Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

क्या दहेज प्रथा कभी खत्म हो पाएगी?

वर्ल्ड बैंक ने भारतीय समाज में दहेज प्रथा के प्रचलन पर पिछले सप्ताह एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक अब भी भारत में तकरीबन 95% शादियां दहेज देने के बाद ही होती हैं।
क्या दहेज प्रथा कभी खत्म हो पाएगी?
Image courtesy : The Indian Express

आप भारत के किसी इलाके में चले जाइए। वहां जाकर नौजवान बेटी के बाप के चेहरे को देखिए। उनमें से अधिकतर बाप अपनी बेटी की शादी की चिंता में डूबे मिलेंगे। उनकी पूरी जिंदगी शादी के मकसद पर जाकर सिमटी हुई मिलेगी। दहेज की चिंता के पहाड़ तले उनके कंधे झुके हुए मिलेंगे।

वह हर वक्त इसी बारे में सोचते मिलेंगे किसी तरह एक अच्छे लड़के से उनकी बेटी की शादी हो जाए और जितनी दहेज की मांग की जाए उसकी भरपाई कर दी जाए।

लेकिन इसका उल्टा भी होता है। वही बाप जो अपनी बेटी के लिए दहेज की चिंता में मरा जा रहा था, अपनी बेटे की शादी करते समय मुंहमांगा दहेज मांगता है। अपने पुराने दिनों को याद नहीं करता कि वह कैसे दहेज के पहाड़ के तले दबा जा रहा था।

इस पूरी प्रवृत्ति का यही मतलब है कि दहेज को हमारा आम भारतीय जनमानस सही और गलत के खांचे में बैठ कर नहीं देखता। बल्कि वह दहेज को एक ऐसी प्रथा के तौर पर देखता है, जिसके बिना शादी नहीं हो सकती। दुल्हन के परिवार को दूल्हे को दहेज देना ही देना है। भले ही दहेज देने का स्वरूप उपहार में क्यों ना बदल जाए। लेकिन दहेज देना शादी करने के लिए जरूरी है।

यह बात महज राय के तौर पर रखी नहीं जा रही है। बल्कि आंकड़े भी हमें इसी निष्कर्ष पर ले जाते हैं। वर्ल्ड बैंक ने भारतीय समाज में दहेज प्रथा के प्रचलन पर पिछले सप्ताह एक रिपोर्ट प्रकाशित की है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक अब भी भारत में तकरीबन 95% शादियां दहेज देने के बाद ही होती हैं। यह रिपोर्ट साल साल 2006 में प्रकाशित हुई रूरल इकनोमिक एंड डेमोग्राफिक सर्वे पर आधारित है। जिसके जरिए साल 1961 से लेकर साल 2006 के बीच हुई 40 हजार शादियों का अध्ययन किया गया है। अध्ययन में इस्तेमाल की गई शादियां किसी एक ग्रामीण इलाके से जुड़ी हुई नहीं है बल्कि भारत के 17 राज्यों के ग्रामीण इलाकों से जुड़ी हुई है, जो भारत की 95 फ़ीसदी आबादी का हिस्सा है।

इस रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि साल 1961 में भारत में दहेज प्रथा को रोकने से जुड़ा कानून बन गया था। दहेज कानूनी तौर पर गलत घोषित कर दिया गया था। उसके बाद भी तकरीबन तकरीबन 95% शादियां दहेज लेने के बाद ही हुईं।

इन शादियों में दहेज की राशि इतनी अधिक होती है कि परिवारों की जिंदगी भर की बचत शादी में खर्च हो जाती है। सबसे अधिक दहेज की लेनदेन ऊंची जातियों में पाया गया। उसके बाद अन्य पिछड़ा वर्ग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों का नंबर आता है। राज्यों के लिहाज से देखा जाए तो दहेज लेन-देन के मामले में केरल का पहला नंबर है। यह उनके लिए सबसे अधिक चौंकाने वाली बात हो सकती है जो समाज की हर परेशानी का इलाज शिक्षा में देखते हैं। वह राज्य जो शिक्षा के मानक पर भारत के दूसरे राज्यों से कोसों आगे खड़ा है, उस राज्य की इतनी बुरी स्थिति कैसे? केरल के बाद हिमाचल प्रदेश पंजाब और गुजरात का नंबर आता है। तकरीबन भारत के सभी प्रमुख धर्मों में दहेज का प्रचलन बहुत ज्यादा है। इसमें हिंदू सिख क्रिश्चियन और मुस्लिम सभी शामिल हैं।

