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जंतर मंतर पर मनरेगा मज़दूरों का 100 दिन का धरना 60 दिन में क्यों ख़त्म हो गया?

दिल्ली के जंतर-मंतर पर इसी साल 13 फरवरी को शुरू हुआ मनरेगा मज़दूरों का सौ दिन का धरना अचानक 60 दिन में ख़त्म हो गया, आख़िर किन परेशानियों की वजह से ये धरना सौ दिन पूरे नहीं कर पाया?
workers protest

23 अप्रैल (रविवार) को दिल्ली के जंतर-मंतर पर अचानक महिला पहलवान एक बार फिर धरने पर बैठ गईं। जिस वक़्त वे भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष, बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए धरने पर बैठ रही थीं ठीक उसी वक़्त वहां चल रहे मनरेगा मज़दूर अपने सौ दिन के धरने को 60वें दिन ख़त्म कर उठ रहे थे।

हर तरफ़ महिला पहलवानों के धरने की चर्चा थी, देखते ही देखते जंतर-मंतर पर देश के कई छोटे-बड़े मीडिया हाउस और उनकी ओबी वैन जम गई। बहुत ही संजीदा आरोप एक बार फिर सुर्खियों में आ गया लेकिन इस बीच देश के दूरदराज के इलाकों से बारी-बारी कर आ रहे मनरेगा (Mahatma Gandhi National Rural Employment Guarantee Act) मज़दूरों की आवाज़ शायद दब गई।

कई राज्यों के मनरेगा मज़दूर जंतर-मंतर पहुंचे थे

मनरेगा के तहत सौ दिन की रोज़गार गारंटी वाली योजना के लिए सौ दिन के धरने का आयोजन किया गया था और इस दौरान कोशिश की जा रही थी कि धरना स्थल पर हर वक़्त कम से कम 100 मज़दूर मौजूद रहें। 13 फरवरी से शुरू हुए इस धरने में सबसे पहले बिहार के मनरेगा मज़दूर आए थे और फिर बारी-बारी से बंगाल, झारखंड, यूपी, कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल और तेलंगाना के। दरअसल इन मनरेगा मज़दूरों की कोशिश थी कि बजट सत्र के दौरान ही उनकी आवाज़ संसद तक पहुंचे लेकिन जिस तरह से इस बार बजट सत्र को ही 'ग़ायब' कर दिया गया वे अपने आप में ही कई सवाल खड़े करता है।

'सौ दिन' का धरना 60 दिन में क्यों ख़त्म हो गया?

आख़िर वे क्या वजह थीं जिसकी वजह से सौ दिन का धरना 60 दिन में ख़त्म हो गया? 'नरेगा संघर्ष मोर्चा' के बैनर तले हो रहे इस धरने से जुड़े राजशेखर से हमने बातचीत की। राजशेखर के मुताबिक जंतर-मंतर देश की वे जगह है जहां धरना-प्रदर्शन कर लोग अपनी आवाज़ सरकार तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं लेकिन उन्होंने महसूस किया कि प्रदर्शन की ये जगह भी अब बेहद पेचीदगी से मिलती है। उन्होंने हमें बताया कि :

* जंतर-मंतर पर धरने पर बैठने के लिए 10 दिन पहले संसद मार्ग पुलिस स्टेशन से इजाजत लेनी पड़ती है। और ये इजाजत 10 दिन में सिर्फ़ एक बार विरोध प्रदर्शन के लिए मिलती है।

* जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन का समय भी एक परेशानी थी क्योंकि यहां सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक ही प्रदर्शन करने की इजाजत है।

धरने को जारी रखने के लिए आगे की इजाजत मिलना कितना मुश्किल काम था ये राजशेखर ने हमें बताया। उन्होंने कहा, ''ये आंदोलन पहले दिन से ही चुनौतियों भरा रहा, जब हमने इसकी शुरुआत की थी तभी हमने ये तय किया था कि ये एक लंबे समय तक चलने वाला आंदोलन है क्योंकि मौजूदा सरकार एक दिन या दो दिन के धरने की आवाज़ तो सुनती नहीं है, तो जब हमने धरना शुरू किया तभी हमने कोशिश की कि एक साथ ही हमें पूरे (सौ दिन) प्रोटेस्ट की इजाजत मिल जाए लेकिन जब हमने संसद मार्ग के DCP से इसपर बात की तो उन्होंने साफ तौर पर ये कहते हुए मना कर दिया कि, ''हम एक दिन से ज़्यादा की इजाजत किसी को नहीं देते'' फिर हमें इस बहुत मुश्किल प्रक्रिया में जाना पड़ा। हमारे पास दिल्ली में लोग कम थे तो जो मजदूर आ रहे थे वे ख़ुद ही एक हफ्ते पहले आने वाले मज़दूरों के लिए जो अगले राज्य से आने वाले थे उनके लिए इजाजत लेते थे तो ये एक रिले (Relay) बेसिस पर परमिशन चल रही थी।

इसे भी पढ़ें: मनरेगा मज़दूरों के धरने का 50वां दिन: जंतर-मंतर पर क्यों गूंजा 'शेम छे, गेम छे'?

