भारत में ‘फ़्रिंज एलिमेंट’ रोज़मर्रा के जीवन पर इतने हावी क्यों हो गए हैं?

निलंबित भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा द्वारा पैगंबर पर की गई अभद्र टिप्पणी को लेकर दिल्ली और विभिन्न राज्यों में दायर की गई एफआईआर की याचिका पर सुनवाई करते वक़्त, सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को नूपुर शर्मा पर गरजते हुए कहा कि उनकी "गलत ज़ुबान" "अकेले" इस देश के माहौल को बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार है, और आज जो भी आज देश में हो रहा है उसके लिए वह खुद जिम्मेदार हैं।" सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर शर्मा की ग़लतबयानी को ही उदयपुर में दर्ज़ी की हत्या के लिए भी ज़िम्मेदार बताया।
सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा है कि नूपुर शर्मा को "राष्ट्र से माफी मांगनी चाहिए" और जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जेबी पारदीवाला की अवकाश पीठ ने सीधे सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के लिए उनको आड़े हाथों भी लिया है।
आज देश का लोकतंत्र ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां लोगों को सही और गलत में फ़र्क करने में दिक्कत खड़ी हो रही है। लोग अब यह भूल गए हैं कि देश के भीतर इतनी महंगाई क्यों है; बेरोज़गारी क्यों है, छोटे काम धंधे क्यों बंद हो रहे हैं, उपभोक्ता टैक्स इतना क्यों बढ़ रहा है, पेट्रोल-डीजल इंटना महंगा क्यों हो रहा है, घर की आमदनी क्यों कम हो रही है, गरीब और अधिक गरीब क्यों होता जा रहा है, आर्थिक मंदी के बावजूद देश के बड़े पूंजीपति और कॉर्पोरेट इतना मुनाफा कैसे कमा रहे हैं, क्यों बिना किसी डर के गरीब मुसलमानों और दलितों पर हमले तेज़ हो गए हैं।
जनता के मुद्दे
ज़ाहिर है जब आप जनता के मुद्दों पर बात करेंगे तो आप पाएंगे कि लोगों को बांटने वाले मुद्दे पीछे छूटने लगते हैं और जनता की एकता मजबूत होती है। पिछले दो वर्षों तक चले किसान आंदोलन की मिसाल लें, उन्हे आतंकवादी कहा गया, उन्हे अमीर किसानों का आंदोलन कहा गया, कहा गया कि विपक्षी दल अपनी राजनीति को पटरी पर लाने के लिए किसानों को उकसा रहे हैं। किसानों के खिलाफ हर तरह की अफवाह, सरकारी प्रचार मशीनरी और सत्ताधारी डाले के “फ्रिंज एलिमेंट्स” की तरफ से फैलाई गई लेकिन किसानों ने अपनी होंसला नहीं टूटने दिया और आंदोलन को मजबूती से ज़मीन पर जमा कर रखा और अंतत मोदी सरकार को झुकना पड़ा औई काले कृषि क़ानूनों को वापस लेना पड़ा।
जन आंदोलनों से सबक
70 और 80 के दशक में बड़े जन-आंदोलन होते थे। वामपंथी और समाजवादी आंदोलनों ने आम जनता में मजबूत पकड़ बनाई ली थी। इन आन्दोलनों के नेता इतनी कूवत रखते थे कि यदि सरकार कोई भी जन-विरोधी फैंसला लेती तो बड़े आंदोलनों के आगाज़ होने लगते थे। इन आंदोलनों का इतना असर था कि केंद में मजबूत सरकारों को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। फिर चाहे इंदिरा गांधी हों या फिर राजीव गांधी सबको जनता के फैंसले के आगे झुकना पड़ा। लोकतन्त्र को मजबूत करने के लिए आज इन आंदोलनों को फिर से नज़बूत करने की जरूरत है। यदि किसान आंदोलन इतना बड़ा जन-आंदोलन लड़ सकते हैं तो विपक्ष ऐसा आंदोलन क्यों नहीं खड़ा कर सकता है? देश को ऐसे विपक्षी पार्टियों और नेताओं की जरूरत है जो बिना किसी खौफ के जेल-भरो आंदोलन का नारा दे सके, जनता के हर तबके को आंदोलित कर सके और उन्हे लामबंद कर सके। जिन लोगों को लोकतन्त्र में विश्वास है उनके मुताबिक इस तरह के विपक्ष का उभरना लाजिमी है।
क्या लोकतंत्र ख़तरे में है?
