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ईरानी महिलाओं का विद्रोह क्या एक बड़े बदलाव का सबब बनेगा

वर्षों का गुस्सा और अवसाद एक ज्वालामुखी का रूप ले चुका है। यह जनउभार ‘अरब स्प्रिंग’ से भी अधिक उग्र और व्यापक फलक वाला लगता है।
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Image courtesy : The State Hornet

ईरान में अब जो कुछ हो रहा है वह किसी विद्रोह से कम नहीं है। एक महिला महसा अमीनी के हिजाब पहनने का तरीका उसकी हिरासत में हत्या तक पहुंचा। अस्पताल में अमीनी की घायल देह की तस्वीरें सामने आने के बावजूद अली खामेनी सरकार द्वारा घटना की लीपापोती करने और दमन चक्र चलाने के प्रयास ने महिलाओं के आक्राश को दावानल की भांति भड़का दिया है। ईरान में आज एक ऐसा क्रांतिकारी उभार देखा जा रहा है जिसका नेतृत्व महिलाएं कर रही हैं; इसका तेवर राजनीतिक हो गया है। वे हज़ारों की संख्या में इस्लामिक तानाशाह खामेनी के खिलाफ ‘डेथ टू द डिक्टेटर’ ‘वुमन, लाइफ, लिबर्टी’ जैसे नारे लगाते हुए हिजाब जला रही हैं, अपने बाल कतर रही हैं, सर खोलकर निकल रही हैं और कटे बालों को सत्ताधारियों के मुंह के सामने हिला रही हैं। वे गोलियां खाते हुए भी लड़ रही हैं, मीडिया में लिख-बोल रही हैं और किसी भी हाल में आंदोलन से पीछे नहीं हटने को तैयार नहीं। बच्चों, छात्र-छात्राओं और पुरुषों ने भी इस जुझारू संघर्ष का पुरजोर साथ दिया है। वे औरतों के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए सड़कों पर मार्च कर रहे हैं और तानाशाही के अंत की मांग कर रहे हैं।

सरकार द्वारा आंदोलन के दमन के अमानवीय तरीके

प्रदर्शनों को रोकने के बर्बर तरीके अपनाए गए हैं। घटना को ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ और ‘दुखद’ बताकर सरकार अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहती है। पर आंसू गैस, बन्दूक के कुन्दे व स्टील बुलेट्स का प्रयोग और प्रदर्शनकारियों की अमानवीय तरीके से गिरफ्तारी आम बन गई हैं-आखिर ऐसा क्यों?

अगर हिरासत में हत्या नहीं हुई तो खामेनी को किस बात का डर सता रहा है? खबरों के अनुसार बड़ी संख्या में महिलाओं और बच्चों सहित 200 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। ईरान के हृयूमन राइटृस ऐक्टिविस्ट्स न्यूज़ एजेन्सी के अनुसार आंदोलन के प्रारंभ से अब तक कुल 240 लोग मारे जा चुके हैं; इसकी पुष्टि अभी बाकी है। तेहरान जंग की भूमि बन चुका है। पर सरकार ने इंटरनेट पर रोक लगाकर और मीडिया को दबाकर ऐसी स्थिति बना दी है कि सच्चाई सामने नहीं आ पा रही। फिर भी बीबीसी ने अपने तरीके से जांच-पड़ताल कर दावा किया है कि उसने 45 लोगों की शिनाख़्त कर ली है, जो गोली मारने से मरे हैं, जिसमें 12-18 वर्ष से लेकर 22-30 वर्ष और 62 वर्ष तक के लोग हैं। इनमें अधिकतर महिलाएं और बच्चे हैं।

