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दुनिया भर की: धरती पर क्यों धधक रहे हैं इतने दावानल

इस समय दुनिया के जितने हिस्से जंगलों में लगी भीषण आग से झुलस रहे हैं, उतने कभी एक साथ यह प्रकोप झेलते देखे नहीं गए।
Yosemite
धू-धू कर जलते अमेरिका के योसेमाइट नेशनल पार्क में दुनिया के सबसे ऊंचे व सबसे पुराने पेड़। फोटो साभार: एपी

क्यों दावानल सी धधक रही है धरती या यूं कहिए कि क्यों धरती पर कदम-कदम पर धधक रहे हैं दावानल! अब यह कोई साहित्यिक बिंब नहीं बल्कि आज की जमीनी हकीकत है। सुनने में यह थोड़ा अतिरेकपूर्ण लग सकता है लेकिन यह सच है कि इस समय दुनिया के जितने हिस्से जंगलों में लगी भीषण आग से झुलस रहे हैं, उतने कभी एक साथ यह प्रकोप झेलते देखे नहीं गए। अब यह कोई संयोग नहीं कि यह लपटें उस समय फैल रही हैं जब यूरोप के कई हिस्से मौसम में अभूतपूर्व तपिश झेल रहे हैं और वहां पारा रिकॉर्ड स्तर को छू रहा है। दरअसल, दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं।

पिछले ही हफ्ते ब्रिटेन ने अपने इतिहास में सर्वाधिक तापमान दर्ज़ किया- 40 डिग्री सेल्शियस से ज्यादा। यह हाल यूरोप के कई अन्य देशों का रहा, खासकर उत्तरी यूरोप के देशों का। अब अंदाजा लगाइए कि जिस स्विट्जरलैंड में गर्मी से निजात पाने के लिए दुनियाभर से सैलानी आते हैं, वहां का तापमान पिछले दिनों लगातार हमारी दिल्ली के तापमान से ज्यादा था। भूमध्य सागर से लगे दक्षिणी यूरोप के देश तो मई के आखिरी दिनों से ही यह तपिश झेल रहे हैं। स्पेन में कुछ जगहों पर तापमान मई के आखिरी हफ्ते में 45-46 डिग्री सेल्शियस को पार कर चुका था।

उधर अब अमेरिका के बारे में यही अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले दिनों में वहां के कई शहर तापमान के नए रिकॉर्ड बनाने वाले हैं। 

वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आर्क्टिक समुद्र का इलाका दुनिया के बाकी इलाकों से तीन-से चार गुना ज्यादा तेज गर्म हो रहा है। यही वजह है कि उत्तरी गोलार्ध के आम तौर पर ठंडे रहने वाले इलाकों का तापमान भी भूमध्य रेखा के आसपास के इलाकों के तापमान सरीखा होता जा रहा है। यानी साल में गर्मियों के कई दिन ऐसे होने लगे हैं जब श्रीलंका से लेकर स्विट्जरलैंड तक तापमान अमूमन एक जैसा होने लगा है। 

जाहिर है कि कहा जा सकता है कि इन गर्मियों में धरती के उत्तरी गोलार्ध के ज्यादातर हिस्से भट्टी बने हुए हैं। लेकिन वे भट्टी केवल तपिश भर में नहीं हैं, कई इलाके तो वाकई भट्टी की तरह आग में जल रहे हैं।

स्पेन में जंगल की आग के बाद राख में तब्दील हुआ एक समूचा पहाड़ी इलाका। फोटो साभार: एपी

ग्रीष्म लहर, भीषण सूखे और जलवायु परिवर्तन के असर के कारण इस समय कई इलाके आग में धू-धूकर जल रहे हैं- जंगल नष्ट हो रहे हैं, आसपास की रिहाइशी बस्तियों को चपेट में ले रहे हैं और आबो-हवा के साथ-साथ लोगों की रोजी-रोटी को भी तबाह कर डाल रहे हैं। लाखों हेक्टेयर जमीन राख हो चुकी है। और बड़ी मुसीबत यह है कि वैज्ञानिकों के अनुसार मौसम व जलवायु की यह तब्दीली स्थायी होने जा रही है यानी आने वाले समय में ये आग बार-बार लगेगी और ज्यादा फैलेगी। 

इस तरह की आग की आर्थिक कीमत है सो अलग। पहले से ही गंभीर आर्थिक दबाव झेल रहे यूरोप में ये आग क़यामत की तरह आई है। कई ऐसे रोजगार लंबे समय के लिए नष्ट हो गए जो जंगलों पर निर्भर थे- खास तौर पर खेती व पर्यटन उद्योगों से जुड़े। उदाहरण के तौर पर पिछले साल लगी आग में ग्रीस के एक इलाके में चीड़ के समूचे पेड़ जलकर खाक हो गए। वहां चीड़ पर शहद के लिए मधुमक्खियों के छत्ते लगाने का काम बहुत पुराना, पुश्तैनी है। बहुत लोग उस काम में लगे हुए हैं। लेकिन आग से पेड़ गए तो यह समूचा रोजगार चला गया जिसका असर आने वाली कई पीढ़ियों को झेलना पड़ेगा।