ठीक इसी तरह से साल 2021 के शुरुआत में भारत में शादी के बाजार और दहेज को लेकर एक और रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इस रिपोर्ट का नाम था मैरिज मार्केट एंड राइज आफ डाउरी इन इंडिया। यह रिपोर्ट 74 हजार शादियों की अध्ययन पर आधारित थी। इस रिपोर्ट का निष्कर्ष था कि साल 1930 के मुकाबले 1975 में दहेज कम नहीं हुआ बल्कि इसमें दोगुने का इजाफा हुआ। वास्तविक कीमतों के आधार पर 3 गुने का इजाफा। यानी दहेज प्रथा खत्म नहीं हुई। बल्कि दहेज के तौर पर लेनदेन में दोगुने से लेकर तीन गुने तक का इजाफा हुआ। 1975 के बाद दहेज औसत आकार कम हुआ लेकिन वह बना रहा। इसी रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि भारत में अभी भी 1 फ़ीसदी से कम तलाक होता है। यह आंकड़ा देखने में तो बहुत अच्छा दिखता है। लेकिन इस आंकड़े को जब भारत में महिलाओं की बदतर स्थिति के साथ जोड़कर पढ़ेंगे तो आपकी निगाहें घरेलू हिंसा की तरफ भी जाएंगी। दहेज से होने वाली मौतों की तरफ भी जाएंगी। इस लिहाज से तलाक के एक फ़ीसदी से कम के मामले को आप सही ढंग से पढ़ पाएंगे।

प्रेम पर भारत में सबसे अधिक फिल्में, कविताएं, कहानियां गढ़ी जाती हैं। हर इंसान प्यार का संदेश देते हुए मिल जाएगा। लेकिन हकीकत यह है कि भारत की 90 फ़ीसदी शादियां माता-पिता ही तय करते हैं। तकरीबन 80 फ़ीसदी शादियां जिले के भीतर ही होती हैं। यानी दूल्हा और दुल्हन की एक ही जिले से जुड़े होते हैं। तकरीबन 85 फ़ीसदी शादियां गांव के बाहर होते हैं। यानी गांव के भीतर शादी करने की मनाही है। तकरीबन 90 फ़ीसदी शादियों में दुल्हन को दूल्हे के परिवार के साथ रहना पड़ता है।

यहां आप पूछ सकते हैं कि आंकड़े तो साल  2008 तक की स्थिति बताते हैं। उसके बाद दुनिया बहुत बदली है। यह सवाल इस रिपोर्ट के रिसर्चरों के सामने भी रखा गया। तो इस रिपोर्ट पर रिसर्च करने वाले सदस्यों का जवाब था कि यह बात ठीक है कि बहुत सारे बदलाव हुए हैं। लेकिन भारत के आम जनमानस से जुड़े औरत और मर्द की भूमिका में किसी भी तरह का बहुत बड़ा संरचनात्मक बदलाव नहीं हुआ है। प्रथाएं अब भी गहरे तौर पर जमीन को पकड़कर बैठी हुए हैं। इसलिए सुविधाओं और जटिलताओं के मामले में दुनिया ने विकास कर लिया हो लेकिन मानव संसाधन की सोच अभी भी बहुत पिछड़ी हुई है।

अगर रिसर्च करने वाले इन लोगों की राय पर भरोसा नहीं हो रहा हो तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का डाटा पढ़िए। साल 2015 का आंकड़ा कहता है कि भारत में हर घंटे दहेज की वजह से एक औरत की मौत होती है। कहने का मतलब यह कि हर घंटे भारत में दहेज ना देने की वजह से एक औरत को मार दिया जाता है।

