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मानवाधिकारों के संघर्ष को जन आंदोलन बनाने की ज़रूरत

भारत में नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन आज़ादी के बाद से ही जारी है। हमारे यहां जनतंत्र लगातार सिकुड़ता गया।
world human rights day
फ़ोटो साभार : Down To Earth

10 दिसम्बर को समूचे विश्व में विश्व मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है।10 दिसम्बर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का एक घोषणापत्र भी ‌जारी किया था जिसमें घोषणा की गई थी-”विश्व का प्रत्येक मानव मानवाधिकार का हकदार है।” यह दुनिया का सबसे अधिक व्याख्यात्मक दस्तावेज़‌ है। इसमें पहली बार मानवाधिकारों को सार्वभौमिक रूप से संरक्षित करने का‌ प्रस्ताव किया गया था। इस वर्ष 2023 में ‌उसकी‌ 75वीं वर्षगांठ है और उसका नारा है- ''सभी के लिए स्वतंत्रता, समानता और न्याय।'’ मानवाधिकारों के इस घोषणापत्र के विकास की एक लम्बी यात्रा है।

यूरोपीय तानाशाहियों के जनवादी रूपांतरण का ऐतिहासिक रास्ता मानव स्वतंत्रता के तीन महत्वपूर्ण अंगों के सफलतापूर्वक दावे पर टिका है-

(क) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

(ख) स्वेच्छाचारी तरीक़े से गिरफ़्तारी से स्वतंत्रता।

(ग) जेल में हिंसा से स्वतंत्रता।

इन स्वतंत्रताओं के राज्य के विरुद्ध अनुल्लंघनीय नागरिक और राजनीतिक अधिकार की स्वीकृति उदारवादी जनतंत्रों के विकास (पहले यूरोप में और बाद में अन्य उन्नत देशों में) का ऐतिहासिक पड़ाव रहा है। मानवाधिकारों के अवधारणा के विकास की इस प्रक्रिया में इंग्लैंड के मैग्ना कार्टा (1215),पेटीशन ऑफ राइट्स (1627) और बिल ऑफ राइट्स (1688), फ्रांस के मनुष्यों और नागरिकों के अधिकारों की उद्घोषणा (1791) जो फ्रांसीसी क्रांति के बाद अधिग्रहित की गई थी और विशेषकर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के बिल ऑफ राइट्स (1787) का विशेष उल्लेख होना चाहिए। वे नागरिक और राजनीतिक अधिकार मानवाधिकारों की आधुनिक अवधारणा की पहली पीढ़ी के स्रोत हैं। बोल्शेविक नारे “रोटी, ज़मीन और सारी सत्ता सोवियत को” के तहत हुई रूसी क्रांति ने सोवियत बिल ऑफ राइट्स को प्रेरित किया जिसने सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर प्रधानता दी और जो अन्त में जाकर मानवाधिकारों की सबसे विशद और मूलभूत स्वीकृति के रूप में 1937 के सोवियत संविधान में सामने आया। इन घटनाक्रमों ने और युद्ध के बाद उत्पन्न हुई औपनिवेशिक दुनिया के आत्मनिर्णय, नस्लीय और लिंग के आधार पर भेदभाव की चिन्ता ने 10‌ दिसम्बर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में मानवाधिकारों की सार्वभौमिक उद्घोषणा (यूडीएचआर) को स्वीकार करने का रास्ता साफ़ किया जिस पर भारत समेत अन्य देशों ने हस्ताक्षर किए।

सब लोग गरिमा और अधिकार के मामले में स्वतंत्र और बराबर हैं अर्थात सभी मनुष्यों को गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतंत्रता और समानता प्राप्त है। उन्हें बुद्धि और अन्तरात्मा की देन प्राप्त है। प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के सभी प्रकार के अधिकार और स्वतंत्रता दी गई है। नस्ल, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या अन्य विचार, राष्ट्रीयता या सामाजिक उत्पत्ति, संपत्ति, जन्म आदि जैसी बातों पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। चाहे कोई देश या प्रदेश स्वतंत्र हो, संरक्षित हो या स्वशासन रहित हो या परिमित प्रभुसत्ता वाला हो उस देश या प्रदेश की राजनीतिक ,क्षेत्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्थिति के आधार पर वहां के निवासियों पर कोई फर्क नहीं रखा जाएगा।

इस बात का विश्लेषण करना ज़रूरी है कि इस घोषणापत्र के जारी होने के 75 वर्ष बीत जाने के बाद विश्व तथा हमारे देश के मानवाधिकारों की क्या स्थिति है? शीतयुद्ध के दौरान अमेरिकी ख़ेमा यह ज़ोर-शोर से आरोप लगाता था कि सोवियत संघ तथा उसके अन्य सहयोगी देशों में बड़े पैमाने पर नागरिकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। इन‌ देशों में नागरिक आज़ादी और लोकतंत्र नहीं है परन्तु अमेरिकी ख़ेमे की स्थिति भी कोई ज़्यादा बेहतर नहीं थी। वह ख़ुद उन देशों को समर्थन दे रहा था जहां सैनिकों की तानाशाही थी। लोगों के मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा था। अपने राजनीतिक वर्चस्व के लिए अमेरिका की कुख्यात संस्था सीआईए अनेक देशों में चुनी हुई सरकारों को गिराकर वहां अपने समर्थक तानाशाहों को सत्ता में बैठा रही थी। कुल मिलाकर इस दौर में बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा था लेकिन‌ इसको रोकने में संयुक्त राष्ट्र और उसकी संस्थाएं असफल रहीं। 

