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आडवाणी जिसके रत्न हैं वह किसका भारत है?

जिन योगदानों के लिए लालकृष्ण आडवाणी जाने जाते हैं वे उनकी रथ यात्रा, बाबरी मस्जिद का ध्वंस और गुजरात के दंगों के समय निबाही गयी उनकी निर्णायक राजनीतिक भूमिकाएं हैं। 
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Photo : PTI

किसी जमाने में भाजपा के शीर्ष नेता रहे और पिछली दस वर्षों से हाशिये से भी बाहर बिठा दिए गए लालकृष्ण आडवाणी अचानक तब खबरों में आ गए जब 3 फरवरी को उन्हें भारत रत्न सम्मान दिए जाने की घोषणा की गयी।  इस सम्मान के उनके चुने जाने, उसे दिए जाने के तरीके और उसके बाद भाजपा खेमे में एक स्वर से किये जा रहे मोदी प्रशस्तिगान ने खुद अपने कहे बोले से ही बहुत कुछ साफ़ कर दिया है  ।  कोई सप्ताह भर पहले ही बिहार के जननायक कहे जाने वाले कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से मरणोपरांत सम्मानित किये जाने का एलान किया गया था  ।  उस वक़्त राष्ट्रपति भवन से विज्ञप्ति जारी की गयी थी जिसमे राष्ट्रपति महोदया ने कहा था कि  "मुझे इस बात की बहुत प्रसन्नता हो रही है कि भारत सरकार ने सामाजिक न्याय के पुरोधा महान जननायक कर्पूरी ठाकुर जी को भारत रत्न से सम्मानित करने का निर्णय लिया है। उनकी जन्म-शताब्दी के अवसर पर यह निर्णय देशवासियों को गौरवान्वित करने वाला है।"  मगर आडवाणी प्रकरण में यह उलटा हुआ ; पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ट्विटर (अब X) पर इसका एलान किया उसके बाद जाकर राष्ट्रपति भवन से औपचारिक विज्ञप्ति जारी की गयी  ।  इसके तुरन्त बाद जैसे कहीं से कोई टूल-किट जारी हुई हो,  किसी ने बाकायदा लिखकर भिजवाये हों उस अंदाज़ में एक के बाद एक धड़ाधड़ बयानों की झड़ी लग गयी। देश भर की भाजपा नेता-नेतानी मंडली  आडवाणी 'जी' पर की गयी इस कृपा के लिए नरेंद्र मोदी 'जी' का गुणगान और धन्यवाद और कृतज्ञता ज्ञापन करने की लाइन में पंक्तिबद्ध होकर खड़ी हो गयी  ।  ऐसे ऐसे भाजपाई जो पिछले 10 वर्षों से अकेले में भी आडवाणी नाम तक लेने से भी बचते थे, जो दिल्ली की उस सड़क से गुजरने से भी कतराते थे जिस पर इन दिनों आडवाणी रहते हैं -  वे भी उन्हें  भारत रत्न दिए जाने के मोदी एलान के साथ चहकते हुए बयान झाड़ने लगे और आडवाणी के बहाने नरेंद्र मोदी के कसीदे काढ़ते दिखे।  मीडिया ने भी अपना गोदी धर्म निबाहा और पाने वाले से ज्यादा महान देने वाले को साबित करने की मुहिम सी छेड़ दी ।  आडवाणी की एकमात्र “उपलब्धि” में भी फिटकरी लगाते हुए उनको अपनी ही कुख्यात सोमनाथ-अयोध्या  रथ यात्रा का सारथी और  सिर्फ गुजरात से मुम्बई तक उसके समन्वयक रहे मोदी को परोक्ष रूप में असली रथी दिखाने की कोशिश तक कर मारी  ।

