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उत्तराखंड समान नागरिक संहिता चाहता है, इसका क्या मतलब है?

भाजपा के नेता समय-समय पर, मतदाताओं का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने के लिए, यूसीसी का मुद्दा उछालते रहते हैं। फिर, यह केवल एक संहिता का मामला नहीं है, जो मुसलमानों को फिक्रमंद करता है। यह हिंदुओं पर भी उतना ही चोट करेगा।
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उत्तराखंड में नवगठित भाजपा सरकार की घोषणाओं में से पहली घोषणा यही थी कि एक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का मसौदा तैयार किया जाएगा। राज्य के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा कि इस बारे में एक मसौदा बना कर केंद्र सरकार को भेजा जाएगा और वहां से मंजूरी मिलने पर इसे विधानसभा में पेश किया जाएगा।

यद्यपि यह अभी एक सैद्धांतिक विचार है, फिर भी यूसीसी के दायरे में विवाह, तलाक, गोद लेने, भरण-पोषण, विरासत और उत्तराधिकार के मसले सारे आ जाते हैं। जाहिरा तौर पर यह कानून बन जाने की स्थिति में मौजूदा में प्रचलित सभी पर्सनल कानूनों को खत्म कर देगा। हालांकि, भाजपा यह सब अपने उस बड़े-बड़े दावे के तहत कर रही है कि यूसीसी महिलाओं को सशक्त बनाएगा और मुस्लिम महिलाओं को जेंडर जस्टिस प्रदान करेगा। परंतु कई कानूनी, सामाजिक और राजनीतिक विशेषज्ञों को लगता है कि यूसीसी का विचार विभाजनकारी, कानूनी और संवैधानिक रूप से आधा-अधूरा है, और यह सत्तारूढ़ पार्टी का अपने राजनीतिक लाभ हासिल करने के हथकंडे के अलावा और कुछ नहीं है।

यहाँ यूसीसी के बारे में कुछ विशेषज्ञों के विचार पर गौर किया जा सकता है:

यूसीसी लाने की योजना के साथ एक समस्या यह है कि यह एक जटिल कार्यक्रम है। 1950 के दशक की शुरुआत में डॉक्टर भीम राव आम्बेडकर ने विवाह, तलाक और हिंदू कानूनों में उत्तराधिकार से संबंधित मामलों में सुधार करने की मांग की थी। परंतु रूढ़िवादी तत्वों ने तब हिंदू कोड बिल का इतनी मजबूती से विरोध किया कि उन्होंने इस्तीफा देने का ही फैसला कर लिया। इन रूढ़िवादी वर्गों ने विगत सदी के सातवें दशक से ही यूसीसी का खुल्मखुल्ला समर्थन किया है।

सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट की प्रमुख डॉ रंजना कुमारी कहती हैं, "1970 और 1980 के दशक की शुरुआत में, महिलाओं के समूहों ने शादी, तलाक, विरासत, बच्चों के अभिभावकत्व और उनके गोद लेने में भेदभावपूर्ण कानून को समाप्त करने के लिए यूसीसी लाने पर दबाव डाला था। जब 1975 में देश की महिलाओं की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार की गई थी, तब एक सर्वव्यापी यूसीसी लाने पर लगभग सर्वसम्मति बन गई थी।" रंजना कुमारी ने कहा, "यह सर्वसम्मति अब समाप्त हो गई है। न केवल राजनीतिक दल अलग-अलग दिशाओं में रस्साकशी कर रहे हैं, बल्कि महिला समूहों का भी मानना है कि भारतीय समाज की बहुजातीय प्रकृति को नष्ट करने के लिए कुछ नहीं करना चाहिए।"

यही कारण है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के पोलित ब्यूरो की सदस्य वृंदा करात जैसे प्रमुख नेता यूसीसी की बेलाग आलोचना करती हैं। वृंदा का मानना है कि व्यक्तिगत कानून सुधार भारत के किसी भी समुदाय पर नहीं थोपे जाने चाहिए, चाहे वे कानून राज्य स्तर पर हों या केंद्रीय स्तर पर। वे कहती हैं, "व्यक्तिगत कानूनों के सुधार के लिए एक मजबूत आवाज प्रत्येक समुदाय के भीतर से उठनी चाहिए।"

सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े भी मुख्यमंत्री पुष्कर धामी के प्रयास पर संदेह जताते हैं। उनका कहना है कि "वर्तमान में, यूसीसी केवल एक नारा है, एक हैशटैग है।" आखिरकार, किसी विधेयक या प्रस्ताव को तभी समझा जा सकता है, जब उसका मसौदा तैयार हो जाए और चर्चा के लिए उसे पब्लिक डोमेन में रखा जाए। हेगड़े कहते हैं,"हमारे पास पहले से ही नागरिक संहिताएं हैं, जो हिंदू विवाह, तलाक, भरण-पोषण आदि को कवर करती हैं, लेकिन ये केंद्रीय कानून हैं। राज्य केंद्रीय कानून को कैसे ओवरराइड कर सकते हैं?"