कथित तौर पर 24 पत्रकार सही रिपोर्टिंग करने के लिए गिरफ्तर किये गए हैं और एक जवान 16 वर्षीय यूट्यूबर सरीना इस्माइलज़देह को भारी अस्त्र से पीटकर खत्म कर दिया गया है। एक वीडियो वायरल हुआ है कि मोटरसाइकिलों से बच्चे-बच्चियों का पीछा कर गोलियां चलाई गई हैं, जैसे अपराधी गिरोहों का एन्काउंटर किया जाता है। उनकी चीखों की आवाज़ रिकार्ड की गई है। 32 बच्चों के मारे जाने की ख़बर है-कुछ सामने से गोली मारकर और कुछ कुन्दों और लाठियों से पीट-पीटकर। ऐम्नेस्टी इंटरनेशनल ने बताया है कि सिस्तान बलुचिस्तान में 30 सितम्बर को बहुत सारे स्कूली बच्चे मारे गए। करमनशाह और पश्चिम अज़रबैजान में भी लोग मारे गए। आरोप है कि जातीय अल्पसंख्यकों को विशेष तौर पर टार्गेट किया गया, खासकर बलूची और कुर्द लोगों को, जो पहले से ही राजनीतिक हिंसा सहते आ रहे हैं। अब एविन जेल, जहां कई प्रदर्शनकारी थे, में आग लग गई है और 8 लोग मरे हैं तथा दर्जनों घायल हैं। चश्मदीद गवाहों का कहना है कि आग बुझी नहीं है और उसके कारण का पता नहीं चला है।

इतना न डराओ कि डर ख़त्म हो जाए

इतनी सब कार्रवाई के बाद भी लोगों में, यहां तक कि स्कूली बच्चों में डर नहीं है। कहा जाता है कि किसी को इतना न डराओ कि डर ही खत्म हो जाए। जो बच्चियां स्कूलों में बाल काटकर वीडियो बना रही थीं वो अब सड़कों पर हैं। इस क्रांतिकारी आंदोलन में महिलाओं और बच्चों का इस कदर राजनीतिकरण हुआ है, कि वे अब अमीनी की हत्या का ही बदला नहीं लेना चाहतीं, बल्कि 1979 की क्रांति के बाद से जारी तानाशाही को ही नेस्तनाबूत कर देना चाहते हैं।

अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में विश्वविद्यालयों के छात्रों ने आंदोलन का साथ दिया। तेहरान विश्वविद्यालय और शरीफ विश्वविद्यालय में छात्रों ने जुझारू प्रतिरोध संगठित किया। इस्फाहन, करमान, मशहद और तब्रीज़ के कैंपसों में भी भारी प्रदर्शन हुए। दो दशकों से शान्त पड़े छात्र आंदोलन में एक महिला की नैतिक पुलिस द्वारा हत्या के बाद अचानक उबाल आ गया है। यह एक महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में देखा जा रहा है, क्योंकि युवा शक्ति ही सत्ता के चूलों को हिला सकती है। उसका पूरा भविष्य सामने पड़ा है इसलिए वह किसी भी प्रकार का समझौता नहीं कर सकती। उसमें बदलाव की ललक आम लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक है।

इससे पहले 1999 जुलाई में जब एक उदारवादी अख़बार सलाम पर सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया था, छात्रों ने सरकार से जवाब मांगने के लिए प्रदर्शन किये थे। जवाब में कई छात्रावासों में छापे मारे गए थे और सैकड़ों छात्रों को गम्भीर चोटें आई थीं; एक छात्र की मौत भी हुई थी। विश्लेषकों का मानना है कि जिस देश में कोई राजनीतिक दल न हो, वहां अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का एक ही रास्ता बचता है-छात्रों के संगठन और उनका प्रतिरोध; और उसे दबाना इतना आसान नहीं है! आज कई सेलिब्रिटीज़ भी आंदोलन के समर्थन में आए हैं, जैसे गायक शर्विन हाजीपोर, जिनके गाने की पंक्ति है ‘‘फाॅर वुमन, फाॅर लाईफ, फाॅर लिबर्टी’’।

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क्यों ईरान का महिला आंदोलन थमने वाला नहीं

