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बिजली संशोधन बिल 2022 अगर क़ानून में तबदील हो गया तो क्या होगा?

बिजली बिल 2022 का जिन मुख्य बिंदुओं पर विरोध है, उसे लेकर न्यूज़क्लिक ने ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स  फेडररेशन के सदस्य रह चुके के अशोक राव से बात की। यहाँ पर उसी इंटरव्यू का सारांश पेश है। 
Electricity Amendment Bill
Image courtesy : The Hindu

बिजली के बिना आप इस भागती हुई दुनिया की किसी भी अहम गतिविधि के बारे में नहीं सोच सकते।  गरीबों से लेकर अमीरों तक बिजली सब सबकी जरूरत है। मतलब यह कि अगर बिजली क्षेत्र के कामकाज को नियंत्रित करने वाले कानून में किसी भी तरह का बदलाव होगा तो इसका असर सब पर पड़ेगा।  इसलिए बिजली कानून में संसोधन के लिए सबसे जायज प्रक्रिया तो यही होगी कि बिजली क्षेत्र के सभी हितधारकों से बात की जाए। लेकिन सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। जो हुआ है वह यह है कि इस मानसून सत्र से पहले बिजली बिल पर विरोध की गूंज हर जगह सुनाई दे रही थी। शायद इस विरोध का परिणाम था या कुछ और बात थी कि सरकार ने बिजली कानून में संशोधन से जुड़े बिल को उस लिस्ट में शामिल नहीं किया जो इस मानसून सत्र में पेश किये जाने वाले थे।  मगर इसके बाद अचानक 8 अगस्त 2022 को सरकार ने इसी मानूसन सत्र में बिजली बिल संशोधन 2022 पेश कर दिया। 

बिजली बिल 2022 के जिन मुख्य बिंदुओं पर विरोध है, उसे लेकर न्यूज़क्लिक ने ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स  फेडरेशन  के सदस्य रह चुके के अशोक राव से बात की। यहाँ पर उसी इंटरव्यू का सारांश पेश है। 

सबसे पहली बात यह कि सरकार ने इस बिल को धोखे से पेश किया।  इसका मतलब है कि सरकार ने इस बिल के जरिये कुछ ऐसे बदलावों की पेशकश की है, जिसका समर्थन उसे आसानी से हासिल नहीं हो सकता है। मतलब यह कि इस बिल को न पढ़ा जाए। सरकर के रवैये से कहा जा सकता है कि दाल में कुछ तो काला है। 

इस बिल के जरिये बिजली वितरण के क्षेत्र में प्राइवेट डिस्ट्रीब्यूशन काम कंपनियों को खुली इजाजत दे दी गयी है। अब सरकारी बिजली बोर्डों के लिए अनिवार्य होगा कि वे वह अपने नेटवर्क का इस्तेमाल करने की इजाजत प्राइवेट कंपनियों को भी दे दे। डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा। सरकार का तर्क है कि जब प्राइवेट कंपनियां आएंगी तो इससे कम्पटीशन बढ़ेगा। तकरीबन हर अख़बार में यही छपा है कि कम्पटीशन होगा तो बिजली की दरें सस्ती होंगी। मगर समझने वाली बात यह है कि जब देश की 85 फीसदी जनता जितने में बिजली बनती है, उतना ही पैसा नहीं दे सकती। बिजली की लागत से कम दर पर उन्हें बिजली देना पड़ता है। अगर ऐसी स्थिति है तो प्रतियोगिता की बात ही पैदा नहीं होती। 

मौजूदा वक्त में पावर जेनरेशन स्टेशन से घरों तक बिजली पहुंचाने की लागत पूरे भारत में औसतन तकरीबन 7.5 रुपये प्रति यूनिट है। जबकि प्रति यूनिट वसूली 5.5 रुपये होती है। इस कमी को सब्सिडी और क्रॉस सब्सिडी के जरिये को पूरा किया जाता है। क्रॉस सब्सिडी यानी अमीरों से ज्यादा दरों पर बिजली बेचकर गरीबों को कम दरों पर बिजली बेचने के नुकसान की भरपाई करना। जब भारत में अब तक लागत से कम दर पर बिजली बिकती आयी है।

