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क्यों उद्धव ठाकरे को शिवसेना को समवेशिता की राजनीति के रास्ते पर ले जाना चाहिए

शिवसेना के बागी विधायक और भाजपा नेता यह दावा कर सकते हैं कि महाराष्ट्र में हालिया राजनीतिक मोड़ को हिंदुत्व की राजनीति ने प्रेरित किया है, लेकिन भगवा पार्टी के इतिहास में कई वैचारिक समझौते पहले से दर्ज हैं।
Uddhav

2014 में, जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, तो भाजपा समर्थकों ने एक आकर्षक नारा गढ़ा था, "देश में नरेंद्र, प्रदेश में देवेंद्र यानि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री, देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री।" इस नारे ने फडणवीस को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने का उत्साह पैदा किया और गति प्रदान की। 12 जुलाई 2020 को, अगले महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार करते हुए, मोदी ने खुद "दिल्ली में नरेंद्र और मुंबई में देवेंद्र" का नारा दिया था और अनुमान लगाया था कि इससे महाराष्ट्र में विकास को बढ़ावा मिलेगा।

नरेंद्र के बाद देवेंद्र

जून में, ऐसे ही कुछ उत्साही समर्थकों को लगा कि फडणवीस फिर से मुख्यमंत्री बन सकते हैं। शिवसेना के विधायकों के भाजपा में मिलने के उत्साह में, उन्होंने एक और नारा गढ़ा, "नरेंद्र के बाद देवेंद्र।" माना जा रहा है कि इस वन-लाइनर में छिपी महत्वाकांक्षा ने दिल्ली में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को नाराज कर दिया, और इसका परिणाम फडणवीस के उपमुख्यमंत्री बनने में परिलक्षित हुआ,  जबकि शिवसेना के बागी नेता एकनाथ शिंदे को महाराष्ट्र में मुख्य भूमिका के लिए चुना गया। 

2020 में भी, फडणवीस अपनी पार्टी और शिवसेना के साथ विधानसभा चुनाव लड़ने और विजयी सीटों के साथ बहुमत हासिल करने के बावजूद मुख्यमंत्री नहीं बन पाए थे। शिवसेना ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री पद चाहती थी, लेकिन भाजपा ने इस व्यवस्था को न कह दी थी। इसलिए उद्धव ठाकरे और उनके 56 विधायक महा विकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन बनाकर कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ गठजोड़ में शामिल हो गए, और ठाकरे मुख्यमंत्री बने। लोगों ने ठाकरे के ढाई साल के मुख्यमंत्री पद की सराहना की, लेकिन फडणवीस अभी भी मुख्यमंत्री की लालसा पाले बैठे थे।

सेना विद्रोह

20 जून तक, शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना के 30 से अधिक विधायकों ने ठाकरे के खिलाफ विद्रोह कर दिया और मुंबई से सूरत होते हुए गुवाहाटी पहुँच गए। उन्होंने असली शिवसेना होने का दावा किया और ठाकरे से एमवीए से नाता तोड़ने को कहा। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र पर शासन करने वाला सत्तारूढ़ गठबंधन, शिवसेना की हिंदुत्व की विचारधारा से समझौता किया है और इसलिए कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के साथ शिवसेना के गठबंधन को गैर-कुदरती बताया। उन्होंने ठाकरे से हिंदुत्व के प्रति प्रतिबद्ध पार्टी, भाजपा से हाथ मिलाने और नई सरकार बनाने का आग्रह किया। सेना के कई बागी नेताओं को केंद्र सरकार के तहत प्रवर्तन निदेशालय से एक सम्मन मिला था, जिससे अटकलें लगाई जा रही थीं कि गिरफ्तारी के डर से उन्होने ऐसा किया न कि हिंदुत्व की विचारधारा के कारण, इसलिए वे शिंदे-भाजपा खेमे में शामिल हो गए थे।

ठाकरे का इस्तीफा तब आया, जब तक कि शिवसेना द्वारा 16 बागी विधायकों के खिलाफ दिए गए अयोग्यता नोटिस को दल-बदल विरोधी कानून के तहत निपटाया नहीं जाता है, तब तक फ्लोर टेस्ट स्थगित करने की उनकी पार्टी की याचिका को सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और उसके बाद ही इस्तीफा आया था। अब चर्चा थी कि फडणवीस फिर से मुख्यमंत्री बनने के अपने सपने को पूरा करेंगे, जबकि शिंदे को नई सरकार में एक और महत्वपूर्ण पद मिलेगा। लेकिन हुआ उल्टा, जो अब इतिहास बन गया है.

