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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ईस्टर पर चर्च जाना एक दृष्टि विशेष के तहत था या कुछ और?

बड़ा सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री इस दृष्टि विशेष को अपने अंदर समाहित कर सकते हैं और बहुसंख्यकवाद से बच सकते हैं।
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नई दिल्ली में रविवार 9 अप्रैल, 2023 को सेक्रेड हार्ट कैथेड्रल कैथोलिक चर्च के दौरे के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। तस्वीर साभार: PTI

अक्सर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हिंदू हृदय सम्राट या हिंदू दिलों का राजा कहा जाता है। उन्होंने ईस्टर रविवार को दिल्ली में प्रमुख सेक्रेड हर्ट चर्च का दौरा कर सबको आश्चर्य मेँ डाल दिया। यह उतना ही अप्रत्याशित था जितना कि यह असामान्य और मार्मिक रूप से अगस्त 2002 मेँ मोदी की तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त जेम्स माइकल लिंगदोह और ईसाई धर्म पर की गई टिप्पणी। उस समय वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। मोदी ने 19 जुलाई 2002 को राज्य विधानसभा को समय से पहले भंग कर दिया था और भारत के चुनाव आयोग से 2 अक्टूबर तक नए सिरे से चुनाव कराने का अनुरोध किया था, भले ही भयानक सांप्रदायिक दंगों के बाद के प्रभाव ने लोगों को त्रस्त कर दिया था और लोगों में भय व्याप्त था।

मोदी को संभवतः यह विश्वास था कि यदि धार्मिक एकीकरण और ध्रुवीकरण की उन परिस्थितियों में चुनाव होते हैं तो वे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को चुनावी जीत की ओर ले जाएंगे।

मुख्य चुनाव आयुक्त लिंगदोह को कैसे निशाना बनाया गया

लिंगदोह ने अपनी आधिकारिक टीम के साथ गुजरात का दौरा किया और पाया कि कानून और व्यवस्था की स्थिति सामान्य नहीं बल्कि समस्याग्रस्त थी। आयोग ने घोषणा की, "...कानून और व्यवस्था की स्थिति सामान्य से कोसों दूर थी... और दंगा पीड़ित मतदान केंद्रों पर जाने से बेहद सावधान होंगे।" यहां तक कि मतदाता सूची तक नहीं बनाई गई थी। उन्होंने महसूस किया कि सांप्रदायिक आग के धब्बे- जिसमें हजारों, ज्यादातर मुसलमान मारे गए थे- अभी तक मिटे नहीं थे। चुनाव आयोग ने 16 अगस्त 2002 को कहा कि अक्टूबर तक चुनाव कराना असंभव होगा, तैयारियों के लिए और समय की आवश्यकता है। केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से संपर्क किया और उनसे अनुरोध किया कि वे संविधान के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत सर्वोच्च न्यायालय को एक संदर्भ दें। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के फैसले में दखल देने से इनकार कर दिया था।

अगस्त 2002 में, मोदी ने कहा, “कुछ पत्रकारों ने हाल ही में मुझसे पूछा कि क्या लिंगदोह इटली से आए हैं। मेरे पास उनकी जन्मपत्री या जन्म कुंडली नहीं है। मुझे राजीव गांधी (दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री) से पूछना होगा।” जब एक पत्रकार ने पूछा, "क्या वे (लिंगदोह और सोनिया गांधी) चर्च में मिलते हैं?" मोदी ने जवाब दिया, "शायद वे मिलते हों।"

पत्रकार लक्ष्मी अय्यर ने 9 सितंबर 2002 को इंडिया टुडे पत्रिका में लिखा कि कैसे लिंगदोह ने गुजरात में भाजपा सरकार को नाराज कर दिया था। उन्होंने बताया, "मोदी ने लिंगदोह पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की मदद करने के लिए गुजरात में चुनाव टालने का आरोप लगाया था।" प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, जिन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के संदर्भ में जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव करने के लिए मोदी की आलोचना की थी, ने लिंगदोह के साथ उनके सार्वजनिक वाकयुद्ध पर भी टिप्पणी की। वाजपेयी ने कहा, "निर्णय (चुनाव में विलंब के लिए) या चुनाव आयोग की टिप्पणियों पर मेरे मतभेद हो सकते हैं... मेरा विचार है कि ऐसे मामलों से निपटने के लिए संवैधानिक साधन हैं और किसी को भी अनुचित भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए या व्यक्त करने में अशोभनीय आक्षेप नहीं लगाना चाहिए...।"