वर्तमान में, केंद्रीय कानून भारत में विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, विरासत और कराधान को विनियमित करते हैं। इसका मतलब है कि वे देश भर में लागू होते हैं और वे किसी खास राज्य तक ही सीमित नहीं हैं। ऐसे में अगर कोई राज्य ऐसा कोई कानून बनाता है, जो केंद्रीय कानून का खंडन करता है, तो टकराव उत्पन्न हो सकता है।

इसलिए, अगर उत्तराखंड एक यूसीसी कानून बनाता है, अगर यह केंद्रीय कानून या कानूनों का खंडन करता है, तो उसे राष्ट्रपति की मंजूरी लेनी होगी-जिसका मतलब है कि केंद्र की मंजूरी। संजय हेगड़े कहते हैं,“हमारे पास अलग राज्य राष्ट्रीयता नहीं है। क्या यह (उत्तराखंड में प्रस्तावित) कानून उत्तराखंड में रहने वाले लोगों पर लागू होगा, लेकिन राज्य के बाहर रहने वाले लोगों पर लागू नहीं होगा? मान लीजिए कि अगर कोई दंपति नैनीताल में शादी करता है और दिल्ली में रहता है तो उनसे किस कानून का पालन करने की अपेक्षा की जाएगी? बिना किसी सार्वजनिक मसौदे के यूसीसी केवल नारेबाजी है।"

कई लोगों को यह आशंका है कि भाजपा मुसलमानों को लक्षित कर यूसीसी पर जोर दे रही है, मुख्य रूप से इसलिए कि उस समुदाय में दो शादियों की इजाजत है। हालांकि, यह समस्या उससे भी अधिक जटिल है। यहां तक कि हिंदुओं के कई समुदायों और क्षेत्रों में भी कई तरह की सामाजिक परंपराएं और धार्मिक रीति-रिवाज प्रचलित हैं। इसलिए, जैसा कि कानूनविद् संजय हेगड़े बताते हैं, यूसीसी के लिए एक से अधिक पत्नियों वाला मुसलमान या एक आसान तलाक [ट्रिपल तलाक] वाला मुस्लिम कम से कम मुद्दा है, जबकि इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण जटिलताएं हैं।

“अगर हम नागरिक जीवन के सभी पहलुओं में एकरूपता चाहते हैं, तो हमें आयकर नियमों में संशोधन करना होगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि एक राज्य-आधारित यूसीसी, उदाहरण के लिए, आयकर अधिनियम में परिभाषित हिंदू अविभाजित परिवार [एचयूएफ] के साथ कैसे व्यवहार करता है," हेगड़े कहते हैं। एचयूएफ को आयकर अधिनियम 1961 के तहत कराधान की अलग और अलग इकाइयों के रूप में माना जाता है और जिन पर कर की कम दर लागू होती है। संजय हेगड़े कहते है, “भाजपा के समर्थन आधार में छोटे-छोटे व्यवसायी शामिल हैं, जिनके पास आयकर के प्रयोजनों के लिए एक से अधिक खाते हैं। इस तरह का एक नया कानून उन्हें प्रभावित करेगा।”  

अनुमान है कि यूसीसी हिंदू विवाह अधिनियम1955, हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम1956, विशेष विवाह अधिनियम1954,शरीयत अधिनियम1937, और कुछ अन्य केंद्रीय कानूनों को अपने में शामिल करने का प्रयास करेगा। इसलिए, ये सैद्धांतिक रूप से उत्तराखंड में काम करना बंद कर देंगे, और यह इसका कपटी हिस्सा है, इसे मौजूदा केंद्रीय कानूनों के साथ टकराव किए बिना नागरिक जीवन के इन सभी महत्त्वपूर्ण पहलुओं को विनियमित करने और न्याय की एक नई कानूनी प्रणाली खोजना होगा। यह काम जितना सरल लगता है, उससे कहीं अधिक जटिल है। इसके अलावा, यूसीसी महिलाओं का पक्ष नहीं लेगा और न ही उनकी स्थिति में सुधार करने में मदद करेगा, जैसा कि विशेषज्ञ कहते हैं। अधिवक्ता संजय हेगड़े याद दिलाते हैं,"यह केवल एक लिंग-विशेष के लिए कानून नहीं है। इसकी बजाय,एक समान नागरिक संहिता के नाम पर, व्यक्तिगत कानूनों को संवैधानिक बहुसंख्यकवाद के लिहाज से कमजोर बनाया जा रहा है।"

