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ख़ान और ज़फ़र के रौशन चेहरे, कालिख़ तो ख़ुद पे पुती है

आज जब देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, तब मेरठ शहर में नगर निगम की ओर से स्वच्छता अभियान के तहत शहर की प्रमुख दीवारों, चौराहों पर पेंटिंग बनाई गई हैं। लेकिन कुछ तत्वों को यह भी बर्दाश्त नहीं हुआ।
freedom fighter

मेरठ को क्रांतिकारियों की धरती कहा जाता है। 10 मई 1857 वह ऐतिहासिक दिन था, जब देश को अंग्रेज़ों के चंगुल से आज़ाद कराने के लिये पहली चिंगारी मेरठ से भड़की थी, जो पूरे देश में फैल गई थी। क्रांतिकारियों ने मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को अपना नेता माना। बहादुर शाह ज़फ़र 1837 में बादशाह बनाए गए, यह वह दौर था जब देश के अधिकतर इलाक़ों पर अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था। जब 10 मई 1857 को क्रांति की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने बहादुर शाह ज़फ़र की अगुआई में इस लड़ाई को लड़ने का फैसला किया, हालांकि 82 बरस के बूढ़े बहादुर शाह ज़फ़र की अगुआई में यह लड़ाई ज्यादा दिन तक नहीं लड़ी जा सकी। अंग्रेज़ों ने बलपूर्वक इस क्रांति को असफल कर दिया। क्रांति असफल होने के बाद अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर फिर से अपना कब्ज़ा कर लिया, बहादुर शाह ज़फ़र के तीन बेटों को उन्हीं के आंखों के सामने गोली मारकर शहीद कर दिया, और बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया गया, जिसके बाद उन्हें रंगून निर्वासित कर दिया गया, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली। अब जब देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, तब मेरठ शहर में नगर निगम की ओर से स्वच्छता अभियान के तहत शहर की प्रमुख दीवारों, चौराहों पर पेंटिंग बनाई गई हैं।

इसी क्रम में चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी की दीवार पर भी पेंटिंग बनाई गई। जिसमें 1857 के संग्राम में सर्वोच्च बलिदान देने वाले महान क्रांतिकारियों की पेंटिंग बनाई गई हैं। 1857 की क्रांति के संग्राम ने अंग्रेज़ों की चूलें हिला दी थीं, इतिहास में 1857 का जनविद्रोह हिंदू मुस्लिम एकता का सबसे बड़ा प्रमाण है। लेकिन असामाजिक तत्वों को यही ‘एकता’ अखरती है। यही कारण है कि चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी की दीवार पर बनीं बहादुर शाह ज़फ़र और ख़ान बहादुर ख़ान की पेंटिंग पर असामाजिक तत्वों ने न सिर्फ कालिख पोती बल्कि उसी दीवार पर लिख दिया- “Not Freedom Fighter.” दो रोज़ तक इन दोनों महान क्रांतिकारियों की तस्वीर पर कालिख पुती रही, लेकिन प्रशासन का इस ओर ध्यान ही नहीं गया।

मेरठ के रंगकर्मी राशिद यूसुफ़ ने इसकी फोटो ट्वीटर पर पोस्ट की, जिसके बाद क्रांतिकारियों की पेटिंग पर कालिख पुती तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हई तब प्रशासन का इस ओर ध्यान गया। मेरठ पुलिस ने इस मामले में इस संवाददाता के ट्वीट पर टिप्पणी करते हुए जानकारी दी कि, “उक्त प्रकरण के सम्बन्ध में थाना मेडिकल पर अभियोग पंजीकृत कर आवश्यक वैधानिक कार्यवाही की जा रही है।”

क्या कहता है प्रशासन

मेडिकल थाना के थानाध्यक्ष संत शरण सिंह ने बताया कि इस मामले में बीट कांस्टेबल अशोक कुमार की ओर से अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया गया है। साथ ही तस्वीर पर जो कालिख पोती गई थी उसे भी हटा दिया गया है। वहीं मेरठ के सहायक नगर आयुक्त इन्द्रविजय इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण मानते हुए कहते हैं कि, “दोषियों के ख़िलाफ सख़्त कार्रावाई की जाएगी, साथ ही पेंटिंग को दुबारा बनाया जाएगा।” इन्द्रविजय कहते हैं कि, “मेरठ क्रांतिकारियों की धरा है, हमने शहर को स्वच्छता अभियान चलाया जिसके तहत क्रांतिकारियों की भी पेंटिंग बनाई, इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण है, भविष्य में इस तरह की घटना न हो इसके लिये भी जागरुकता अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है।”

यह देशद्रोह की पराकाष्ठा है!