आइये हम ईरान के महिला आंदोलन के इतिहास को ज़रा समझें। 19वीं सदी के अन्त में ईरान में जो संवैधानिक क्रांति हुई थी (संसदीय व्यवस्था कायम करने के लिए), उसमें महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था पर अहिस्ता-आहिस्ता उन्हें घर की ओर धकेल दिया गया। इसके बावजूद जो शिक्षित महिलाएं थीं, उन्होंने लगातार काम करके बालिका विद्यालय खुलवाए, महिलाओं की पत्रिकाएं प्रकाशित कीं, महिलाओं को तेहरान से लेकर अन्य प्रान्तों तक एक नेटवर्क के जरिये संगठित किया; इस प्रकार ईरान के महिला आंदोलन का जन्म हुआ। जहां तक हिजाब का सवाल है, तो रज़ा शाह पहलवी, जिन्हें आधुनिक ईरान का निर्माता कहा जाता है, ने महिलाओं को हिजाब छोड़कर स्कार्फ पहनने के लिए प्रेरित किया था और 1936 में हिजाब पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। हिजाब पहनने पर गिरफ्तारियां हुई और हिजाब सार्वजनिक रूप से उतरवाए और उतारे गए। पर इसपर प्रतिक्रिया हुई क्योंकि महिलाओं को लग रहा था कि हिजाब पहनने या न पहनने का फैसला उनके हाथों में छोड़ दिया जाना चाहिये था। कुछ बुजु़र्ग महिलाओं को तो लगा कि बिना हिजाब के वे बाहर निकल नहीं सकतीं, क्योंकि ऐसे खुलेपन की उन्हें आदत ही नहीं थी। युवतियों को भी लग रहा था कि चयन का अधिकार उनसे छीन लिया गया था, जो कि सही नहीं था।

रज़ा शाह के दौर में पहला विश्वविद्यालय खुला जिसमें पुरुषों के साथ महिलाएं भी दाखिला ले सकीं। कुछ परिवर्तन पारिवारिक कानून में भी हुए और महिलाओं के हकों को तवज्जो दिया गया। इसका मकसद ज़रूर पश्चिम के आकाओं की नज़र में उठना रहा होगा, न कि औरतों की बेहतरी।

जिस तरह रज़ा शाह ने ईरान को अमेरिका का पिटठू देश बनाकर पश्चिमी संस्कृति को थोपने का प्रयास किया था, उसी का प्रतिफल था कि 1979 की क्रांति एक इस्लामिक क्रांति थी, जो अमेरिकी साम्राज्यवाद विरोधी थी। आज भी ईरान पर अपना दबदबा कायम करने के उद्देश्य से अमेरिका और यूरोप ‘आंदोलन की मदद’ करने के लिए प्रतिबंध लगाने से लेकर इंटरनेट सुविधा मुहय्या कराने की बात कर रहे हैं और एलन मस्क इसके लिए सहयोग करने पर तैयार है।

हमें समझना होगा कि साम्राज्यवादी ताकतों की ‘मदद’ के पीछे इरादा ईरान की महिलाओं की मुक्ति नहीं है और न ही ईरान में लोकतंत्र की स्थापना बल्कि वर्तमान सरकार को गिराकर अपनी जेबी सरकार को बैठाने की विस्तारवादी नीति। इसलिए ईरान की जनता को अपनी लड़ाई खुद की ताकत के बल पर लड़नी होगी।

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रज़ा शाह के पुत्र मोहम्मद रज़ा पहलवी ने शासन सम्भालने के 20 सालों तक महिला मुद्दों पर बात तक नहीं की। बावजूद इसके, महिलाएं अपने हकों का दावा करती रहीं, शिक्षा में आगे बढ़ती रहीं और कानून में बदलाव तथा देश को प्रभावित करने वाले निर्णयों में भूमिका के लिए संघर्ष करती रहीं।

ईरानी औरतों को 1963 में वोट देने और संसद सदस्य बनने का अधिकार मिला। इसके बाद 4 महिलाएं संसद सदस्य चुनी गईं और 2 सीनेट तक पहुंची। पर कैबिनेट में महिलाओं को जगह नहीं मिली। लेकिन 1976 के बाद से महिलाओं की साक्षरता में तीन गुना वृद्धि हो गई। प्राइमरी शिक्षा प्राप्त महिलाएं 2017 तक 99 प्रतिशत हो चुकी थीं। 2018 तक आते-आते काॅलेजों में 60 प्रतिशत महिलाओं का दाखिला हुआ ओर उच्च शिक्षा में महिलाएं 59 प्रतिशत थीं (जबकि 1978 में ये केवल 3 प्रतिशत थीं)। महिला कार्यशक्ति में भी बेतहाशा वृद्धि हुई। 1990 में 11 प्रतिशत से बढ़कर 2020 में यह 19 प्रतिशत तक पहुंच गई।

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1979 की क्रांति के बाद महिलाओं की स्थिति