भारत की परिस्थितियां ऐसी हैं कि लागत से ज्यादा दर पर बिजली नहीं बेची जा सकती तो कैसे कम्पटीशन होगा? अगर 7.5 रुपये प्रति यूनिट में बनने वाली बिजली 15 रुपए प्रति यूनिट में बिकती तो कहा जाता कि जब कई तरह की डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों के बीच प्रतियोगिता होगी तो दर कम होकर 11 से 12 रुपये प्रति यूनिट तक पहुंच जाएगा। लेकिन जब पहले से ही बिजली लागत से कम दर पर बिक रही है तो प्रतियोगिता कैसे मुमकिन है? अगर क्रॉस सब्सिडी और सब्सिडी को खत्म कर दिया जायेगा तो बिजली कम्पनियां बिजली को लागत पर ही खरीदेंगी और कीमतें बढ़ाकर ही बेचेंगी। मतलब यह है कि अगर कानून लागू हुआ तो बिजली की दरें बढ़ने वाली हैं। जनता का भार बढ़ने वाला है। 

इस बिल में एक प्रावधान है कि कोई भी राज्य सरकार मुफ्त में बिजली नहीं बेच सकती है। बिजली की एक न्यूनतम दर निर्धारित होगी।  इससे कम पर बिजली नहीं बेची जा सकती है। बिजली की दर तय करने का अधिकार केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों को मिला है।  बिल के इसी प्रावधान को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने जमकर हमला केंद्र सरकार पर जमकर हमला बोला है। कहने वाले कह सकते हैं कि उन सरकारों पर हमला है जो मुफ्त की राजनीति करती हैं। मगर सोचने वालों को सोचना चाहिए  कि एक वेलफेयर स्टेट को क्या करना चाहिए? वह भी उस स्टेट जिसके ज्यादातर नागरिकों को बुनियादी सुविधाएँ नहीं मिली है? क्या उसे हिन्दू मुस्लिम राजनीति करनी चाहिए या जनकल्याण की नीतियों को मुफ्तखोरी कहकर खारिज करना चाहिए।

पहले सरकार को लोगों की आमदनी तो बढ़ानी चाहिए। क्या लोगों की आमदनी बढ़ी है? नहीं बढ़ी है।  90 फीसदी कामगार 25 हजार रूपये प्रति महीने से कम पर काम करते हैं। ऐसे में मुफ्त शब्द का इस्तेमाल ही लोकतंत्र के खिलाफ है। किसानों की आमदनी घर चलाने के बराबर भी होती है। आप उनसे सिंचाई में इस्तेमाल होने वाली बिजली की पूरी लागत वसूल कर क्या दर्शाना चाहते हैं? अगर 7.5 हॉर्स पावर का पम्पिंग सेट दिन में 6 घंटे चलेगा तो किसान को महीने में तकरीबन 10 से 12 हजार रूपये का बिजली बिल चुकाना पड़ेगा। क्या किसानों की इतनी आमदनी है कि वह केवल बिजली बिल पर इतनी बड़ी राशि खर्च करे दें। सरकार ने ना तो किसानों की आदमनी बढ़ाई, न ही सिंचाई के लिए नहर की व्यवस्था की और सरकार चाहती है कि किसानों को मिलने वाली सरकारी मदद बंद कर दी जाए। ऐसी सरकार को आप क्या कहेंगे?

इस बिल में यह कहा गया है कि अगर राज्य सरकारों ने बकाया भुगतान नहीं किया तो लोड डिस्पैच सेंटर से बिजली रोक दी जाएगी। अब यहां समझने वाली बात यह है कि बिजली किसी तरह के स्टोरेज सिस्टम के तहत काम नहीं करती है। ऐसा नहीं है कि बिजली को स्टोर कर लिया और जब इस्तेमाल करना चाहा तब उसका इस्तेमाल कर लिया। अगर आप अपने घर में 1 ट्यूब लाइट जला रहे हैं तो इसका मतलब है कि इतनी बिजली पैदा हो रही है और वह इस्तेमाल हो रही है।  अब यहां पर एक और प्रावधान को पढ़ कर देखिए।

बिल में यह प्रवाधान है कि सभी श्रेणी के यानी किसी भी तरह के उपभोक्ताओं भले ही वह डोमेस्टिक, कॉमर्शियल, रूरल, अर्बन, फार्मर या किसी भी तरह के हों- उन्हें बिजली देने की बाध्यता केवल सरकारी कंपनी की होगी।

स्वाभाविक तौर पर प्राइवेट कंपनियां मुनाफे वाले इंडस्ट्रियल और कॉमर्शियल उपभोक्ताओं को ही बिजली देंगी। सरकारी वितरण कंपनियां किसानों और आम उपभोक्ताओं को लागत से कम मूल्य पर बिजली देने के चलते और घाटे में रहेंगी और इनका भुगतान रुका रहेगा। यानी इन तक बिजली की सप्लाई रोकी जा सकती है। एक लाइन में कहा जाए तो अगर यह कानून लागू हो जायेगा तो परिणाम यह होगा कि अमीरों के घर में जगमगाहट रहेगी और गरीबों के घर में अंधेरा।

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