इतिहासकार और मंगल पांडे सेना के संयोजक अमरेश मिश्रा कहते हैं कि, 1857 की जंगे-आज़ादी हिंदू-मुस्लिम जनता ने मिल कर लड़ी थी। यहां तक की सावरकर ने अपनी किताब मे बहादुर शाह ज़फर, मौलवी अहमदुल्लाह शाह, ख़ान बहादुर ख़ान की तारीफ की थी। मेरठ बहादुर शाह ज़फर और ख़ान बहादुर ख़ान की तस्वीर पर कालिख पोतकर Not Freedom Fighter लिखना देशद्रोह की पराकाष्ठा है। अमरेश कहते हैं कि “संघ/भाजपा ने जो मुस्लिम विरोधी राजनीति शुरू की, अब उसके भयंकर परिणाम सामने आ रहे हैं। अगर भारत में आज़ादी के आंदोलन में भी मुसलमानो के योगदान को नकारा जायेगा, तो ये सीधे-सीधे विदेशी ताकतें जैसे इंग्लैंड, जिसने भारत पर 200 साल हुकूमत की, और उसके साम्राज्यवादी उत्तराधिकारी अमेरिका की ही मदद मानी जाएगी।”

अमरेश कहते हैं कि “1857 जेहाद के साथ धर्मयुद्ध भी था। बहादुर शाह ज़फर और ख़ान बहादुर ख़ान पर कालिख पोतने का मतलब मुस्लिम और हिंदुओं, दोनो पर कालिख पोतना है। इसे कभी माफ नहीं किया जा सकता। अब बहुत हुआ। ये काम सिर्फ भाजपा-संघ का नहीं हो सकता। उनके अंदर कोई भारत विरोधी गुट ज़रूर शामिल हैं। ये लोग अगर युद्ध चाहते हैं, तो हम हिंदुस्तानी, हिंदू-मुस्लिम सभी, इस युद्ध के लिये तैयार है। देश को फिर से फिरंगी गुलाम नहीं बना पायेंगे।”

रुहेलखंड को आज़ाद कराने वाले ख़ान बहादुर ख़ान

10 मई 1857 को जब मेरठ से क्रांति का चिंगारी शोला बनी तो उससे रुहेलखंड मंडल भी अछूता नहीं रहा। रुहेलखंड के नवाब और क्रांतिकारी हाफिज रहमत ख़ान के पोते ख़ान बहादुर ख़ान भी इस जंग में कूद पड़े। ख़ान बहादुर ख़ान आखिरी रोहिला सरदार थे। वे अंग्रेजी कोर्ट में बतौर जज कार्यरत थे, अंग्रेज़ उन्हें अपना विश्वासपात्र समझते थे, इसी विश्वास का फायदा उठाकर उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जंग के लिए अपने मुंशी शोभाराम की मदद से पैदल सेना तैयार की और अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। 31 मई 1857 को नाना साहब पेशवा की योजना के अनुसार उन्होंने रुहेलखंड मंडल को अंग्रेज़ों से आज़ाद करा लिया गया। हालांकि यह आज़ादी ज्यादा दिन तक बरकरार नहीं रह सकी, राणा जंग बहादुर ने धोखे से ख़ान बहादुर ख़ान को अंग्रेज़ों के हवाले कर दिया उनपर मुक़दमा चलाया गया और उन्हें यातनाएं दी गयी। 24 मार्च 1860 को उन्हें पुरानी कोतवाली पर सरे आम फांसी दे दी गयी।

बेड़ियों समेत ही दफ़्न किये गए ख़ान बहादुर ख़ान

ख़ान बहादुर ख़ान को पुरानी कोतवाली में फांसी दी गई थी। जिसके बाद अंग्रेजों को डर था था कि लोग ख़ान बहादुर ख़ान की मज़ार बनाकर उसकी ज़ियारत करने आना शुरू कर देंगे। इसी डर की वजह से ख़ान बहादुर ख़ान को ज़िला जेल में ही बेड़ियों के साथ ही दफ़न कर दिया गया। फांसी से पहले उन्होंने ऊंची आवाज़ में कहा, “मैंने 100 से ज्यादा अंग्रेज कुत्तों को मारा। मैंने ऐसा करके नेक काम किया है। यह मेरी जीत है।” ख़ान बहादुर ख़ान ने अपने देश को आज़ाद को कराने के लिये अपने जीवन का सर्वोच्च बलिदान दिया। उन्हें क्या ख़बर थी कि 162 बरस बाद उनकी तस्वीर पर कालिख़ पोती जाएगी, और उनके बलिदान को नकारने का कृत्य किया जाएगा।

है कितना बदनसीब ज़फ़र...

1857 की क्रांति के ‘लीडर’ बहादुर शाह जफ़र को याद रखे जाने के इतिहास ने अनगिनत मौके दिए। बहादुर शाह ज़फ़र मुग़ल शासकों में ऐसे एक मात्र बादशाह हुए हैं जिनकी मज़ार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जाकर फूल चढ़ाए हैं। सितंबर 2017 में म्यांमार दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यांगून में आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र की मजार पर भी थे। हालांकि उनसे पहले मनमोहन सिंह ने भी 2012 में बहादुर शाह ज़फ़र की मज़ार पर माथा टेका था। 1857 की क्रांति के असफल होने के बाद अंग्रेज़ों ने बहादुर शाह ज़फ़र को क़ैद करके यांगून की एक जेल में डाल दिया था, उन्होंने इसी जेल में दम तोड़ा था। बहादुर शाह ज़फर एक कवि और सूफी दार्शनिक भी थे. उन्होंने उर्दू, पर्शियन और अरेबिक की शिक्षा ली थी। जेल में ही उन्होंने लिखा था-

कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए

दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

यह सिर्फ़ शायरी नहीं है, बल्कि अपनी माटी से दूर होने का वह दर्द है, जिसे बहादुर शाह ज़फर ने ज़ुबां दी है। उनके दिल में हर वक्त अपने वतन की माटी के लिए तड़प बनी रहती थी। अंग्रेजों ने उन्हें देश निकाला दिया तो वह दो गज जमीन की हसरत लिए दुनिया से कूच कर गए लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ अपनी जान बख्श देने के लिए कोई समझौता नहीं किया। उर्दू जानने वाले एक अंग्रेज़ पुलिस अफ़सर फिलिप ने गिरफ़्तार बादशाह-ए-हिन्द बहादुर शाह ज़फर पर तंज कसते हुए यह शेर कहा था-

'दमदमे में दम नहीं, अब ख़ैर मांगो जान की

ऐ ज़फ़र! ठंडी हुई शमशीर हिन्दुस्तान की'

बहादुर शाह ज़फ़र ने फ़ौरन जवाब दिया-

'ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की

तख़्त-ए-लन्दन तक चलेगी तेग़ हिन्दुस्तान की

बहादुर शाह ज़फ़र द्वारा 1858 में कहा गया यह शे'र 1940 में चरितार्थ भी हुआ, जब अमर शहीद उधम सिंह ने लन्दन जाकर भूतपूर्व अँगरेज़ गवर्नर ओ' ड्वायर को गोली मार दी। ओ' ड्वायर को मारकर उधम सिंह ने 1919 के जलियाँवाला नरसंहार का बदला लिया था।

अपनी सरज़मीं पर दफ़्न होने के लिये दो गज़ जमीं की चाहत लिये इस दुनिया से रुखसत हुए बहादुर शाह ज़फ़र को दुनिया से रुखसत हुए 160 बरस गुज़र गए हैं। लेकिन बहादुर शाह ज़फ़र की बहादुरी, उनकी शायरी आज भी लोगों के ज़हन में ज़िंदा है। लेकिन अंग्रेज़ों की “फूट डालो राज करो” की नीति से पैदा होने वाली खरपतवार इस देश की आज़ादी के लिये अपना सर्वोच्च बलिदान देने वाले हर उस ‘बहादुर’ का नाम मिटाना चाहती है जिसके नाम में ‘ज़फ़र’ है। शायद यही सोचकर चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी की दीवार पर बनीं इन महान क्रांतिकारियों की तस्वीर पर कालिख पोती गई है। इस देश की एकता के दुश्मनों के लिये बहादुर शाह ज़फ़र का यह शेर एक चुनौती है।

ये चमन यूँही रहेगा और हज़ारों बुलबुलें

अपनी अपनी बोलियाँ सब बोल कर उड़ जाएँगी

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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