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पंजाब: अपने लिए राजनीतिक ज़मीन का दावा करतीं महिला किसान

पुरुषों और महिलाओं द्वारा पारंपरिक तौर पर जो भूमिका निभाई जाती रही है, उसमें आमूलचूल बदलाव देखने को मिला है, क्योंकि किसान आंदोलन में महिलाओं ने जमकर भागीदारी की है। हालांकि नेतृत्वकारी भूमिका में महिलाएं अब भी नहीं आ पाई हैं।
Punjab

चाहे लंबे वक्त से चल रहा किसान आंदोलन हो या अगले साल की शुरुआत में विधासनभा चुनावों को लेकर चल रही राजनीति, या फिर कांग्रेस नेतृत्व में नाटकीय बदलाव, पिछले कुछ वक़्त से पंजाब लगातार खबरों में है। 

लेकिन पिछले एक साल से दिल्ली की सीमा पर शांतिपूर्ण ढंग से बैठे पंजाब के किसान लगातार सुर्खियां बन रहे हैं, जो तीन केंद्रीय कृषि कानूनों का विरोध कर रहे थे और फ़सलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की वैधानिक गारंटी की मांग कर रहे हैं। (अब उनका संघर्ष नतीज़ा सामने ला चुका है, शुक्रवार को प्रधानमंत्री ने गुरु पर्व के मौके पर तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर दिया।)

लेकिन अब पूरे राज्य में पंजाब के किसानों का प्रदर्शन घर-घर चर्चा का विषय बन चुका है। बेइंतहा राज्य की बर्बरता का शिकार हुआ यह आंदोलन हमारे लोकतंत्र के संचालन की दरारें दिखा चुका है। प्रदर्शनकारियों के धैर्य की लगातार परीक्षा ली गई, चाहे वह दिल्ली में उनके प्रवेश के पहले बैरिकेडिंग लगाना हो या आंसू गैस, लाठी चार्ज, सड़कों को खोदना, सड़कों पर कीलें गाड़ना हो या फिर कोई दूसरा तरीका।

पंजाब में किसानों के संघर्ष ने अलग-अलग समुदायों के एकजुट होकर आगे आने की तस्वीर को पेश किया, जिन्होंने कभी सक्रिय, तो कभी निष्क्रिय समर्थन दिया। इस लंबे संघर्ष में महिलाओं भी पूरे जोश के साथ अपनी भागीदारी बनाए रखी। एकजुटता दिखाने के लिए प्रदर्शन में आना हो, तेजतर्रार भाषण देने हो, सामुदायिक रसोईयां चलानी हों, गांवों में महिलाओं को एकजुट कर जागरुक करना हो, रैलियां करनी हों या कृषि संकट के चलते जान देने वाले लोगों के लिए दुख जताने की कवायद हो, महिलाएं हमेशा जोर-शोर से आगे रहीं। लेकिन इसके बावजूद देश में किसानी के काम के लिए महिलाओं को मान्यता नहीं दी जाती है। 

2011 की नेशनल सैंपल सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक़, पंजाब में करीब़ 24 फ़ीसदी महिलाएं किसानी या इससे जुड़े हुए काम में लगी हैं। महिलाएं किसान, हल चलाने वाली, पशुओं का प्रबंध करने वाली, कृषि उत्पादों का प्रसंस्करण करने वाली और कृषि मजदूर हैं, लेकिन उन्हें किसान नहीं माना जाता।

मंसा जिले में दूरदराज के गांव खीवा में रहने वाली हरमैर कौर ने न्यूज़क्लिक से कहा, "हम पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में अपना पसीना बहाते हैं, हम अगर उनसे ज़्यादा नहीं, तो उनके बराबर काम करते हैं। अगर हम किसान नहीं हैं, तो क्या हैं? यह सिर्फ़ किसानों का प्रदर्शन नहीं है।" हरमैर कौर दिल्ली में टिकरी बॉर्डर पर प्रदर्शन में मौजूद थीं और वे एक ऐसी दुर्घटना में बाल-बाल बचीं, जिसमें उनके तीन दोस्तों की मौत हो गई।

56 साल की हरमीत कौर का मानना है कि किसान प्रदर्शन से लोग आपस में करीब़ आए हैं। जाति, वर्ग, दलित, भूमिहीन मजदूर संघ, महिलाएं, कृषि पृष्ठभूमि वाले छात्र और दूसरे लोग आपस में एकजुट हुए हैं,  क्योंकि यहां आजीविका दांव पर थी। हरमैर कौर कहती हैं, "यह किसी एक या किसी दूसरे की लड़ाई नहीं है, यह हमारी लड़ाई है।"

तीन दोस्तों की मौत और चौथे दोस्त के गंभीर तौर पर घायल होने की घटना ने हरमैर कौर की प्रदर्शन में हिस्सा लेने की इच्छाशक्ति को कमजोर नहीं किया है, वह कहती हैं, "साड्डा जोश होर वाड गया है (हमारा जोश और भी बढ़ गया है)।"

देश ने पंजाब से आई महिलाओं की संख्या देखकर उनकी ताकत देखी। 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौक पर दिल्ली सीमा पर जाने वाली सभी सड़कें पीले रंग से रंग गई थीं। अनुमान लगाया गया कि दिल्ली की सिंघु, टिकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर एक लाख से ज़्यादा महिलाएं मौजूद थीं। 

पीला दुपट्टा डालें महिलाएं किसानों से एकजुटता दिखाने के लिए दिल्ली की तरफ जाते हुए "मेरा रंग दे बसंती चुनियां मैये" गा रही थीं, जो मेरा रंग दे बसंती चोला गाने से प्रेरित था, जो क्रांतिकारी भगत सिंह से जुड़ा गाना है। इस तरह यह महिलाएं किसानी में अपने आधे दावे का दावा कर रही थीं।