किसी देश के लोकतंत्र की मजबूती का आकलन इस बात से किया जाता है कि देश की सभी संथाएं सार्वजनिक रूप से लोकतांत्रिक मानदंडों और मूल्यों का पालन करते हैं या नहीं। किसी भी देश में सत्ता चाहे किसी भी पार्टी कि हो यदि जनता या विपक्ष उस सरकार की आलोचना नहीं कर पाती है या आलोचना करने नहीं दी जाता है तो लोकतांत्रिक देश की नींव को पहला खतरा होने लगता है। इसके बाद यदि, सरकार के खिलाफ बोलने वालों को बदनाम किया जाता है या उनके खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल किया जाता है तो मान लीजिए कि लोकतन्त्र की नींव के लिए दूसरा खतरा खड़ा हो जाता है। और जब विपक्षी के नेताओं, मीडिया, बुद्धिजीवियों, एक्टिविस्टों, विभिन्न सामाजिक समूहों को निशान बनाया जाता है और उनके खिलाफ हुकूमत अपनी मशीनरी (सीबीआई, ईडी, इक्नॉमिक्स ओफ़ेन्स विंग, पुलिस आदि) का इस्तेमाल करती है तो समझ लीजिए कि लोकतन्त्र के सामने सामान्य से व्यापक और बड़ा खतरा पैदा हो जाता है। आज देश के भीतर लोकतन्त्र को खतरा अपने इस आखरी पड़ाव में पहुँच गया है जहां विपक्षी नेताओं के खिलाफ सरकारी दमन की मशीनरी का इस्तेमाल किया जा रहा है, मीडिया और एक्टिविस्टों को झूठे केसों में जेल में डाला जा रहा है।
धुर-दक्षिणपंथ का उदय
हाल के वर्षों में, दुनिया के विभिन्न देशों में धुर-दक्षिणपंथी ताकतों का कब्जा सत्ता पर हो गया है और भारत भी इससे अनूठा नहीं रहा है। जब किसी देश के भीतर सार्वजनिक विमर्श शातिर और पक्षपातपूर्ण बन जाता है तो लोकतांत्रिक राजनीति या व्यवस्था बिखरने लगती है। लोगों को एक साथ लाने के बजाय आधे-अधूरे सच पर आधारित जोरदार बयानबाजी की शैली समाज में क्रोध, घृणा और विभाजन को जन्म देती है। भारत में यह बयानबाजी ‘फ्रिंज एलेमेंट’ से नहीं बल्कि सत्ता में बैठे आला नेताओं की तरफ से शुरू हुई है और आज बिना किसी डर के सत्ताधारी पार्टी के नेता, मंत्री, प्रवक्ता और आम सदस्य खुले तौर पर धर्म के नाम पर नरसंहार का आह्वान करते नज़र आते हैं। पुलिस खड़ी तमाशा देखती है, कोर्ट अनभिज्ञ रहते हैं और जांच एजेंसियां इन गतिविधियों से अपनी नज़रें चुरा लेती हैं।
बेखौफ़ घृणा फैलाते ‘फ्रिंज एलिमेंट्स’
और नतीजतन, मुख्य धारा के राजनीतिक या धार्मिक नेता, नूपुर शर्मा, कपिल शर्मा, यति नरसिंह सरस्वती, प्रज्ञा ठाकुर, अनुराग ठाकुर जैसे लोग ‘फ्रिंज एलेमेंट’ बनकर एक पूरी क़ौम के क़त्ल करने का आहवान करने लगते हैं। सत्ता में बैठी सरकार उनके खिलाफ न तो कोई बयान देती है और न ही उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही करती है।
अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल
यह माहौल इसलिए भी बना है कि सत्तारूढ़ दल के राजनेता नियमित तौर पर न केवल विपक्षी दलों बल्कि उनके नेताओं, सामाजिक और एक्टिविस्ट्स समूहों के विरोध के खिलाफ भी अत्यधिक अवांछनीय और अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं। अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल कोई भी नेता करे, चाहे वह विपक्ष या सत्ता दल का हो उससे राजनीति का स्तर नीचे गिरता है। सीएए विरोधी आंदोलन और किसान आंदोलन के नेताओं के खिलाफ भी काफी अभद्र टिप्पणियों का इस्तेमाल किया गया। झूठे आरोपों में कार्यकर्ताओं को जेल में डाला गया। सीएए आंदोलन से जुड़े न जाने कितने कार्यकर्ता सलाखों पीछे पड़े हैं। किसानों के ऊपर लगे झूठे मामले अभी तक वापस नहीं लिए गए हैं।
जबकि होना तो यह चहाइए कि चुनाव प्रचार के दौरान आम जनता को बताना चाहिए कि उनकी सरकार क्यों महंगाई नहीं रोक पाई, बेरोज़गारी दूर करने के लिए उनके पास क्या कार्यक्रम है, अमीरी-गरीबी की खाई क्यों बढ़ रही है, जनता गरीब क्यों हो रही हैं और पूंजीपति क्यों दिन-प्रतिदिन अमीर होते जा रहे हैं।
उपरोक्त सभी सवालों का जवाब समाज के विभिन्न तबकों का एकजुट आंदोलन ही दे सकता है। यह वही राह होगी जिसे आज़ादी के बाद हिंदुतान के सबसे बड़े किसान आंदोलन ने दिखाई है।
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