इतने कुछ के बाद भी अनेक लोग लोग कयास लगा रहे हैं कि अचानक आडवाणी की याद आने की वजह क्या है। उनके जिन गुणों का अब बखान किया जा रहा है वे आज के तो नहीं है।   मोदी राज में भारत रत्न से सम्मानित होने वालों में 9वें स्थान पर आने वाले आडवाणी से 9 साल पहले ही उन अटल बिहारी वाजपेयी को यह सम्मान दिया जा चुका था,  जिनके बाद भाजपा के शीर्षस्थ नेताओं के क्रम में उनका नाम आता है।  5 साल पहले उन्ही की पार्टी के संगी रहे नानाजी देशमुख तक इसे पा चुके थे  । और तो और 9 दिन पहले  आडवाणी ब्रांड की राजनीति के विरोधी रहे कर्पूरी ठाकुर को भी यह सम्मान मरणोपरांत देने की घोषणा हो चुकी थी  । जब सामान्यतः यह सम्मान दिए जाते हैं वह 26 जनवरी भी गुजर चुकी थी और 15 अगस्त अभी काफी दूर था  फिर बीच में ही अचानक से इस एलान की क्या जरूरत आन पड़ी? आडवाणी इस हांड़ी के पुराने चावल हैं, वे जानते हैं कि उन्हें सम्मानित करके कौन सम्मानित होना चाहता है और किसे सम्मानित किया जा रहा है। यह दोनों बातें उन्होंने प्रेस को जारी अपने आभार वक्तव्य में व्यक्त भी कर दिन जब आर एस एस में हुई अपनी परवरिश, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, अपनी जीवन संगिनी इत्यादि का नाम लेने के बाद ही जाकर प्रधानमंत्री का नाम लिया है, वह भी राष्ट्रपति के नाम के बाद। अब इससे ज्यादा की उम्मीद उनसे की भी नहीं की जानी चाहिए। इस तरह  न तो यह गुरु दक्षिणा है, ना ही यह राम मंदिर के आयोजन से दूर रखे जाने से दल के बुजुर्गों के बीच हुई कथित प्रतिक्रिया का प्रतिसाद या सांत्वना पुरूस्कार है। यह जिस दिशा में इस वक़्त देश को तेजी से धकेला जा रहा है उसी दिशा में एक और जोर का धक्का है; बुजुर्ग आडवानी तो सिर्फ जरिया हैं।  यह 96 वर्ष की पकी आयु में आडवाणी जी के कोट पर टंगा तमगा नहीं उस विचारधारा का मस्तकाभिषेक है जिसके लिए वे जाने जाते हैं ।  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आडवाणी को भारत रत्न दिए जाने  की घोषणा में कही बातों से यह मकसद साफ़ हो जाता है ।  मोदी द्वारा इस एलान के बारे में की गयी ट्वीट में दो बातें काबिलेगौर हैं। पहली यह कि उन्होंने उन्हें "राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान को आगे बढ़ाने की दिशा में अद्वितीय प्रयास"  करने वाला बताया है, उनकी "अखंडता के प्रति अटूट प्रतिबद्धता"  को रेखांकित किया है।  दूसरे इस सम्मान को "उस विचारधारा का भी सम्मान" करार दिया है जिस पर वे चलते रहे  हैं।  ठीक यही कारण है कि भारत के सर्वोच्च सम्मान के  लिए किया गया यह चयन सक्रिय राजनीति से अचानक और लगभग असम्मानजनक तरीके से बेदखल किये गए किसी वरिष्ठ राजनेता का पुनर्वास या उनके साथ किये का उपचार नहीं है – यह जिस संविधान में इस सम्मान का प्रावधान किया गया है, उसके साथ अनाचार है ।

लालकृष्ण आडवाणी पिछले कुछ दशकों की भारतीय राजनीति के सबसे विवादास्पद व्यक्तित्व हैं  ।  उनकी पहचान 1989 की सोमनाथ से अयोध्या तक की  उस कुख्यात रथयात्रा के रथयात्री की है, जिस यात्रा के चलते पूरे देश में हिंसा की बाढ़ आ गयी थी।  तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष के रूप में उनके द्वारा की गयी सोमनाथ से अयोध्या की रथ यात्रा के ठीक पहले और बाद में देश भर में व्यापक स्तर पर भीषण सांप्रदायिक हिंसा हुई। इसकी चपेट में आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, दिल्ली, गुजरात, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश और बंगाल समेत 14 राज्य आये थे । उस समय के  अख़बारों से संकलित सूचनाओं के अनुसार 1 सितम्बर 1990 से 20 नवम्बर 1990 के बीच देश के 14 प्रदेशों में 116 सांप्रदायिक दंगे हुए जिनमे 564 लोग मारे गए। अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद ने आजादी के बाद भारतीय समाज में सांप्रदायिक जहर फैलाने का काम भयावह तेजी से किया । जन्मभूमि आंदोलन के चलते देश के उन हिस्सों में भी सांप्रदायिक दंगे हुए जहां विभाजन के दौरान भी अमन चैन और भाईचारा रहा था।  दिल्ली, मेरठ, आगरा, वाराणसी, कानपुर, अलीगढ़, खुर्जा, बिजनौर, सहारनपुर, हैदराबाद, भद्रक , सीतामढ़ी, सूरत, मुंबई, कलकत्ता, भोपाल आदि तमाम शहर सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में आए।