1977 से मोहम्मद रज़ा के शासन के विरुद्ध काफी असंतोष बढ़ा जिसके कई कारण थे। इसमें एक था अमेरिका परस्ती या साम्राज्यवाद का पिट्ठू बनना और दूसरा मुद्रास्फीति के साथ व्यापक भ्रष्टाचार। 1979 के संघर्ष को इस्लामिक क्रांति या इन्कलाब-ए-इस्लामी कहा गया; इसमें महिलाओं की व्यापक हिस्सेदारी थी। वे सड़कों पर बहस करतीं, नारे लगातीं और प्रदर्शनों में पुरुषों के संग कन्धा से कन्धा मिलाकर लड़तीं।

क्रांति सफल हुई तो रज़ा ईरान छोड़कर निर्वासन में गया। जब आयातोल्ला खोमेनी ने शासन सम्भाला तब महिलाओं की आकांक्षाएं चरम पर थीं। पर उन्हें भारी निराशा हाथ लगी। इस्लामिक कट्टरपंथ दिन-ब-दिन मजबूत हुआ और औरतों को जो हक मिले थे, वापस छीन लिए गए। पारिवारिक सुरक्षा कानून रद्द हुआ-यानी अब पुरुष अपनी पत्नियों को मेल से तलाक दे सकते थे, उन्हें बच्चों का प्राकृतिक संरक्षक माना गया, पुरुषों को पत्नी के अलावा कितनी भी अस्थायी बीवियां रखने का हक मिला, मर्द अपने घर की औरतों को बाहर जाने से रोक सकते थे, महिलाओं से निर्णयकारी हक छीन लिया गया, हिजाब प्रथा पुनः लागू हुई और दकियानूसी विचारों का बोलबाला हो गया।

बार-बार क्यों ठगी गईं औरतें?

विडम्बना ये है कि महिलाओं को बार-बार इस्तेमाल किया गया पर हकों से वंचित रखा गया ।इराक के साथ युद्ध के समय मर्दों को घर छोड़कर जाना पड़ा था और युद्ध सेविकाओं सहित ढेर सारी भूमिकाओं में महिलाओं को लगाना पड़ा। 8 वर्षों तक औरतें परिवार ही नहीं, देश को सम्भाल रही थीं। इतिहास बताता है कि 6400 महिलाएं मारी गईं और हज़ारों घायल हुईं। उनके और युवा वर्ग के वोट से खामेनी जीतकर सत्ता में आए। पर महिलाओं को फिर ठगा गया, यहां तक कि मृत औरतों के स्मारक तक को हटा दिया गया। दूसरे, पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव और हस्तक्षेप के खिलाफ जो भावना थी वह आज तक इस्लामिक कट्टरपंथ के दबाव से नहीं उबर पायी है, इसलिए औरतें अपने को एक ऐसे जाल में फंसा महसूस कर रही हैं, जिससे निकले बिना उनका जीवन व्यर्थ मालूम पड़ता है।

पर अब सत्ता की चूलें हिल गई हैं

वर्षों का गुस्सा और अवसाद एक ज्वालामुखी का रूप ले चुका है। यह जनउभार ‘अरब स्प्रिंग’ से भी अधिक उग्र और व्यापक फलक वाला लगता है क्योंकि विदेश में रह रहे लाखों ईरानी लोग और उनके मित्र आज इस आंदोलन के समर्थन में खड़े हैं। वे चोरी से भेजे गए वीडियो शेयर कर रहे हैं, देश को बचाने का संदेश जन-जन तक पहुंचा रहे हैं और सोशल मीडिया संदेश भेजकर समथर्न जुटा रहे हैं।

विश्लेषकों का मानना है कि ये ईरान के इतिहास में एक ‘टर्निंग पाॅइन्ट’ है और सभी ईरान निवासियों ही नहीं बल्कि बाहर रह रहे डायास्पोरा को भी आंदोलनकारियों के साथ एक अजीब किस्म की सहानुभूति और एकरूपता महसूस हो रही है। उन्हें 1979 के इस्लामिक क्रांति का दौर याद आ रहा है जब उनमें से कई देश छोड़कर भागे थे। कई लोग बाद में भी तानाशाह शासन से बचने के लिए ईरान छोड़कर यूरोप, ब्रिटेन, अमेरिका, तुर्की और कनाडा में बस गए थे। पिछले कई हफ्तों से वे रात में इस चिंता और आशंका में सो नहीं पाते कि उनके अपने देश का क्या होगा। क्या यह आंदोलन खामेनी की सत्ता को उखाड़ कर फेंक सकेगा? क्या दमन और भी तीव्र होगा और दसियों हज़ार निर्दोष मारे जाएंगे? क्या सत्ता और भी अधिक क्रूर हो जाएगी और तानाशाही मजबूत होगी?