मंसा जिले के भीतरी इलाकों से जाते हुए किसी को भी उन तीन महिलाओं के पोस्टर आसानी से नज़र आ जाते, जिन्होंने टिकरी बॉर्डर पर 28 अक्टूबर को एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना में अपनी जान गंवा दी थी। बैनर में लिखा था "श्रद्धांजलि समारोह"। बैनर में सवाल करते हुए पूछा गया था कि कृषि कानूनों से मुक्ति के लिए और कितने बलिदान देने होंगे, साथ ही लिखा था, "शहीदां तौडे काजा धूरा इलाके जे करेंगे पूरे (शहीदों ने जो काम अधूरा छोड़ा है, हम उसे पूरा करेंगे)।" 

शहीद हुई महिलाओं ने ना केवल दूसरी महिलाओं बल्कि पूरे समुदाय से सम्मान हासिल किया है। प्रभावित परिवारों को मदद करने के लिए गांव वाले आगे आए हैं। महिलाएं गर्व के साथ प्रदर्शनकारियों के साथ एकजुटता दिखा रही हैं और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हुई हैं। यह वह बदलाव है, जो गांवों में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। 

बीकेयू-आई (उगरहां समूह) की महिला कार्यकर्ता और नेता हरमिंदर बिंदू बठिंडा के खुर्द बाचो गांव में कहती हैं कि किसानों के संघर्ष की सफलता महिलाओं और पुरुषों के बीच बदलते संबंधों के चलते आई है। वह कहती हैं, "महिलाओं ने देखा है कि पुरुषों ने घर के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया है, ताकि महिलाएं प्रदर्शन स्थल पर उनकी जगह ले सकें। उनका मानना है कि अब यह संबंध आपसी सम्मान और एक दूसरे पर निर्भरता के बनते जा रहे हैं। अब महिला किसानों को मान्यता दी जा रही है, उन्हें सुना जा रहा है।"

बदली है शहरी तस्वीर 

गांवों से दूर शहर में, यूनिवर्सिटीज़ में अब महिलाएं पुरुषों की संख्या में बहुत ज़्यादा हैं। तृतीयक शिक्षण में 48.4 के राष्ट्रीय औसत की तुलना में पंजाब में 51.1 फ़ीसदी लड़कियां उच्च शिक्षा में नामांकित हैं। क्या यह लैंगिक समता की तरफ एक और कदम है या यहां भी कुछ और कहानी है।

एक ऐसी यूनिवर्सिटी में जहां लड़कियां, लड़कों से ज़्यादा हैं, वहां युवा लड़कियों का मत है कि यूनिवर्सिटी शिक्षा या डिग्री उनके लिए आइलेट्स की परीक्षा पास करने का ज़रिया बनेगी और वे कनाडा जा सकेंगी, जहां वे अपने भाईयों और माता-पिता की मदद कर सकेंगी, ताकि एक बेहतर जिंदगी बनाई जा सके। चाहे वह कनाडा में हो या उनके खुद के कस्बों में।

पश्चिमी देश कनाडा पंजाब के लोगों की पसंदीदा जगह है। कनाडा जाने के लिए कैसे वीज़ा लें, इसके लिए गांवों-गांवों में होर्डिंग, पोस्टर लगे हुए हैं। 

लेकिन एक लड़की का कहना है, "मैं अकेली नहीं हूं, जिसके ऊपर आइलेट्स में पास होने का दबाव है। हममें से ज़्यादातर का अपने भविष्य के बारे में फ़ैसला करने का हक़ नहीं है। अगर हम अडिग होंगे, तो हमें घर पर हिंसा, यहां तक कि ऑनर किलिंग के डर का भी सामना करना पड़ सकता है।" 

चंडीगढ़ स्थित सेंटर ऑफ़ वीमेन स्टडीज़, पंजाब यूनिवर्सिटी की पाम राजपूत ने न्यूज़क्लिक को बताया कि यूनिवर्सिटी में महिलाओं की भागीदारी में इज़ाफा हुआ है। लेकिन अब भी लैंगिक समता के लिए लंबा रास्ता तय किया जाना बाकी है। उनके मुताबिक़ नामित प्रत्याशियों के लिए महिला छात्राएं मुख्य प्रचारक बनकर उभरी हैं। लेकिन इसके बावजूद छात्र चुनावों की शुरुआत के बाद से अब तक सिर्फ़ एक बार ही महिला अध्यक्ष चुनी गई है। राजपूत का कहना है कि अब भी एक महिला को अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। वह कहती हैं, "वह अब भी दूसरे दर्जे की नागरिक हैं जिसे पंजाब के इस पितृसत्तात्मक समाज में कहीं भी जाने के लिए अनुमति की जरूरत पड़ती है, सिर्फ़ गुरुद्वारे और मंदिरों को छोड़कर।"

फिर सवाल उठता है कि क्या महिलाओं की स्थिति में सुधार आया है? क्या आमूलचूल परिवर्तन लाने वाले बदलाव हैं? क्या यह लंबे वक्त तक रहेंगे? क्या राज्य में रहने वाली महिलाएं एक ऐसे जीवन के बारे में कल्पना कर सकती हैं, जहां अपनी सही जगह की उम्मीद के लिए उन्हें हिंसा का सामना नहीं करना पड़ेगा, जहां वे घरों में बिना डर और बाहर बिना उत्पीड़न के रह पाएंगी व सामाजिक-आर्थिक तौर पर समान स्थिति में आ पाएंगी? या सिर्फ यह एक फौरी राहत है, ना कि कोई नई शुरुआत?

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Punjab: Women Farmers, Students are Claiming Political Space for Themselves

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