महाराष्ट्र में सत्ता की लालसा में ठाकरे से लेकर शिवसेना और उसके हिंदुत्व के ताज़ को हथियाने और उन्हें एक गैर-राजनीतिक इकाई में बदलने का बड़ा इरादा नज़र आता है। दल-बदल विरोधी कानून में यह प्रावधान है कि यदि कोई विधायक स्वेच्छा से उस पार्टी को छोड़ देता है जिसके चिन्ह पर वे विधायिका के लिए चुने गए थे, तो वे विधायिका की सदस्यता खो देंगे। सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या के अनुसार यदि कोई विधायक पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करता है तो उसे स्वेच्छा से उस पार्टी को छोड़ना होगा। इसलिए, शिवसेना के बागी विधायक विधायिका में अपनी सदस्यता खो देंगे, जिससे महाराष्ट्र विधानसभा की ताकत प्रभावी रूप से कम हो जाएगी। हालांकि, यह कानून शिवसेना के बागी विधायकों पर लागू नहीं होगा, जो अब असली शिवसेना होने का दावा कर रहे हैं।

शिवसेना के विद्रोहियों का स्वयंभू आरोप यह है कि उनकी पार्टी एमवीए शासन के तहत हिंदुत्व से विदा हो गई थी। उनका कहना है कि वे भाजपा से मिलकर शिवसेना को हिंदुत्व की पटरी पर लाना चाहते थे। यह तर्क भाजपा के ट्रैक रिकॉर्ड के विपरीत है, जिसने अपने हिंदुत्व के ताज़ के बावजूद, उन पार्टियों के साथ गठबंधन किया था, जिनका इस विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। महाराष्ट्र की भाजपा इकाई ने 2020 में मुख्यमंत्री के रूप में राकांपा के अजीत पवार का समर्थन किया था। पवार केवल कुछ दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने, लेकिन यह एक तथ्य है कि वे कभी हिंदुत्व से जुड़े नहीं थे। अन्य अवसरों पर, भाजपा ने सत्ता में आने के लिए कई राज्यों में उन पार्टियों का समर्थन किया, जिन्होंने कभी हिंदुत्व का समर्थन नहीं किया। उदाहरण के लिए, प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में, भाजपा ने तत्कालीन जम्मू और कश्मीर राज्य में पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ गठबंधन करके सरकार बनाई थी।

यह सर्वविदित है कि पीडीपी हिंदुत्व में निहित पार्टी नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान, भाजपा ने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के साथ गठबंधन किया था, प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के कार्यकाल के दौरान, इसने अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के साथ गठबंधन किया था। न तो द्रमुक और न ही अन्नाद्रमुक का हिंदुत्व से कोई लेना-देना है। वास्तव में, हाल के दिनों में, अन्नाद्रमुक नेतृत्व ने खुले तौर पर कहा है कि भाजपा का हिंदुत्व उनकी विचारधारा के साथ वैचारिक रूप से असंगत है और इसलिए इसे अपने अल्पसंख्यक समर्थकों की कीमत चुकानी पड़ रही है।

ओडिशा में, भाजपा ने बीजू जनता दल के साथ गठबंधन किया था और 2000 से 2009 तक उनके साथ सरकार में रहे। उल्लेखनीय है कि बीजद की हिंदुत्व के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है बल्कि वह एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी है। इसलिए, शिवसेना के बागी नेताओं का दावा, कि उन्होंने हिंदुत्व के लिए भाजपा से हाथ मिलाया है। आखिरकार, जैसे-जैसे राजनीतिक ज्वार मुड़ा, शिवसेना और भाजपा दोनों ने उन पार्टियों के साथ गठबंधन किया, जो उन्हें किसी भी समय सुलभ  लगी।

शिवसेना का मराठी गौरव राष्ट्रवाद

अपनी 1982 की पुस्तक, "नेटिविज्म इन ए मेट्रोपोलिस: द शिवसेना इन बॉम्बे" में, प्रो. दीपांकर गुप्ता ने दक्षिण भारतीयों और मुंबई में बसे अन्य राज्यों के लोगों के खिलाफ चले अभियान से शिवसेना की उत्पत्ति का पता लगाया था। इसमें, उन्होंने नोट किया था कि शिवसेना ने शहर में ट्रेड यूनियन आंदोलन में शामिल कम्युनिस्टों और समाजवादियों को हिंसक रूप से निशाना बनाया। गुप्ता के अनुसार, सेना 'मराठी गौरव' के इर्द-गिर्द देशी भावनाओं को भड़काकर और तथाकथित बाहरी लोगों द्वारा मराठियों के कथित आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण के खिलाफ आंदोलन करके शिवसेना एक प्रभावशाली राजनीतिक दल बन गई थी। कांग्रेस पार्टी ने कम्युनिस्टों और समाजवादियों को दबाने के लिए शिवसेना के साथ तालमेल बिठाया, और इसलिए सेना को अपने मिशन में सुरक्षा मिली, जिसके लिए उसने बाद में इंदिरा गांधी के आपातकाल का समर्थन किया था। गुप्ता ने यह भी खुलासा किया कि शिवसेना का शुरू में कुछ हिंदू समर्थक झुकाव था, जिसने 1990 के दशक में एक आक्रामक रूप ले लिया था। उन्होंने कहा, कि"... शिवसेना में शामिल होने के लिए शिवसैनिकों द्वारा दिए गए कारणों की जांच करते हुए, यह आसानी से देखा जाता है कि वे न तो साम्यवाद विरोधी और न ही शिवसेना की विचारधारा के हिंदू समर्थक तत्व आंदोलन की अपील थी या उसकी प्रमुख कारक थी। महाराष्ट्रियों के बीच यह भावना सबसे महत्वपूर्ण कारक है कि बाहरी लोगों द्वारा उन्हे आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है।”

