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आप ग्रेटा थनबर्ग को लेकर इतने गुस्से में क्यों हैं महाशय!

इसमें कोई शक नहीं कि भारत के आंतरिक मामले आंतरिक ही रहें तो बेहतर होगा। मगर इस बात का सहारा जन आंदोलनों को दबाने के लिए नहीं लिया जा सकता।
ग्रेटा थनबर्ग
फोटो साभार : ट्विटर

क्या 18 साल की स्वीडिश नागरिक ग्रेटा थनबर्ग ने सचमुच भारत के विरुद्ध कोई अंतर्राष्ट्रीय साजिश रची है? उनके ट्वीट से ऐसा क्या हुआ जिससे भारतीय लोकतंत्र को बड़ा खतरा पैदा हो गया? फिल्मी कलाकारों से लेकर भाजपा नेता तक उनकी मानसिक स्थिति और कमउम्री का मज़ाक क्यों उड़ाने लगे? ऐसे तमाम सवालों और इनके जवाबों तक पहुंचने से पहले जरा ये पंक्तियां पढ़ लीजिए, जिन्हें मैंने उत्तर भारत के एक प्रमुख हिंदी अखबार की खबर से ज्यों का त्यों कॉपी कर लिया है।

नई दिल्ली डेटलाइन से छपी इस खबर का शीर्षक है -

भारत के खिलाफ सुनियोजित साजिश कर रही ग्रेटा थनबर्ग

यह हेडलाइन किसी के बयान या ट्वीट पर आधारित नहीं है। यह ग्रेटा थनबर्ग पर किसी का आरोप भी नहीं है। यह एक सपाट सूचना है। मानो किसी फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट का सार हो। पाठक को इसे पढ़ना है और मान लेना है कि यही सच है। मान लेना है कि ग्रेटा थनबर्ग ने भारत के खिलाफ बड़ी अंतर्राष्ट्रीय साजिश रची है। फुल स्टॉप !

मैं ज्यादा टेक्निकैलिटी में नहीं जाना चाहता मगर हेडलाइंस की एक मर्यादा होती है। अगर किसी ने कोई आरोप लगाया है तो हेडिंग में आरोप लगाने वाले का नाम या कम से कम क्वोट साइन जरूर लगाया जाता है। अगर हम यह सोचें कि इस खबर के शीर्षक में भूलवश ऐसा नहीं किया गया तो यह हमारी गलतफहमी होगी। जरा इस खबर की शुरुआती पंक्तियों पर गौर कीजिए -

किसान आंदोलन के नाम पर भारतीय लोकतंत्र को बर्बाद करने की अंतर्राष्ट्रीय साजिश खुलकर सामने आ गई है। इस षड्यंत्र को सफल बनाने में स्वीडन की 18 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने पूरी ताकत लगा दी है। बेहद शातिर तरीके से उसने तिथि और समय पर आंदोलन व घेराव करने की साजिश रची है। (वगैरह... वगैरह...)

किसी अखबार की सिर्फ एक खबर का पोस्टमॉर्टम करके शॉर्टकट से निकल जाना आसान हो सकता है मगर सवाल सिर्फ इस एक खबर का नहीं है। सवाल यह है कि न्यूज एजेंसियां कब से यह काम करने लगीं? गुरुवार सुबह जब यह खबर प्रकाशित हुई तब तक किसी "टूलकिट" के आधार पर कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ था। फिर भी एडवांस नैरेटिव गढ़ा गया। बिना जांच तय कर लिया गया कि ग्रेटा थनबर्ग ने भारत के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय साजिश सची है।

इसमें कोई शक नहीं कि भारत के आंतरिक मामले आंतरिक ही रहें तो बेहतर होगा। मगर इस बात का सहारा जन आंदोलनों को दबाने के लिए नहीं लिया जा सकता। सूचना तकनीकी ने हमें आज वहां पहुंचा दिया है जहां किसी भी बड़ी घटना की जानकारी किसी एक भूभाग तक सीमित नहीं रखी जा सकतीं। जन आंदोलनों के मामले में यह बात और भी ज्यादा सच्ची साबित होती है। यह समझना भी जरूरी है कि पॉप सिंगर रियाना या पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट्स से बहुत पहले किसान आंदोलन का मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच चुका था। ब्रिटेन से लेकर कनाडा तक के बड़े राजनेता किसान आंदोलन का समर्थन कर चुके हैं। तो फिर रियाना और ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट्स पर इतनी जबरदस्त प्रतिक्रिया क्यों? असल में बात यह है कि अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी गैर-राजनीतिक हस्तियों ने किसान आंदोलन पर बोलना शुरू कर दिया है जिनके करोड़ों फॉलोअर्स हैं। इनके बोलने का असर राजनेताओं या राजनयिकों के बोलने से अलग होता है। यही वजह है कि किसान आंदोलन के विरोधी ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट से इतने परेशान हैं। वे जानते हैं कि अब बात को कनाडा के सिख वोट बैंक की तरफ या फिर किसी और दिशा में मोड़ने से काम नहीं चलेगा। बात उससे कहीं आगे निकल चुकी है।

