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बिहार में अब क्यों नहीं होते बड़े किसान आंदोलन?

आज़ादी से पहले किसान आंदोलन का केंद्र रहने वाले बिहार में लंबे समय से कोई बड़ा किसान आंदोलन क्यों नहीं हुआ है। पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार-लेखक पुष्यमित्र की रिपोर्ट
बिहार
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: aaobihar.com

इन दिनों पंजाब-हरियाणा के किसान बड़ी संख्या में दिल्ली पहुंचे हैं और नये कृषि कानून का विरोध कर रहे हैं। उनका विरोध इतना तेज है कि केंद्र सरकार को बातचीत के लिए विवश होना पड़ रहा है। ठीक ऐसे समय में बिहार में सन्नाटा पसरा है, कहीं-कहीं प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन के अलावा कुछ होता नजर नहीं आ रहा। यह इसी बार की बात नहीं है। आजादी से पहले किसान आंदोलन का केंद्र रहने वाले बिहार में लंबे समय से कोई बड़ा किसान आंदोलन नहीं हुआ है। जबकि बिहार के किसानों की आय देश में सबसे कम है। ऐसे में यह सवाल उठने लगे हैं कि आखिर क्यों बिहार में अब बड़े किसान आंदोलन नहीं होते?

बिहार में किसानों के साथ लंबे समय से काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता इश्तेयाक अहमद कहते हैं कि यह सच है, आजादी से पहले बिहार किसान आंदोलनों की धुरी रहा था। नील की खेती के खिलाफ यहां लंबे समय से आंदोलन होते रहे हैं। जिसकी परिणति चंपारण सत्याग्रह के रूप में आयी, जिसे हम देश के पहले सत्याग्रह के रूप में याद करते हैं। इस आंदोलन के जरिये पहली दफा हमारी आजादी की लड़ाई गांव और किसानों तक पहुंची। बाद में खेड़ा और बारदोली में ऐसे ही आंदोलन हुए।

वे कहते हैं, चंपारण सत्याग्रह के बाद बिहार में सहजानंद सरस्वती जैसे किसान नेता सामने आये और उन्होंने किसान महासभा की स्थापना की। उन्होंने बिहार के किसानों के सवालों को लंबे समय तक उठाया और राजनीति की मुख्यधारा में शामिल किया। इसकी वजह यह थी कि तब बिहार में बड़ी जोत के किसान हुआ करते थे। जमींदारी प्रथा के कारण वे दोहरे शोषण के शिकार थे। मगर वे आर्थिक रूप से थोड़े मजबूत थे और ऐसे आंदोलनों में दमदार तरीके से भागीदारी कर सकते थे।

आजादी के बाद जब बिहार में जमींदारी प्रथा खत्म हो गयी और भूमि सुधार को लागू करने की कोशिश की गयी तो राज्य में खेती के सवाल जमीन के बंटवारे के सवाल में बदल गये। राज्य में भूमि सुधार ठीक से लागू नहीं हो पाया और आज भी भू-स्वामित्व का असंतुलन बना हुआ है। इसलिए किसानों के सवाल से बड़ा सवाल जमीन का सवाल हो गया है। इसने किसानों और भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया है। इसलिए अब किसान आंदोलन कम और जमीन का संघर्ष अधिक हो रहा है।

2011 के सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण भी इश्तेयाक अहमद की बातों की पुष्टि करते हैं। इसके मुताबिक राज्य की 65 फीसदी आबादी भूमिहीन है। जबकि इनमें से ज्यादातर खेती के काम से जुड़े हैं। या तो खेतिहर मजदूर हैं, या बटाइदार। जबकि जिन लोगों के पास खेती के लायक जमीन है, उन्होंने किसानी में फायदा होता न देख, खेती से मुंह मोड़ लिया है। उन्होंने अपनी जमीन बटाई पर दे दी है और बेहतर जीवनशैली के प्रभाव में आकर शहरों में छोटी-मोटी नौकरी करने लगे हैं।