1955-56 में, हिंदू संहिता विधेयक को तीन प्रमुख अधिनियमों-हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम और हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम-में विभाजित किया गया था। यूसीसी पर मौजूदा सरकार के जोर देने का मूल तर्क यह है कि चूंकि ये कानून 1950 के दशक में हिंदुओं पर ही लगाए गए थे, इसलिए अब मुसलमानों पर भी एक समान संहिता लगाई जानी चाहिए। "1956 से पहले हिंदू भी एक से अधिक पत्नी रख सकते थे," हेगड़े कहते हैं।

एक गैर सरकारी संगठन भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन, जेंडर जस्टिस के लिए लड़ रहा है, पर यह सब पर्सनल लॉ में सुधार के लिए है किंतु उसका मानना है कि बदलाव सभी नागरिकों की मान्यताओं के अनुसार होने चाहिए, न कि केवल मुसलमानों को लक्षित कर ही किया जाना चाहिए। इसलिए भविष्य में लागू होने वाली किसी भी समान नागरिक संहिता को मुसलमानों के लिए शरीयत का पालन करना चाहिए। और, संगठन यह भी चाहता है कि यूसीसी को अन्य सभी सामाजिक समूहों की संवेदनशीलता और चिंताओं को भी ध्यान में रखना चाहिए।

एक बार फिर, यह याद रखना महत्त्वपूर्ण है कि भारत में मतभेद केवल धार्मिक क्षेत्र में ही नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय की वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता को राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत के तौर पर वर्णित किया गया है।"फिर भी यह सोचना एक भ्रम है कि हिंदुओं के पास एक समान कानून है। यह उत्तर भारत का मौजूदा कानून है, जिसे यूसीसी में संहिताबद्ध करना चाहिए,” वे कहती हैं। “यूसीसी के बारे में बात करना अन्य हिंदू समुदायों के खिलाफ उत्तर भारतीयों के डराने-धमकाने का हिस्सा है।" रेबेका कहती हैं। वे बताती हैं,"हिंदू विवाह अधिनियम1955 और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम1956, उत्तर भारत में प्रचलित प्रथाओं पर आधारित हैं, जिन्हें पूर्वी और दक्षिणी राज्यों पर प्रधानता दे दी गई।” दूसरे शब्दों में, धर्मों के भीतर कई सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाएं हैं,और कोई भी समुदाय किसी अन्य समूह के रिट के तहत शामिल नहीं होना चाहेगा।

उदाहरण के लिए, सप्तपदी की रस्म मुख्य रूप से उत्तर भारतीय शादियों में होती है, जो विवाह को पूर्ण बनाने वाला मानी जाती है, इसलिए वह अपरिहार्य होती है। इसमें वर-वधू एक पवित्र अग्नि की साक्षी में सात फेरे लेते हैं। हालांकि, दक्षिण भारत में, सुयामरियाधई और सेरथिरुथ: रस्म-रिवाज का पालन किया जाता है, वहां शादी तभी से वैध हो जाती है, जब कोई जोड़ा यह घोषणा कर दे कि वे शादी कर रहे हैं, या, माला या अंगूठी का आदान-प्रदान कर लें या जब दूल्हा अपनी दुल्हन के गले में थाली बांध देता है। इसी तरह, शिया और सुन्नी समुदायों के बीच अलग-अलग प्रथाओं और व्यापक क्षेत्रीय विविधताओं के साथ, मुस्लिम कानून में शादी एक अनुबंध है।