अपनी मानसिक स्थिति को "सुपरपॉवर" मानने वाली टीनेजर

ग्रेटा थनबर्ग कोई ऐसी टीनेजर नहीं है जिन्होंने स्कूल या कॉलेज या फिर यूनिवर्सिटी लेवल पर पर्यावरण संबंधी अंतर्राष्ट्रीय पोस्टर प्रतियोगिता जीत ली हो। पर्यावरण संरक्षण के मामले में ग्रेटा थनबर्ग एक बड़ा नाम है। वह 15 बरस की उम्र में तब सुर्खियों में आई थीं जब पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर उन्होंने अकेले ही स्वीडिश संसद के सामने धरना दिया था। ग्रेटा ने एक प्लैकार्ड पर "स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लाइमेट" लिखा था और उसे लेकर संसद के सामने बैठ गई थीं। देखते ही देखते स्कूली बच्चे उनके साथ जुड़ते चले गए। तब ग्रेटा तीन हफ्तों तक स्वीडिश संसद के सामने बैठी थीं। उन्होंने ट्विटर और इंस्टाग्राम के जरिए दुनिया को अपने विरोध प्रदर्शन के बारे में बताया। उनके सोशल मीडिया पोस्ट्स वायरल हो गए थे। तब से अब तक उनका अभियान दुनिया के साढ़े सात हजार शहरों तक पहुंच चुका है। आगे चलकर इस अभियान को "फ्राइडे फॉर फ्यूचर" के नाम से भी जाना गया, जिसमें स्कूली बच्चे हर शुक्रवार को पढ़ाई के बजाय पर्यावरण के जुड़े मुद्दों पर प्रदर्शन करते हैं। कोरोना महामारी के दौरान ऐसे प्रदर्शन तो नहीं हो सके मगर ग्रेटा थनबर्ग ने इंटरनेट के जरिए अभियान को जारी रखा।

पर्यावरण मुद्दों से जुड़े अपने अभियान के जरिए दुनिया भर में मशहूर होने वाली ग्रेटा थनबर्ग वही टीनेजर हैं जिन्हें नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया गया और जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में दुनिया भर से पहुंचे नेताओं से कहा था -

“ये सब गलत है। मुझे यहां नहीं होना चाहिए था। मुझे समंदर के उस पार स्कूल में होना चाहिए था। फिर भी आप सब हम युवाओं के पास उम्मीद लेकर आए हैं। आपकी हिम्मत कैसे हुई ! ”

अपनी बात रखने के इसी जोरदार अंदाज के लिए पहचानी जाने वाली ग्रेटा थनबर्ग ने ट्विटर पर किसान आंदोलन के समर्थन में अपील की तो इसे हल्के में नहीं लिया गया। बात सिर्फ कंगना रणौत के उस ट्वीट तक सीमित नहीं रही जिसमें उन्होंने ग्रेटा को "डम्बो किड" यानी मूर्ख बच्ची लिख दिया। भाजपा नेता मीनाक्षी लेखी ने भी कटाक्ष करते हुए ग्रेटा को "बाल वीरता पुरस्कार" के लिए नामित करने की बात ट्वीट में लिख डाली।

दरअसल, ग्रेटा थनबर्ग एसपर्गर्स सिन्ड्रोम से पीड़ित हैं। ऐसे बच्चे दूसरों के साथ ज्यादा घुलते-मिलते नहीं हैं। उनको मंदबुद्धि, डम्बो या कमजोर कहकर उनका मजाक उड़ाने और हल्के में लेने का चलन नया नहीं है। ग्रेटा ने कंगना और मीनाक्षी लेखी के ट्वीट्स से पहले भी इसका सामना किया है। अमेरिकी न्यूज चैनल फॉक्स न्यूज के माइकल नॉवेल्स अपने एक कार्यक्रम में ग्रेटा को "मेंटली इल" यानी मानसिक रूप से बीमार कह चुके हैं। इसी चैनल पर लॉरा इन्ग्राहम भी ग्रेटा का मजाक उड़ा चुकी हैं। इतना ही नहीं, मस्तिष्क संबंधी हर बीमारी को मंदबुद्धि मानने वाले लोगों ने उनकी इस स्थिति की आलोचना करते हुए उनके अभियान पर उंगलियां उठाई थीं। मगर, ग्रेटा ने इस सबका डटकर सामना किया था। उन्होंने अपनी मानसिक स्थिति को अपनी "सुपरपॉवर" बताकर आलोचकों का मुंह बंद कर दिया था।

फॉक्स न्यूज जैसे चैनल और अखबारों की कमी भारत में भी नहीं है। ग्रेटा की मानसिक स्थिति की मजाक बनाने वाले कंगना रणौत जैसे भी बहुत लोग हैं यहां। मगर, ग्रेटा इस बार भी अडिग दिख रही हैं। जब भारत में ट्विटर पर उनके लिए ऊटपटांग जुमले लिखे जा रहे थे और सूत्रों के हवाले से खबर आ रही थी कि दिल्ली पुलिस ने उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है (हालांकि, दिल्ली पुलिस का कहना है कि इस मामले में किसी को भी नामजद नहीं किया गया है) तब ग्रेटा थनबर्ग ने एक और ट्वीट करके साफ कर दिया कि वह अब भी किसान आंदोलन के साथ हैं। उन्होंने साफ कर दिया कि वह अपनी "सुपरपॉवर" इस्तेमाल कर रही हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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