यह हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। उस समाज की कड़वी सच्चाई जो शादी को पवित्र बंधन के तौर पर मानता है। लेकिन  कभी भी शादी में दिए जाने वाले दहेज के बारे में नहीं सोचता। लड़की और लड़की के परिवार वालों की उस मानसिक प्रताड़ना और हिंसा को गलत नहीं ठहरता जो दहेज की वजह से उन्हें सहनी पड़ रही होती है। कभी भी इंसान के जीवन भर की मेहनत की बारे में नहीं सोचता, जिस मेहनत से बचत किए हुए पैसे को एक शादी में गवा देना पड़ता है।

यह सब हमारी संस्कृति के असहज करने वाले हिस्से हैं। लेकिन इस पर सब के सब सहज रहते हैं, कभी कोई असहज नहीं होता। बल्कि अब तो यह हमारे सामाजिक प्रतिष्ठा का हिस्सा बन चुका है। लोग बड़े घमंड और रौब से यह बताते हुए मिल जाते हैं कि उन्हें दहेज में बहुत पैसा मिला।

देश की सबसे बड़ी सेवा भारतीय प्रशासनिक अधिकारी से जुड़े कुछ लोगों को ही देख लीजिए। इनके बारे में कहा जाता है कि शादी के बाजार में इनका सबसे ऊंचा रेट होता है। कई नए नवेले प्रशासनिक अधिकारी जिनसे सत्य निष्ठा की उम्मीद की जाती है वह अपनी जिंदगी की ऐसी लड़ाइयों में अपना पूरा जीवन चरित्र दिखा देते हैं।

बहुत पहले इंडिया टुडे पत्रिका में कई प्रशासनिक अधिकारियों से बात करके दहेज पर एक रिपोर्ट छपी थी। इनमें से कईयों ने बड़ी शान से कहा कि उन की बाजार में कीमत है। आखिर उन्हें दहेज में बहुत ऊंचा पैसा क्यों ना मिले? हाल फिलहाल के बाजार में दहेज में भारत के इस मलाईदार परत की कीमत 10 से 15 करोड़ रुपये तक तय की जाती है।

इन सभी उदाहरणों को बताने का एक ही मतलब है कि हमारी समाज का बहुसंख्यक बोध दहेज को एक सामाजिक बुराई की तरह नहीं सोच सका है। इसी का परिणाम है कि पढ़े-लिखे प्रोफेसर और बड़े-बड़े अधिकारियों को अपनी बेटी की शादी करते समय उपहार के तौर पर चुपचाप मकान की रजिस्ट्री, गाड़ी की चाबी और तमाम तरह के फायदे दूल्हे को देने पड़ते हैं। जबकि इनसे इसका विरोध करने की उम्मीद की जाती है

समाज का सबसे संपन्न हिस्सा इसे गलत मान कर स्वीकार नहीं करता तो सबसे गरीब और कमजोर हिस्से से क्या अपेक्षा की जाए? यह गरीब और कमजोर हिस्सा भी अपने से ऊंचे तबके के जीवन को देख कर ही अपने जीवन के मापदंड तय करता है। इसलिए कमजोर वर्ग का दुख तो और अधिक गहरा है। वह मुश्किल से सालों साल काम करने के बाद दो तीन लाख रुपए इकट्ठा करते हैं। फिर उस पैसे को एक ही दिन शादी के आयोजन और दहेज में खर्च कर देते हैं। कई लोग खुशी खुशी शादी के इन आयोजनों का हिस्सा बनते हैं लेकिन कोई भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए इसे गलत मानकर रोकता टोकता नहीं है। यही हमारे समाज की सबसे बड़ी कमी है। इसी वजह से साल 1961 में दहेज को रोकने से जुड़ा कानून होने के बावजूद भी अभी तक यह पूरी मजबूती से हमारे समाज की सबसे गहरी जड़ों में समाया हुआ है। रिसर्च में मिले यह आंकड़े और भारत की राजनीतिक और आर्थिक प्रवृत्तियां कहीं से भी सहारा नहीं करती हैं कि आने वाले दिनों में दहेज पर किसी भी तरह का अंकुश लग पाएगा।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest