशाल मेला लगता है। यह रवायत सालों पुरानी है। मंदिर और मजार की रंगाई-पोताई जिम्मेदारी  मुस्लिम और हिन्दू मिलकर उठाते हैं। मेले में मचवल, नौडिहा, लटाव के लोग तो आते हैं तो  उतरौत, भरुहिया, हरीपुर, भस्करपुर, अम्मर, डहिया के लोग भी बढ़-चढ़कर शामिल होते हैं। यहां कभी सांप्रदायिक विवाद नहीं हुआ। मंदिर में पूजा करने वाले मजार में भी दिया रखते और यदा-कदा चादर चढ़ाते हैं।"

लालपुर के निकटवर्ती गांव उतरौत गांव से सटा मजरा है तकिया शाह भोला। यहीं हजरत तकियाशाह भोला की मजार है, जहां हिन्दू हो या मुसलमान, हर किसी का सिर अकीदत से झुकता है। जियारत करने वालों में न कोई हिन्दू होता है और न मुसलमान। यहां सिर्फ इनसानों हाजिरी लगाती है। यह मजार मनौती का केंद्र ही नहीं, इंसानियत की भाषा सिखाने वाला मजहबी मरकज भी है। बाबा तकियाशाह भोला इस्लाम धर्म के ऐसे रहस्यवादी संत थे जिनकी साधना हर किसी को आश्चर्य में डालती रही हैं। इस छोटे से मजरे को चकिया प्रखंड से जोड़ने की बहुत कोशिश हुई, लेकिन कोई कामयाब नहीं हो सका। उतरौत निवासी विश्वेश्वर सिंह कहते हैं, "जिस नीम के पेड़ के नीचे तकियाशाह भोला की मजार है उसकी पत्तियां खाने से हर तरह की बीमारियां ठीक हो जाती हैं। एक वक्त वह भी था जब तकिया शाह से मिलने हजरत लतीफशाह भी यहां आया करते थे। यहां बाघ और गाय को एक ही बाड़े में बांधने की रवायत रही है, जिसके किस्से आज भी पुरनिया सुनाया करते हैं।"  

बनारस से सटे जौनपुर जिले में भी कई ऐसे स्थान हैं, जहां मंदिर-मस्जिद आसपास या आमने-सामने हैं। यहां अल्फास्टिंनगंज का मंदिर अनूठा है। सैकड़ों वर्ष पुराने इस धर्मस्थल को मंदिर का रूप दिया गया है, जिस पर संस्कृत में मंत्र लिखे गए हैं। बाहर से दिखने में यह सामान्य मंदिर की तरह नजर आता है, जबकि मंदिर के सामने एक मस्जिद भी है। मंदिर में ऊपर गणेश प्रतिमा स्थापित है तो नीचे पीर बाबा की मजार है। बीच में एक मेज रखी होती है जिस पर अगरबत्ती जलाई जाती है। मजार के बगल में चौरा माता का मंदिर है। मंदिर के सामने मोहम्मद शकील की दुकान है। वह कहते हैं, "मंदिर-मजार एक ही जगह होने के बावजूद   यहां कभी किसी तरह का विवाद नहीं हुआ। दोनों धर्मों के लोग यहां आते हैं और सद्भाव के साथ पूजा-प्रार्थना करते हैं। मंदिर के बाहर दुकान चलाने वाले अजय कुमार पाल कहते "यहां हिंदू-मुस्लिम दोनों लोग आते हैं। सभी लोग अपने-अपने तरीके से पूजा करते हैं। कहीं किसी पर कोई विवाद नहीं है। इस मंदिर में गणेश और चौरा माता की मूर्ति है। एक पुरानी मजार भी है यहां सब कुछ सामान्य है कहीं कोई विवाद नहीं होता है।"

बनारस के कबीर तो सदियों से हिन्दू और मुसलमानों के लिए प्रिय रहे हैं। विक्रम संवत 1575 में संत कबीरनगर जिले के मगहर में उनकी मृत्यु हुई थी, जहां उनकी दो-दो मजारें हैं, जिनमें एक हिन्दुओं की दूसरी मसलमानों की। फिर भी यहां कभी कोई विवाद नहीं हुआ। इसी तरह हरदोई जिले के गड्ढे अजीजपुर कस्बे में जिंद पीर बाबा की मजार और हनुमान मंदिर एक दूसरे के अलग-बगल हैं। यहां प्रार्थना और मन्नत एक साथ मांगने की रवायत है। कानपुर के झींझक में मंदिर और मजार पर दोनों धर्मों के लोग माथा टेकने जाते हैं। इटावा के लखना स्थित कालिका माता मंदिर में पुजारी ब्राह्मण नहीं बल्कि दलित होते हैंl इस अनूठे मंदिर परिसर में एक मजार भी है।

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