उन दिनों केंद्र में मानव संसाधन विकास मंत्री भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने भी कहा, "कोई भी, यहां तक कि एक मुख्यमंत्री को भी, एक संवैधानिक सत्ता के खिलाफ इस तरह की टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।"

फिलहाल, नरेंद्र मोदी के ईस्टर पर चर्च के दौरे को लिंगदोह और इस तरह के अन्य कार्यों पर उनकी अपमानजनक टिप्पणियों के साथ तुलना की जाती है, तो धर्मनिष्ठ ईसाइयों के साथ एक पवित्र स्थान में उपस्थित होने के उनके इरादों के बारे में अनुमान लगाना आसान है।

चर्चों में तोड़फोड़ और ईसाइयों पर हमले

संघ परिवार के संगठनों का ईसाई समुदाय को निशाना बनाने और उन पर अनुचित आरोप लगाने का इतिहास रहा है। हाल के दशकों में कई बार, उनके प्रचार को अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के खिलाफ हिंसा भड़काने के रूप में देखा गया है। 2002 के गुजरात दंगों के दौरान लंबे समय तक चर्चों में तोड़फोड़ की गई थी और मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी इस तरह के हमले जारी रहे। ईसाइयों पर हमलों की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तीखी आलोचना की गई है।

जब मोदी 2014 में भारत के प्रधानमंत्री बने, तो उनकी सरकार ने घोषणा की कि क्रिसमस को सुशासन दिवस के रूप में मनाया जाएगा, क्योंकि 25 दिसंबर को अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म भी हुआ था। इसके अलावा, ईसाई 25 दिसंबर को क्रिसमस मनाते हैं, तब संस्थान बंद रहते हैं यानी भारत में एक राजपत्रित अवकाश होता है। इस फैसले की व्यापक आलोचना भी हुई थी। गणतंत्र दिवस के बाद पारंपरिक रूप से बीटिंग रिट्रीट समारोह को समाप्त करने के लिए बजाए जाने वाले ईसाई भजन 'एबाइड विद मी' को भी 2022 में हटा दिया गया था। जब महात्मा गांधी के इस पसंदीदा भजन को नहीं बजाने का फैसला किया गया तो ईसाइयों को काफी सदमा और दुख हुआ। अभी भी गुजरात में धार्मिक ध्रुवीकरण और ईसाइयों के साथ भेदभाव का चलन बेरोकटोक जारी है।

क्या प्रधानमंत्री बहुसंख्यकवाद का मुकाबला कर सकते हैं?

केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने मोदी के चर्च जाने पर टिप्पणी करते हुए कहा, "यह अच्छी बात है अगर यह संघ परिवार के पिछले कर्मों के प्रायश्चित के रूप में किया गया है।" अंगमाली में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने पूछा, “क्या बाघ उस स्वाद को जानने के बाद एक अलग रुख अपनाएगा? क्या यह किसी और रास्ते से जाएगा?”

“ईसाईयों का शिकार केरल के बाहर हो रहा है। तथ्य यह है कि आप (भाजपा) उस स्थिति को केरल में नहीं ला सकते क्योंकि संघ परिवार का यहां कोई विशेष अल्पसंख्यक स्नेह नहीं है। अगर आप सांप्रदायिक स्टैंड लेते हैं और यहां सांप्रदायिक संघर्ष पैदा करने की कोशिश करते हैं, तो सरकार कड़ा रुख अपनाएगी। इस स्थिति से कोई समझौता नहीं किया जाएगा।"

चर्च का दौरा करने के बाद, मोदी को इस दृष्टिकोण को अंदर की ओर मोड़ना चाहिए और भारत की संवैधानिक दृष्टि पर कहर ढाने वाले बहुसंख्यकवाद के खिलाफ एक साहसिक कदम उठाना चाहिए। महात्मा गांधी ने ईसाई धर्म सहित कई धर्मों से सत्याग्रह का विचार विकसित किया। उनके इस समधर्मी दृष्टिकोण ने भारत और दुनिया को बहुत प्रभावित किया। संप्रदायवाद और बहुसंख्यकवाद का मुकाबला करने के लिए भारत को ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है। हम उम्मीद करते हैं कि प्रधानमंत्री का चर्च जाना बहुसंख्यकवाद से बचने के लिए उनका मार्गदर्शन करेगा।

(लेखक भारत के राष्ट्रपति के.आर. नारायणन के ओएसडी थे। विचार व्यक्तिगत हैं।)

मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित लेख को पढने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

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