यूएस में रह रहीं इतिहासकार और महिला अधिकार ऐक्टिविस्ट नीना अंसारी कहती हैं, ‘‘ईरान में जेंडर अपार्थाइड है; ईरान में हम महिलाओं के विरुद्ध कानूनी जनादेश है। पर इस्लाम में महिला आज़ादी और हकों के लिए काफी गुंजाइश है। सत्ताधारी चाहें तो हमें इस्लामिक रिपब्लिक के भीतर सारे हक़ दे सकते हैं। आखिर ईरानी महिलाओं के लेखन को विश्व भर में ख्याति मिली है और लेखिकाओं को पुरस्कारों से नवाज़ा गया है। ईरान में महिलाएं चिकित्सक बनीं, पत्रकार और वैज्ञानिक बनीं, आरकिटेक्ट और फिल्मकार भी बनीं हैं, उन्होंने ओलंपिक तक में देश का नाम किया है। मरियम मिर्जाखानी को गणित का सबसे उच्च पुरस्कार, फील्ड्स मेडल तक मिला है, जो गणित का नोबल पुरस्कार है। हम कहां पीछे हैं? हमारी क्षमता को क्यों कम करके आंका जाता है? हमारी आकांक्षाओं का गला क्यों घोंटा जा रहा है?’’

हां, यह सच है कि कुरत्त-अल-ऐन ताहिरा, जो 19वीं सदी की कवयित्री थीं, ने लैंगिक बराबरी के लिए सबसे पहले आवाज़ बुलंद की थी। उन्होंने बाब धर्म का प्रचार करते हुए पहली बार बिना हिजाब के धार्मिक प्रवचन दिया था। पर 1852 में गला घोंटकर उनकी हत्या कर दी गई थी। उनकी परंपरा आज भी ज़िंदा है और नागरिक अधिकार अधिवक्ता नसरीन सोतोदेह, जो राजनीतिक बंदियों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के पक्ष में कानूनी लड़ाई लड़ती रहीं, को 38 वर्ष की कैद और 148 कोड़े लगाने की सज़ा सुनाई गई है पर उनका हौसला टूटा नहीं है। अमीनी की हत्या के बाद पत्रकार निलोफर हामदी को 21 सितम्बर को गिरफ्तार कर लिया गया और एविन जेल के एकान्त कारावास में रखा गया है, क्योंकि उन्होंने सबसे पहले महसा अमीनी के मरने की खबर अस्पताल से ट्वीट की थी। वह आज भी हिरासत में हैं। इलाहे मोहम्मदी एक ऐसी पत्रकार हैं जिन्होंने करचाक जेल में कैदियों की बदतर हालत के बारे में रिपोर्ट तैयार की थी; आज उनके लिखने पर 10 साल का प्रतिबंध है।

हमें जानकर हैरानी होगी कि ईरान में, विश्व भर में पत्रकारों की सबसे बड़ी जेल है और महिला पत्रकारों के लिए तो और भी बड़ी। पर ईरानी महिलाओं के रक्त में प्रतिरोध की परंपरा है; वे चुप नहीं रहेंगी। एक किशोरी ने अपनी दोस्त को बताया, ‘‘मां को मेरा आंदोलन में जाना पसंद नहीं, पर क्या हम ज़िन्दा हैं भी?’’ इसलिए इस बार औरतें आंदोलन का नेतृत्व कर रही हैं। कवयित्री ताहिरा के शब्दों को हर ईरानी औरत रोज़ दोहराती है- ‘‘तुम हमें जितनी जल्दी हो सके, खत्म कर दे सकते हो, पर तुम महिलाओं की मुक्ति को रोक नहीं सकते’’

(लेखिका एक महिला एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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