मतलब यह कि जो भू-स्वामी हैं, उनमें से ज्यादातर खेती नहीं करते। जो खेती से जुड़े हैं, उनके पास अपनी जमीन नहीं है। दोनों को यह मालूम है कि खेती फायदे का धंधा नहीं है। एक ने खेती छोड़ दी है, दूसरा वर्ग लाचारी में खेती कर रहा है और बेहतर विकल्प की तलाश में है। ऐसे में कोई खेती के सवालों में उलझना नहीं चाहता। जो गरीब खेतिहर मजदूर और बटाइदार हैं, वे खेती में घाटा होने पर आंदोलन करने के बदले छोटे-मोटे नौकरी या रोजगार के लिए राज्य से बाहर पलायन करने को बेहतर विकल्प समझते हैं। इसलिए बिहार में बड़े किसान आंदोलन नहीं होते।

हालांकि ऐसा नहीं है कि राज्य में किसानों का कोई प्रोटेस्ट नहीं होता। इसी साल मक्का किसानों के आंदोलन का नेतृत्व कर चुके सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र यादव कहते हैं कि राज्य में छिट-पुट तौर पर खूब किसान आंदोलन होते हैं। मगर यह सच है कि बड़े किसान आंदोलन नहीं होते। महेंद्र यादव कहते हैं कि सच यही है राज्य में पंजाब-हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और मजबूत किसान नहीं हैं। यहां के किसान छोटी जोत वाले हैं और उन्होंने एक तरह से परिस्थिति से समझौता कर लिया है। उन्हें लगता है कि जितनी ताकत सरकार से लड़ने में लगायेंगे उतनी मेहनत में कहीं और जाकर कमाई कर लेंगे। इश्तेयाक अहमद भी उनकी बातों का समर्थन करते हैं, वे कहते हैं कि यहां के किसान परिस्थितियों के आगे समर्पण कर चुके हैं। पलायन ही उन्हें हर समस्या का समाधान नजर आता है।

जहां महेंद्र यादव और इश्तेयाक अहमद बिहार में बड़े किसान आंदोलन नहीं होने की वजह यहां की भूमिहीनता और पलायन की मनोवृत्ति को बताते हैं, वहीं भोजपुर के किसान नेता शेषनाथ सिंह के मुताबिक इसकी वजह बिहार के समाज का जातियों में बंटा हुआ होना भी है। वे कहते हैं, राज्य के किसान जब तक खेत में रहते हैं, तभी तक किसान रहते हैं, जैसे ही वे अपने घरों में पहुंचते हैं, जातियों में बंट जाते हैं। वे जाति की राजनीति से अधिक प्रभावित होते हैं, बनिस्पत अपने पेशागत रोजगार की समस्या से। इसलिए वे जाति की रैलियों में तो पहुंच जाते हैं। जाति के नेता की हत्या पर सड़क जाम कर देते हैं, मगर किसानों के सवालों पर उस तरह से एकजुट नहीं होते। भले ही उनकी धान और मक्के की फसल आधी कीमत में बिके। यहां की राजनीति ने समाज को जातियों में बांट दिया है।

शेषनाथ सिंह की बात भी काफी हद तक सही लगती है, आज भी बिहार की राजनीति का केंद्रीय तत्व यहां की जातियां ही हैं। हाल ही में बीते चुनाव में पहले तो लगा था कि जाति की दीवार टूट रही है, मगर आखिर आते-आते फिर से सब जाति पर केंद्रित हो गया।

वैसे तो ये सभी राज्य में किसानों के बड़े आंदोलन न होने और खेती के सवालों के अनुत्तरित रह जाने की वजहें हैं। मगर मूल वजह यह है कि राज्य में अभी जमीन का मसला सुलझा नहीं है। अभी भूमिहीन किसानों को जमीन उपलब्ध कराने का बड़ा काम है। इस सवाल पर 80 और 90 के दशक में राज्य में बड़े पैमाने पर जातीय जनसंहार हुए। इसने इतना खूंखार रूप अख्तियार किया कि बात में हर वर्ग ने इन सवालों को कुछ समय के लिए अनुत्तरित छोड़ने में ही भलाई समझी। इसको लेकर बनी बंदयोपाध्याय कमिटी की सिफारिशें भी इसी वजह से फाइलों में बंद हैं। इसलिए राज्य में असली किसानों के पास जब जमीन होगी, तभी वे उपज के मूल्य और किसानी के दूसरे सवालों के लिए आंदोलन के बारे में सोचेंगे।

(पटना स्थित पुष्यमित्र वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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