इसी यात्रा की निरंतरता में, इन्ही आडवाणी की मौजूदगी में वह घटना घटी जिसे ठीक ही गांधी ह्त्या के बाद देश के समावेशी और धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर सबसे बड़ा आघात कहा जाता है। सुप्रीमकोर्ट में दिए हलफनामे और सारे लिखित आश्वासनों को अंगूठा दिखाते हुए इनकी अगुआई में अयोध्या में हुई कथित कार सेवा में   6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद ढहा दी गयी थी। छह दिसंबर 1992 के इस ध्वंस के बाद देश भर में हुए दंगों में 2000 से ज्यादा लोग मारे गये। इस दौरान सूरत, मुंबई, बेंगलुरु, कानपुर, असम, राजस्थान, कलकत्ता, भोपाल, दिल्ली में जान-माल का भारी नुकसान हुआ। सबसे ज्यादा बर्बादी मुंबई में हुई। समानांतर सांप्रदायिक ताकतों को भी अपने जहरीले फन फैलाने और जड़ें जमाने का मौक़ा मिला।  बाबरी विध्वंस की जांच के लिए बने  लिब्राहन आयोग ने अपनी नौ सौ पेज की रिपोर्ट  में संघ परिवार, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और बीजेपी के प्रमुख नेताओं को उन घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार माना जिनकी वजह से बाबरी विध्वंस की घटना हुई। इनमे आडवाणी का नाम भी शामिल था। अदालत में दायर  सीबीआई की मूल चार्जशीट के मुताबिक "भारतीय जनता पार्टी नेता लाल कृष्ण आडवाणी अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद गिराने के 'षड्यंत्र' के मुख्य सूत्रधार हैं।"  इसके समर्थन में जांच एजेंसी ने अनेक सबूत भी प्रस्तुत किये।  तकनीकी आधारों पर नीचे ऊपर की अदालतों में दशकों तक सुनवाई इधर उधर घूमती रही और आखिर में सबसे ऊपर की अदालत में जो हुआ वह सबके सामने है।  

बाबरी ध्वंस के 9 वर्ष बाद हुए गुजरात के नरसंहार के वक़्त जब देश भर में उभरे क्षोभ और रोष तथा उसके चलते बने जनदबाब के कारण  अटल बिहारी वाजपेयी भी राजधर्म न निबाहने के जिम्मेदार मोदी को हटाये जाने के पक्ष में थे तब यही आडवाणी थे जो इन मोदी के बचाव में खड़े हुए।  अटल बिहारी वाजपेयी के साथ अपने अनुभवों का बयान करते हुए सिर्फ दो मुद्दों पर उनके साथ अपने मतभेद गिनाते हुए इसे खुद उन्होंने अपनी आत्मकथा "मेरा देश मेरा जीवन" में दर्ज किया है। वे लिखते हैं कि  "गोधरा दंगों के बाद विपक्षी पार्टियां, मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के इस्तीफे की मांग पर अड़ गईं। एनडीए गठबंधन का हिस्सा रहीं कुछ पार्टियां भी मोदीकाइस्तीफा चाहती थीं,  लेकिन मेरी राय इससे बिल्कुल उलट थी।"  

इस तरह कुल मिलाकर जिन योगदानों के लिए लालकृष्ण आडवाणी जाने जाते हैं वे उनकी रथ यात्रा, बाबरी मस्जिद का ध्वंस और गुजरात के दंगों के समय निबाही गयी उनकी निर्णायराजनीतिक भूमिकाएं हैं;  इसके बावजूद यदि वे भारत के रत्न और 75 वर्षों में इससे सम्मानित होने वाले 50 व्यक्तियों की पंक्ति में खड़े योग्य माने गए हैं तो फिर यह सोचना होगा कि ये कौन सा भारत है?  ये किसका भारत है?   