राजशेखर ये भी बताते हैं कि पुलिस को धरने के दूसरे-तीसरे दिन ही पता चल गया था कि मज़दूरों के लिए धरने पर बैठना और उसकी इजाजत लेना एक मुश्किल काम है। इसलिए उन्होंने मज़दूरों को परेशान करना शुरू कर दिया। जो मज़दूर आने वाले अगले राज्य के मज़दूरों के लिए इजाजत ले कर अपने राज्य लौट जाते थे उन्हें फोन करके परेशान किया जाता था। वे आख़िरी दिनों का एक किस्सा बताते हैं, ''आख़िरी समय में हिमाचल की एक साथी ने इजाजत ली थी। उनको एक मिनट के अंदर पुलिस स्टेशन से क़रीब 10 से 15 कॉल आई। वे इतना घबरा गई कि उन्होंने कहा कि प्लीज़ अब हमारा नाम मत दीजिएगा''।

''दिल्ली में आंदोलन करना आसान नहीं''

जिस परेशानी के बारे में राजशेखर बात कर रहे थे उसी परेशानी के बारे में हमें झारखंड में नागरिक संगठनों के राज्यव्यापी मंच 'झारखंड नरेगा वॉच' के संयोजक जेम्स हेरेंज ने भी बताया। वे भी जंतर-मंतर पर झारखंड के मनरेगा मज़दूरों के साथ आए थे लेकिन फिलहाल राज्य में जिला स्तर पर मनरेगा मज़दूरों की आवाज़ उठा रहे हैं। उन्होंने हमसे फोन पर बात की और कहा कि, ''पहले भी हमने जंतर-मंतर पर धरने दिए हैं लेकिन अब महसूस हो रहा है कि यहां धरना देना बहुत मुश्किल हो गया है। यहां किसी भी संगठन को धरने के लिए सिर्फ़ एक दिन की इजाजत मिल रही थी जो अपने आप में लोकतांत्रिक अधिकारों को संकुचित करने का प्रयास है। हमें धरने के लिए 10 दिन पहले अप्लाई करना होता था जो परेशानी भरा था क्योंकि आप अपना ध्यान धरने पर केंद्रित करेंगे कि इजाजत के लिए ऑफिशियल वर्क करेंगे। देश के दूसरे हिस्सों से आए लोगों (मनरेगा मजदूरों) के लिए यहां लंबा धरना देना मुश्किल हो गया है क्योंकि उन्हें ऑफिस की कार्रवाई समझ नहीं आएगी।''

जेम्स आगे उन गुज़रे सालों को याद करते हैं जब उन्होंने इसी जंतर-मंतर पर कई-कई दिनों तक धरने प्रदर्शन किए थे। वे बताते हैं, ''पहले हम लोग कई बार जंतर-मंतर पर धरना स्थल पर ही कई-कई दिनों तक रह जाते थे पर अब ये संभव नहीं है। हम एक कठिन दौर से गुजर रहे हैं, हमने नरेगा को लाने के लिए जिस तरह का संघर्ष किया था वे आज के वक़्त में आसान नहीं है। आज की तारीख़ में दिल्ली में आंदोलन करना सहज नहीं है''।

हालांकि वे बताते हैं कि वे राज्य स्तर पर इस आंदोलन को जारी रखेंगे, साथ ही वे कोशिश करेंगे की मनरेगा मज़दूरों की मांग 2024 में चुनावी मुद्दा बने और जब मजदूरों के घर नेता वोट के लिए पहुंचेगे तो उनसे पहले नरेगा पर ही सवाल किया जाए। जेम्स चिंतित हैं कि जिस तरह से नरेगा को संकुचित किया जा रहा है उसे टेक्नोलॉजी के भंवर में फंसा कर लोगों को थकाया जा रहा है। उससे ग़रीब परेशान होकर ख़ुद ही इस योजना से ख़ुद को अलग करने पर विवश हो रहे हैं।

धरने की मुख्य मांगे क्या थी?

धरने पर बैठे मनेरगा मज़दूरों की सबसे अहम मांगें थी:

* मनरेगा में NMMS (National Mobile Monitoring Software) से हाजिरी प्रणाली को वापस लिया जाए (यह ऐप आधारित प्रणाली है)।

* आधार आधारित भुगतान प्रणाली (ABPS) को वापस लिया जाए। 

* हर हाल में मनरेगा मज़दूरों को 15 दिन के अंदर मज़दूरी का भुगतान हो।

''मानसून सत्र में वापस आएंगे''

