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मज़दूर-किसान संघर्ष रैली: “जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष करेंगे तेज़”

दिल्ली के रामलीला मैदान में 5 अप्रैल की 'मज़दूर-किसान संघर्ष रैली' पूरे देश में संघर्ष के आह्वान के साथ संपन्न हुई। किसानों और मज़दूरों के साथ ही आम जनता भी इस 'संघर्ष रैली' में शामिल हुई।
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दिल्ली के रामलीला मैदान में 5 अप्रैल की 'मज़दूर-किसान संघर्ष रैली' पूरे देश में संघर्ष के आह्वान के साथ संपन्न हुई। इस विशाल रैली में देशभर से लाखों की संख्या में किसान-मज़दूर, रेल, बस और अन्य वाहनों से आज सुबह दिल्ली के रामलीला मैदान पर पहुंचे। किसानों और मज़दूरों के साथ ही आम जनता भी इस 'संघर्ष रैली' में शामिल हुई।

किसान-मज़दूर एकता की मिसाल इस रैली में आम सभा को किसान, खेत मज़दूर और मज़दूर संगठनों के राष्ट्रीय नेताओं ने संबोधित किया। रैली शुरू होने से पहले सांकृतिक कर्मियों ने मज़दूरों के हक़ में नाटक प्रस्तुत किए और कई जन कवि और गायकों ने गाने भी गाए।

इस रैली में देशभर के अलग-अलग हिस्सों से अलग-अलग क्षेत्रों में उत्पादन और सेवा में लगे लोग जुटे थे। एक तरफ जहां बड़ी संख्या में किसान और खेत मज़दूर जुटे तो वहीं देशभर के उद्योग मज़दूर और कर्मचारी भी दिल्ली पहुंचे। इसके अलावा बड़ी संख्या में महिला स्कीम-वर्कर्स भी अपनी कई मांगों के साथ इस संघर्ष रैली का हिस्सा बनीं।

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देश के पूर्वी राज्य असम से भी महिला स्कीम वर्कर्स का एक जत्था दिल्ली पहुंचा था। बसंती झा जो अपनी अन्य आंगनवाड़ी-कर्मचारी साथियों के साथ आईं थीं, वो बताती हैं कि उन्हें छह से आठ घंटे काम करने पर महज़ 6500 रूपये मिलते हैं और सहायिका को केवल 3200 रूपये ही मिलते हैं। उनका कहना है कि जबकि आजकल एक निर्माण मज़दूर को भी 500 रूपये मिलते हैं। ये अकेले असम के स्कीम वर्कर्स की बात नहीं बल्कि बिहार से लेकर हरियाणा और पंजाब के स्कीम वर्कर्स भी अपनी कई मांगों के साथ इस रैली में बुलंद तरीके से अपने विरोध दर्ज करा रहे थे। इनकी कॉमन मांगों में, न्यूनतम वेतन और कर्मचारी का दर्जा देने की मांग शामिल थी।

बिहार से सत्तर वर्षीय किसान अब्दुल भी अपने गांव के साथी-किसानों के साथ दिल्ली आए थे। वो अपनी फसल के उचित दाम की मांग लिए दिल्ली पहुंचे थे। वो कहते हैं, "सरकार हमें चार महीने पर 2 हज़ार रूपये खैरात के रूप में दे रही है लेकिन हमें हमारी फसलों का दाम नहीं देती है। अगर सरकार हमें हमारी फसल का उचित दाम दे दे तो हमें किसी मेहरबानी की ज़रुरत नहीं पड़ेगी।”

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बिहार के अलावा राजस्थान के भरतपुर ज़िले के किसानों और मज़दूरों का एक जत्था दिल्ली पहुंचा जिसमें बड़ी संख्या में महिला मज़दूर थीं। ये महिला मज़दूर मनरेगा के साथ ही खेत में भी मज़दूरी करती हैं। इस जत्थे में आए सभी मज़दूर अपने लिए मकान की मांग कर रहे थे क्योंकि इनका आरोप है कि इन्हें कई बार प्रधानमंत्री आवास योजना के लिए आवेदन करने के बाद भी आवास नहीं मिला है।