इन कामों को भारत के प्रधानमंत्री द्वारा "राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान को आगे बढ़ाने की दिशा में अद्वितीय प्रयास"  करने वाला और  "अखंडता के प्रति अटूट प्रतिबद्धता" वाला बताना,  इस सम्मान के पीछे छिपी मंशा  - हिंदुत्व की राज प्रतिष्ठा की मंशा और जिस तरह का भारत बनाया जाना है उसके इरादे को साफ़ कर देता है।  बची खुची कसर प्रधानमंत्री द्वारा इसे "उस विचारधारा का सम्मान" भी बताये जाने और स्वयं आडवाणी द्वारा इसे "अपने आदर्शों और सिद्धांतों" का सम्मान बताये जाने से पूरी हो जाती है।   

भारत के इस सर्वोच्च नागरिक सम्मान को जिस विचारधारा को समर्पित किये जाने की और स्वीकारी जाने की बात की जा रही है, उसे “राष्ट्रीय एकता और अखंडता” और न जाने किस किस शब्द से छुपाया जा रहा है, वह हिंदुत्व की विचारधारा है ।  अलग अलग कालखंड में इसे – गोविन्दाचार्य के रूपक में – अलग अलग मुखौटे पहनाकर गले उतारने की कोशिशें की जाती रहीं है।  रूप बदले जाते रहे हैं मगर सार यथावत रहा है; उदारमना कवि हृदय कहे जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी भी एक ही भाषण में राजधर्म निबाहने का उपदेश देने के साथ “हर  मुसलमान आतंकी नही है मगर हर आतंकी मुसलमान क्यों होता है” के बोलवचन से अपनी बनाई गयीछवि का ठप्पा लगाकर एजेंडे को ही आगे बढाते रहे हैं – इसी बीच पहली फुरसत में ही संविधान की समीक्षा के लिए वेंकटचलैय्या आयोग बनाकर अपने इरादे जाहिर करते रहे हैं।  रथयात्रा और बाबरी फेम आडवाणी जैसा कि दिखाने की कोशिश जाती रही है, उनसे अलग या असंबंद्ध नहीं हैं, उनका अगला चरण है; ठीक जिस तरह 2002 फेम मोदी इन आडवाणी का अगला और ज्यादा उग्र और आक्रामक संस्करण हैं। अभिनंदित और अभिनन्दनकर्ता दोनों की जुगलबंदी इसी बात की पुष्टि करती है – यह उस संगठन की आजमाई हुई  कार्यशैली है जिस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रति कृतज्ञता का उल्लेख आडवाणी के स्वीकारोक्ति वक्तव्य में किया गया है । 

अटल आडवाणी के द्वैत में एक को उदार दूजे को कट्टर मानने जैसी "समझदारी", आडवाणी मोदी के युग्म में एक को कम दूसरे को ज्यादा बताने तक पहुंचाती दिखती जरूर है मगर पहुंचाती कही नहीं है। ऐसा मानने वाले उग्र से उग्रतर होने की क्रिया में अनचाहे शरीकेजुर्म और उस विचारधारा, आदर्शों और सिद्धांतों को प्रतिष्ठित करने की दिशा में आगे कदम बढ़ाने के हादसे का अचंभित दर्शक भर बनकर रह जाने के लिए अभिशप्त होते  है । अभिनंदित और अभिनन्दनकर्ता दोनों की जुगलबंदी इसी बात की पुष्टि करती है – इसके बाद भी यदि किसी को भोला बना ही रहना है तो उन पर रहम ही किया जा सकता है । 

यह भारत रत्न भारत की अवधारणा के निषेध और उसकी बुनावट के विरोध और प्रतिषेध की प्रतीक धारा के अभिनंदित किये जाने की धीमी से तीव्र होती हुई प्रक्रिया है ; यह अटल बिहारी वाजपेयी से मदन मोहन मालवीय होते हुए नानाजी देशमुख तक आयी अब लालकृष्ण आडवाणी तक पहुँच गयी है - अगर सिलसिला यूं ही जारी रहा तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि अगले साल संघ की स्थापना के 100 वे वर्ष में जिन्हें यह संगठन अपना गुरु मानता है उन माधव सदाशिव गोलवलकर या वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत के भारत रत्न होने तक पहुंच  जाए।  क्योंकि अयोध्या में हुई  हिंदुत्व की राज प्रतिष्ठा के सिर्फ 12 दिन बाद हुआ यह  ऐलान  22 जनवरी का ही एक और आख्यान है। लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष भारत और भारत वासियों को उसे इसी तरह देखना और समझना होगा।  
 
(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीच किसान सभा के संयुक्‍त सचिव  हैं। विचार निजी हैं।
 

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