हालांकि धरने से जुड़े हमने कई और कार्यकर्ताओं से भी बात की और उन्होंने धरना ख़त्म करने की कुछ और वजह भी बताई। बिहार के 'जन जागरण शक्ति संगठन' के सेक्रेटरी आशीष रंजन से हमने फोन पर बात की। वे भी जंतर-मंतर पर मनरेगा मज़दूरों के जत्थे के साथ आ चुके थे। उन्होंने हमें बताया कि, ''असल में हम मानसून सत्र में वापस आने की तैयारी कर रहे हैं क्योंकि अभी सांसद (Member of Parliament) भी नहीं मिलते क्योंकि जब सेशन चलता है तो वे लोग भी दिल्ली में रहते हैं। उस वक़्त संसद में आवाज़ उठाना आसान रहता है तो इस तरह से हमने रणनीति के तहत तय किया कि मानसून सत्र में आएंगे तो हमारी आवाज़ बेहतर तरीके से उठ सकेगी, क्योंकि जिस तरह से सरकार की तरफ से प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी वे नहीं आ रही थी तो हमने सोचा हम उस वक़्त अपनी आवाज़ उठाएंगे जब वे असर करे क्योंकि अब तो धीरे-धीरे मीडिया का रुझान भी हमारी तरफ कम हो गया था''।

''धरने के नाम पर पूछताछ नहीं परेशान करते हैं''

'राजस्थान असंगठित मजदूर यूनियन' के ज्वाइंट सेक्रेटरी मुकेश गोस्वामी से भी हमने फोन पर बात की। उन्होंने भी जंतर-मंतर पर लंबे आंदोलन को चलाने के दौरान आई परेशानियों को बताया। उन्होंने कहा कि, ''परमिशन लेने के लिए पहले एप्लिकेशन देनी होती है उसके बाद इंटरव्यू जैसा होता है कि कितने लोग आएंगे, कहां से आएंगे, ये एक तरह से Interrogation जैसा होता है और तब जाकर परमिशन मिलती है। मान लीजिए कि अगर परसों मेरे नाम पर परमिशन है तो कल मेरे पास फोन आएगा कि कल DCP साहब आपसे मिलेंगे, मीटिंग करेंगे। फोन रखने के कुछ देर बाद फिर फोन आएगा कि आप पार्लियामेंट स्ट्रीट पुलिस स्टेशन आ जाओ, जाने में देरी होगी तो फिर फोन आएगा और जब हम जाएंगे तो हमें बैठा कर रखा जाएगा, DCP मिलेंगे भी नहीं बस उन्हें चेक करना होता है कि कोई व्यक्ति यहां दिल्ली में है कि नहीं। फिर नियम बना दिए गए हैं एक छोटे से हिस्से में बैठने की इजाजत देते हैं, और चार बजे आ जाते हैं भगाने के लिए। अभी तो रेसलर बैठे हैं तो सब ठीक है। यही कोई मज़दूर बैठा होता तो उसे पीट-पाट कर भगा देते। यहां प्रोटेस्ट करना बहुत ही मुश्किल और पेचीदा बना दिया गया है''। हालांकि मुकेश 100 दिन के धरने को पूरा करने की बात करते हुए कहते हैं कि, ''अभी हमारे 40 दिन बाकी हैं हम दोबारा जंतर-मंतर पर जाकर उन्हें ज़रूर पूरा करेंगे''।

60 दिन के धरने का क्या हासिल रहा?

हालांकि राजशेखर बताते हैं कि जंतर-मंतर पर चले 60 दिन के धरने का जो हासिल होना चाहिए था वे तो नहीं रहा लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्हें कुछ भी नहीं मिला। वे बताते हैं कि, ''आधार आधारित भुगतान प्रणाली (ABPS) की डेडलाइन 31 मार्च थी लेकिन अब उसे 30 जून कर दिया गया है तो ये धरने का ही असर माना जाएगा''। इसके साथ ही वे बताते हैं कि धरने के बाद हुई कई मीटिंग में ये भी माना गया कि ऐप बेस्ड हाजिरी में भी दिक्कत आ रही है लेकिन उस मुद्दे पर अब तक कोई भी एक्शन नहीं लिया गया है।

देश में किसी को भी भूखा न सोना पड़े इसलिए रोज़गार की गारंटी के साथ नरेगा को लाया गया था। सालों से ये योजना दूर-दराज के ग्रामीण भारत के ग़रीबों का एक सहारा बनी हुई है लेकिन जिस तरह से इस योजना को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है वे ग़रीबों के साथ एक खिलवाड़ दिख रहा है।

फिलहाल जंतर-मंतर पर महिला पहलवानों का धरना चल रहा है, वे रात-दिन वहां बैठे हैं, उनकी जिद के आगे पुलिस की इजाजत का क्या मोल है, ये पूरे देश ने देख लिया? लेकिन उनके समर्थन के लिए आ रहे लोगों की भीड़ को क़ाबू करने के लिए जिस तरह से जंतर-मंतर के आस-पास की गई बैरिकेडिंग की वेल्डिंग गई उससे साफ ज़ाहिर है कि लोकतंत्र में आवाज़ उठाना कितना मुश्किल है और ये आवाज़ जब देश के ग़रीब मज़दूरों की हो तो चुनौती कई गुना बढ़ जाती है।

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