भरतपुर की ही 30 वर्षीय रेखा जो विधवा हैं, वो अपनी पीड़ा बताते हुए भावुक हो गईं और कहा कि उनका कोई सहारा नहीं है और सरकार उन्हें विधवा पेंशन भी नहीं देती है।

अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) के महासचिव विजू कृष्णन ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए बताया, "मोदी सरकार को देशभर के आमजन ने किसानों की आय दो गुनी करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य समेत कई वादों पर सत्ता में चुनकर भेजा था। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार, सब्सिडी वाले इनपुट, सस्ते ऋण और फसल के नुकसान का बीमा देना या यूं कहें कि मुख्य रूप से कृषि संकट को दूर करने के वादे के साथ भाजपा सत्ता में आई थी। हालांकि, इनमें से आजतक कोई भी वादा पूरा नहीं हुआ।”

वे आगे कहते हैं, "अगर हम मोदी सरकार के पिछले 9 वर्षों के आंकड़ों को देखें, तो 1 लाख से अधिक किसानों और खेत मज़दूरों ने आत्महत्या की है। इसी अवधि में ढाई लाख दिहाड़ी मज़दूरों ने भी आत्महत्या की है। वे भी कृषि पृष्ठभूमि से आते हैं। इससे पता चलता है कि कृषि संकट कितना गंभीर हो गया है और इस सरकार ने संकट को हल करने के लिए कुछ भी नहीं किया।”

कृष्णन कहते हैं, "जबसे मोदी सरकार ने शपथ ली है तब से किसानों और श्रमिकों पर हमले लगातार बढ़ रहे हैं। पहले भूमि अधिग्रहण विधेयक लाया गया, फिर तीन कृषि बिल और महामारी के दौरान चार श्रम संहिताएं पेश की गईं। हमने विभिन्न संघर्षों की शुरुआत की और भूमि अधिकार आंदोलन का गठन किया। अंत में, सरकार को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश पर झुकना पड़ा। फिर कृषि विधेयकों के ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ने के लिए अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का गठन किया गया। हमारे मजबूत संघर्ष के चलते सरकार को कृषि क़ानूनों को भी निरस्त करना पड़ा।”

उन्होंने आगे कहा, “जब भी किसानों और मज़दूरों की एकता स्थापित होती है, इसे भंग करने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लिया जाता हैं। यही कोशिश चार दिन पहले हुई थी जब बिहार में मस्जिदों और मदरसों को निशाना बनाने के लिए रामनवमी के जुलूसों का इस्तेमाल किया गया।"

यह पूछे जाने पर कि क्या किसी सरकारी अधिकारी ने मांगों को लेकर उनसे संपर्क करने की कोशिश की, इसपर कृष्णन ने कहा कि, "उनका कोई संपर्क नहीं हुआ। यह सरकार के अहंकार को दर्शाता है। लोगों, संविधान और देश के अधिकारों को बचाने के लिए इसे पराजित किया जाना चाहिए।”

बुनियादी मांगें दोहराई गईं

रैली में मज़दूरों और किसानों ने देश की मेहनकश जनता की बुनियादी मांगों को दोहराया। उन्होंने न्यूनतम वेतन 26 हज़ार रुपये प्रति माह करने, सभी श्रमिकों को 10 हज़ार रुपये की पेंशन सुनिश्चित करने, गारंटीकृत खरीद के साथ सभी कृषि उपज के लिए C2+50 प्रतिशत पर MSP की कानूनी गारंटी देने, चार श्रम संहिताओं और बिजली संशोधन विधेयक 2020 को खत्म करने, शहरी क्षेत्रों में विस्तार के साथ मनरेगा के तहत 600 रुपये प्रति दिन की मज़दूरी पर 200 कार्यदिवस प्रदान करने, गरीब और मध्यम किसानों और कृषि श्रमिकों को एकमुश्त ऋण माफी देने जैसे मांगों को प्रमुखता से उठाया।

इसके अलावा किसान-मज़दूरों ने एक स्वर में, पीएसयू के निजीकरण को रोकने, एनएमपी को खत्म करने, अग्निपथ को खत्म करने, मूल्य वृद्धि व महंगाई को रोकने, पीडीएस को मजबूत करने व सार्वभौमिक बनाने, सभी श्रमिकों के लिए 10 हज़ार रुपये पेंशन और अमीरों पर टैक्स लगाने की मांग की।

अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव विक्रम सिंह ने कहा, "इतनी बड़ी लामबंदी की प्रासंगिकता सरकारी योजनाओं के माध्यम से उन पर हो रहे हमले को रोकने में ही है। यह सर्वविदित है कि मशीनीकरण के बाद कृषि श्रमिकों की न्यूनतम मज़दूरी काफी प्रभावित हुई है। इसलिए, इस रैली से हमारी सबसे बड़ी उम्मीद है कि केंद्र तक हमारी आवाज़ पहुंचे कि खेत मज़दूर को अपनी आजीविका की रक्षा के लिए एक केंद्रीय कानून की सख्त ज़रुरत है।”

विक्रम आगे कहते हैं, “हमारे लोग इस उम्मीद के साथ आए हैं कि मनरेगा में फंड कटौती के रूप में उनके साथ जो अन्याय हुआ उसे सुधारा जाएगा और यह कोई बड़ा काम नहीं है। हमें उम्मीद है कि यह सरकार खाद्य सब्सिडी को खत्म करने की साज़िश नहीं करेगी, बल्कि इसके बजाय, यह सभी के लिए उपलब्ध होनी चाहिए। हमारे पास महाराष्ट्र से ताज़ा उदाहरण हैं जहां राशन के बदले कैश देने का प्रयास किया जा रहा है। हम इसे कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे।"

विक्रम एक भावनात्मक किस्सा सुनाते हैं कि, "सोलंकी नाम की एक खेत मज़दूर ने महाराष्ट्र के जालना ज़िले में गन्ने के एक खेत में अपने बच्चे को जन्म दिया क्योंकि वह घर पर नहीं रह सकती थी या अस्पताल में देखभाल का खर्च वहन नहीं कर सकती थी। खेत मज़दूर परेशान हैं क्योंकि मज़दूर ये उम्मीद कर रहे थे कि कटाई के मौसम में उन्हें कुछ काम मिलेगा। बेमौसम बारिश ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। किसानों को कुछ मुआवज़ा मिल सकता है लेकिन अगर राशन डिपो राशन नहीं देंगे तो खेतिहर मज़दूर भूखे सोने को मजबूर होंगे।”

दैनिक वेतन के रूप में 600 रुपये की मांग के बारे में पूछे जाने पर, सिंह ने कहा कि शहरी मज़दूरी पर विचार करने के बाद यूनियनें इस आंकड़े पर पहुंचीं। वो कहते हैं, "शहरी इलाकों में सरकारें आमतौर पर 700 रुपये दिहाड़ी के हिसाब से मज़दूरी लगाती हैं। यह समझ में आता है कि शहरी क्षेत्रों में रहने की लागत अधिक है। हालांकि खेत मज़दूरों को भी ग्रामीण क्षेत्रों में किराए का भुगतान करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उनके पास अपने घर हैं। पर हमने पाया कि अगर उनके पोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य का ख्याल रखना है तो उन्हें 600 रुपये दिहाड़ी के रूप में दिए जाने चाहिए।

"मैं केवल यह याद दिलाना चाहता हूं कि कृषि श्रमिकों के लिए पोषण एक दूर का सपना है। उनकी पहली ज़रुरत भोजन है। आज उनकी थाली से पोषण गायब है। क़रीब पचास प्रतिशत आबादी कुपोषित है लेकिन ये कौन हैं? ये यही खेतिहर मज़दूर हैं। यह बड़ी विडंबना है कि हमारे गोदाम लाखों टन अनाज से भरे हुए हैं। फिर भी लोग भूखे हैं। सिस्टम में एक गैप है और इस गैप को यह रैली संघर्ष के ज़रिए भर देगी।

किसान सभा के उपाध्यक्ष अमराराम ने कहा, "आने वाले समय में हम जनहित के लिए आमजन, किसान और मज़दूर को साथ लेकर अपनी आवाज़ और बुलंद करेंगे और मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष को तेज़ करेंगे।

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