इस बिंदु को वर्तमान संदर्भ में विस्तृत करने की जरूरत है, क्योंकि ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना अपना आधार बढ़ रहा था, जो स्वाभाविक रूप से भाजपा के दिग्गजों को डरा रहा था। इसके अलावा, शिवसेना के विद्रोहियों से मिलकर, भाजपा भारत की वित्तीय राजधानी में सत्ता में लौटने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेगी, जो राज्य में सबसे अधिक जीडीपी के साथ टिकी हुई है। भाजपा की तत्काल इच्छा बृहन्मुंबई नगर निगम या बीएमसी पर कब्जा करना है, जो मुंबई के बड़े क्षेत्र का निकाय है, जिसके चुनाव इस साल के अंत में होने वाले हैं।

इन सभी लक्ष्यों को हासिल करने में उसकी मदद शिवसेना के बागी शिंदे कर रहे हैं, लेकिन पार्टी और उसके तख्ते को हथियाना एक ऐसी रणनीति है जो लंबे समय तक सफल नहीं हो सकती है। यह सच है कि शिवसेना ने आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति अपना कर चुनावी रूप से विस्तार किया था, लेकिन हाल ही में, पार्टी के नेतृत्व ने हिंदुत्व की सीमाओं को मुंबई और महाराष्ट्र के कुछ अन्य इलाकों से परे अपना आधार फैलाने की जरूरत को महसूस किया है। इसीलिए ठाकरे ने अधिक समावेशी शासन का दृष्टिकोण अपनाया है। मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान उनके शासन की यह छाप नज़र आती है। उन्होंने अपने प्रशासनिक कौशल के लिए सद्भावना अर्जित की और महाराष्ट्र को सांप्रदायिक हिंसा से मुक्त रखा, जिससे कई भाजपा शासित राज्य पीड़ित है।

ठाकरे को अपनी जड़ों को याद रखना होगा 

शिवसेना की जड़ में मराठी गौरव की राजनीति, भाजपा और संघ परिवार के ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के बिल्कुल विपरीत है, जो भाषा और क्षेत्र की विविधताओं को मिटाना चाहती है। भाषाई और क्षेत्रीय गौरव ने अक्सर भाजपा के एकरूपता से प्रेरित हिंदुत्व के एजेंडे को चुनौतो दी है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु की पार्टियां, या आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की पार्टियां, बीजेपी के एजेंडे को मात देने में कामयाब रही हैं। इसी तरह, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और अन्य जगहों पर, क्षेत्रीय नेताओं और संगठनों ने भाजपा की सफलता को अलग-अलग डिग्री की चुनौती दी है। अपनी जड़ों की ओर लौटकर, शिवसेना अपना खुद का क्षेत्रीय स्थान भी बना सकती है, जब तक कि ठाकरे इस बात पर जोर देते रहे कि वह भी बहुलवाद और विविधता के लिए खड़े हैं। यही उनके दादा प्रबोधनकर ठाकरे ने आरएसएस और हिंदू महासभा के अलगाववादी दृष्टिकोण के विपरीत रुख किया था।

ऐसा लगता है कि महाराष्ट्र के लोग ठाकरे के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें राजनीतिक  साज़िश का शिकार और पीड़ित के रूप में देखते हैं। हालाँकि, उन्हें और शिवसेना को आसानी से बट्टे खाते में नहीं डाला जा सकता है। शिवसेना के वैचारिक आधार को व्यापक बनाने से पार्टी को चुनावी सफलताओं को दर्ज करने और समावेशी राजनीति के एक और युग की शुरुआत करने में मदद मिल सकती है। इसका मतलब यह है कि, यह क्षण ठाकरे के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में आया है, क्योंकि इसका मतलब है कि उन्हें अब उस्तरे की धार पर चलना होगा, और इसलिए उन्हे कभी भी राष्ट्रवाद की ओर झुकाव नहीं करना चाहिए और समावेशिता की राजनीति से दूर नहीं होना चाहिए।

लेखक राष्ट्रपति केआर नारायणन के प्रेस सचिव और ऑफ़िसर ऑन ड्यूटि रह चुके हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Why Uddhav Thackeray Must Chart Sena Course Based on Inclusivity

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