नवंबर-दिसंबर के महीनों में आस्ट्रेलिया में भीषण दावानल की घटनाएं पिछले तीन सालों से लगातार बढ़ रही हैं। यूरोप में भी पिछले साल ग्रीस व पुर्तगाल में आग लगने की कई घटनाएं हुई थीं। लेकिन साल 2022 की पहले छह-सात महीनों में तो जो घटनाएं देखने को मिली हैं, वे अपूर्व हैं। दक्षिणी गोलार्ध की जाती गर्मी में फ़रवरी में दक्षिण अमेरिका में अर्जेंटीना में पेराग्वे की सीमा के निकट कोरिएंतस में जंगलों में लगी भीषण आग में 22 लाख हेक्टेयर से ज्यादा इलाका भस्म हो गया और बड़ी सख्या में वन्य प्राणी भी इसका शिकार हो गए।

मार्च-अप्रैल में हम अपने उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने की कई घटनाएं देख चुके हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया के इलाके अमूमन इस तरह की घटनाओं से अछूते रहे हैं। लेकिन मार्च में दक्षिण कोरिया में तटवर्ती उलजिन इलाके में हानुल न्यूक्लीयर प्लांट के नजदीक लगी आग ने हजारों लोगों को बेघर कर दिया था 42 हजार एकड़ जमीन को चपेट में ले लिया। 

अफ्रीका में मोरक्को के जंगलों में कई जगहों पर लगी आग ने हजारों एकड़ जमीन को स्वाहा कर दिया। 

लेकिन इन दावानल का सबसे ज्यादा असर उत्तरी अमेरिका व यूरोप में देखने को मिला है। अमेरिका में लगातार कहीं न कहीं भीषण आग लगी हुई चली आ रही है। यही हाल यूरोप का है, जहां पिछले दो महीनों से एक के बाद एक इलाके आग की चपेट में आए जा रहे हैं। वहां कई देशों में भीषण सूखा है और जलाशय सूखे पड़े हैं। रोमानिया जैसी कई जगहों पर तो लोग बारिश के लिए आसमानी दखल की दुआ करने में लगे हैं।

फ्रांस में आग से भस्म होते जंगल के जंगल। फोटो साभार: रायटर्स

फ्रांस में दक्षिण-पश्चिमी गिरोंदे इलाके में इसी महीने करीब 50 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन आग की चपेट में आ गई। इसपर अभी तक पूरी तरह से काबू नहीं पाया जा सका है। ग्रीस, पुर्तगाल, स्पेन व इटली में कई इलाकों में आग पिछले ही हफ्ते में फिर से जोर पकड़ने लगी। इटली के जंगलों में लगी आग तो फैलकर स्लोवेनिया की सीमा को पार कर चुकी थी, जबकि स्पेन में कम से कम 30 अलग-अलग जगहों पर पिछले हफ्ते आग लगी हुई थी। भूमध्य सागर के दूसरी ओर ऐसा ही हाल तुर्की में था जहां आग लगी हुई थी।

उत्तर अमेरिका में कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में दो हफ्ते पहले दो हजार एकड़ से ज्यादा इलाका आग की चपेट में आ गया। अमेरिका में तो गर्मी व जंगलों की आग का असर लंबे इलाके में है और इतना ज्यादा है कि जुलाई में कैलिफोर्निया का योसेमाइट नेशनल पार्क भी इसकी चपेट में आ गया जहां दुनिया के सबसे ऊंचे और सबसे पुराने विशालकाय पेड़ मौजूद हैं। कैलिफोर्निया, एरिजोना, न्यू मैक्सिको आदि प्रांतों में कई-कई हफ्तों से आग लगी हुई हैं।

प्रचंड गर्मी ने उत्तरी गोलार्ध में सैकड़ों लोगों की जान भी ले ली है। अमेरिका में वुडवेल क्लाइमेट रिसर्च सेंटर में वरिष्ठ विज्ञानी जेनिफर फ्रांसिस का मानना है कि आर्क्टिक समुद्र के गर्म होने से उत्तर अलांटिक जेट स्ट्रीम में बदलाव हो रहा है जिसकी परिणति ग्रीष्म लहर और अचानक बाढ़ जैसी मौसमी मार में दखने को मिल रही है।

समुद्र का पानी गर्म हो जाता है तो वह एक गर्म गुंबद जैसा बना देता है जिससे एक बड़े भौगोलिक इलाके में गर्मी भीतर कैद हो जाती है। गुंबद का आकार फैलता जाता है जैसा अभी हमें अमेरिका में देखने को मिल रहा है। कई बदलाव हैं जो देखने को मिल रहे हैं जिनमें बड़ी भूमिका इंसानों द्वारा पैदा किए जा रहे जलवायु परिर्तन की है। 

हमने अक्सर दो मौसमी चक्रों अल नीनो व ला नीना के बारे में सुना होगा। अल नीनो भूमध्य रेखा के आसपास प्रशांत महासागर से गर्म पानी को ऊपर उत्तर अमेरिका के पश्चिमी तट तक ले जाता है जबकि ला नीना ठंडे पानी का बहाव लेकर जाता है। ला नीना का असर कम पैदा होता है, लेकिन जब होता है तो वह गर्मियों के तापमान को कम रखता है। इस समय ला नीना का असर चल रहा है। लिहाजा वैज्ञानिक इस बात से परेशान हैं कि जब ला नीना के दौरान इतना ज्यादा तापमान देखने को मिल रहा है तो अल-नीनो के गर्म करंट के समय क्या होगा!

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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