उत्तराखंड कांग्रेस नेता सुजाता पॉल का मानना है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की हिंदुत्व विचारधारा की दखल से ही राज्य में यूसीसी का भूत खड़ा किया गया है। इसको उठाने का समय संदेह जगाता है क्योंकि जम्मू-कश्मीर में चुनाव होने वाले हैं। वे कहती हैं,“भाजपा जम्मू-कश्मीर में अन्य राजनीतिक दलों के खिलाफ एक व्हिप के रूप में इसका उपयोग करने और जम्मू में हिंदू मतदाताओं को रिझाने के लिए यूसीसी के आसपास चर्चा का माहौल गर्म रखना चाहती है। इसलिए वह आरएसएस द्वारा निर्धारित एक मध्यमार्गी एजेंडे को उत्तराखंड में पुश कर रही है, जबकि इस प्रदेश का सांप्रदायिकता का कोई इतिहास नहीं रहा है।”

पॉल कहती हैं कि सवाल यह नहीं है कि क्या यूसीसी मुसलमानों को निशाना बनाएगा, बल्कि यह है कि इसके प्रावधान उत्तराखंड में जनजातीय आबादी के विरुद्ध इस्तेमाल किए जा सकते हैं जिनके समुदाय में विवाह, तलाक आदि में अद्वितीय सांस्कृतिक प्रथाएं हैं। “हमारे राज्य में कई महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं, जिनमें जिला सहकारी बैंकों, जिसमें राजनेताओं के रिश्तेदार भरे पड़े हैं, उनमें प्रमुख पदों पर एक बड़ा घोटाला हुआ है। इसकी जांच करने या उस पर कार्रवाई करने की बजाय, मुख्यमंत्री यूसीसी का भूत खड़ा कर रहे हैं।”

दरअसल, उत्तराखंड में यूसीसी की रूपरेखा पर गौर करने के लिए एक समिति का गठन होना बाकी है। यह तथ्य भी इसके विचार और समय को एक प्रचार स्टंट की तरह दिखाता है। केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजू ने माना कि यह विषय “संवेदनशीलता से जुड़ा” हुआ है और इसलिए इस पर “गहराई से अध्ययन-मनन” किए जाने की जरूरत है। यह कहते हुए उन्होंने पिछले साल संसद को बताया था कि भारत का विधि आयोग यूसीसी मुद्दे की जांच कर रहा है और केंद्र सरकार इसकी सिफारिशों का इंतजार कर रही है।

विधि आयोग ने 2018 में ही यूसीसी को अनावश्यक करार दिया था और सुझाव दिया कि भेदभाव और असमानताओं को दूर करने के लिए मौजूदा परिवार कानूनों में संशोधन किया जाए।

आयोग ने रेखांकित किया कि “जबकि भारतीय संस्कृति की विविधता का जश्न मनाया जा सकता है और मनाया जाना चाहिए, वहीं, विशिष्ट समूहों या कमजोर वर्गों को उससे वंचित नहीं किया जाना चाहिए। इस विवाद के समाधान का मतलब उन वैशिष्ट्यों का उन्मूलन नहीं है। इसलिए यह आयोग भेदभावपूर्ण कानूनों से निपटने पर बल देता है बजाए समान नागरिक संहिता लाने के, जो इस स्तर पर न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय।” इसी से यह समझा जा सकता है कि केंद्र सरकार अब तक एक राष्ट्रव्यापी यूसीसी को आगे बढ़ाने से टालमटोल क्यों कर रही है, भले ही उसने विधि आयोग से इस मुद्दे पर नए सिरे से विचार करने के लिए कह रखा है।

कई लोग गोवा को भारत के लिए यूसीसी का औचित्य साबित करने का हवाला देंगे। हालांकि, दिसंबर 1961 में पुर्तगाली औपनिवेशिक शासन के चार शताब्दियों बाद भारत संघ का हिस्सा बनने से पहले गोवा में एक समान नागरिक संहिता लागू थी। दिलचस्प बात यह है कि कुछ लोग कहते हैं कि यूसीसी भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची के अंतर्गत आता है। विवाह, गोद लेने, तलाक, संयुक्त परिवार आदि जैसे विषय समवर्ती सूची में हैं। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि राज्य इन समवर्ती सूची के मामले में यूसीसी की तरह नए कानून बना सकते हैं। यह केवल राज्यों को स्थानीय संदर्भों के अनुरूप विषयों पर राष्ट्रीय कानून में संशोधन करने की अनुमति देता है,बस। दूसरे शब्दों में, यूसीसी संसदीय कानून के दायरे में आता है, और केंद्र ने स्वयं यह स्पष्ट कर दिया है।

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

Uttarakhand Wants a Uniform Civil Code, Here’s What it Means

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