शीतयुद्ध के बाद दुनिया कई ख़ेमों के बंट गई। दुनिया भर में बड़े पैमाने पर क्षेत्रीय और जातीय संघर्ष फूट पड़े। 90 के दशक में अनेक युद्धों और गृहयुद्धों में बड़े पैमाने पर लोगों के मानवाधिकारों का हनन हुआ-विशेष रूप से हम खाड़ी युद्ध से लेकर यूक्रेन-रूस युद्ध या फिर हमास और इज़राइल के बीच हो रहे संघर्षों को देखें जिसमें बड़े पैमाने पर निर्दोष लोगों की हत्याएँ हुईं तथा आज भी हो रही ‌हैं। हमास और इज़राइल के युद्ध में मानवाधिकारों का उल्लंघन अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया है। यहां इज़राइल द्वारा स्कूलों और‌ अस्पतालों पर लगातार हमले किए जा रहे हैं और हजारों बच्चे भी मारे गए हैं।

गाज़ापट्टी में मानवीय सहायता की‌ पहुच तक रोकी जा रही है। इससे पहले हमास ने भी इज़राइल के अंदर हमला करके बड़े पैमाने पर निर्दोष लोगों की हत्याएं की थीं। ये सब चीज़ें मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणापत्र के‌ विरुद्ध हैं। लेकिन विभिन्न गुटों में बंटी दुनिया को इसकी कोई परवाह नहीं है। दुनिया भर में चल रहे युद्धों और गृहयुद्धों के कारण बड़े पैमाने पर विस्थापन और शरणार्थियों का संकट बढ़ रहा है। दुनिया भर के विकसित देश शरणार्थियों को अपने देश में लेने को तैयार नहीं हो रहे हैं। 1990 के बाद दुनिया भर में इन‌ देशों में बड़े पैमाने पर उभर रहे दक्षिणपंथी ताक़तों और नव उदारवादी नीतियों ने इन‌ मानवीय संकटों को और भी गहरा कर दिया है। साम्राज्यवादियों द्वारा मुनाफ़े की‌ होड़ के कारण श्रम कानून असफल हो‌ गए हैं और ‌मज़दूरों को कम पैसे में अधिक समय तक काम करना पड़ रहा है। ये‌ सारी बातें मानवाधिकारों के उल्लंघन के अंतर्गत ही आती हैं परन्तु इन सब चीज़ों को‌ रोकने में ‌संयुक्त राष्ट्र संघ असफल सिद्ध हुआ।

भारत में मानवाधिकारों का प्रश्न

भारतीय समाज में मानवाधिकारों का‌ प्रश्न और भी जटिल और उलझा हुआ है। भारत जैसे लोकतांत्रिक समाजों में जनवादी अधिकारों का दमन और अतिक्रमण सिर्फ़ राजसत्ता ही नहीं करती बल्कि वे प्राक् पूंजीवादी मूल्य-मान्यताएं और संस्थाएं भी करती हैं जिनके आधार अतर्कपरता,असमानता अंधविश्वासों पूर्वाग्रहों और मध्ययुगीन प्रथाओं में मौजूद होते हैं। राजनीतिक संरचना के प्रत्यक्ष नियंत्रण के बाहर समाज में पहले से मौजूद ये संरचनाएं न सिर्फ़ राजसत्ता के ग़ैरजनवादी चरित्र का समर्थन-आधार तैयार करती हैं बल्कि स्वयं भी नागरिकों के जनवादी अधिकारों का अपहरण करती हैं। जनवादी अधिकारों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में हमें सिर्फ़ राज्य और नागरिक के बीच के सम्बन्धों की ही नहीं बल्कि नागरिकों के आपसी सम्बन्धों और सामाजिक संस्थाओं तथा व्यक्ति के सम्बन्धों की भी पड़ताल करनी होगी।

भारत में यही कारण है कि समाज में जनवादी चेतना का अभाव है। लोकतंत्र में उनको दिए गए हक़ चाहे वो रोटी-रोज़गार का सवाल हो या मौलिक आधार पर रक्षा का सवाल हो लोग इससे इसलिए संघर्ष नहीं कर पाते क्योंकि निरंकुशता के मूल्य हमारे समाज में पहले ही से रग-रग में भरे हुए हैं। भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन 12 अक्टूबर 1993 में हुआ था। राज्यों में भी सरकार द्वारा मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई है। इसके बावज़ूद भारत में नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन आज़ादी के बाद से ही जारी है। हमारे यहां जनतंत्र लगातार सिकुड़ता गया। रोटी, कपड़ा, मकान की मूलभूत समस्याएं हल न होने के कारण अनेक बड़े आंदोलन हुए जिसका सरकारों ने निर्ममतापूर्वक दमन भी किया। पूर्वोत्तर भारत तथा कश्मीर में आंदोलनों को कुचलने के लिए अनेक काले कानून बनाए गए। 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद मानवाधिकार हनन की‌ घटनाएं बहुत‌ तेज़ी से बढ़ीं। दलित, पिछड़े, आदिवासी तथा अल्पसंख्यकों के ऊपर राज्य प्रायोजित हिंसा बहुत तेज़ी से‌ बढ़ी है। यूएपीए जैसे काले कानूनों के अंतर्गत लेखकों, पत्रकारों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं को बिना मुकदमा चलाए आतंकवाद के झूठे आरोप में जेलों में बंद रखा जा रहा है। दूसरी ओर कुछ पूंजीपतियों को‌ फायदा पहुंचाने के लिए आदिवासियों को जल, जंगल और ज़मीन से महरूम किया जा रहा है। उन्हें माओवादी बताकर जेलों में बंद किया जा रहा है या हत्याएँ की जा रही हैं। स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई है कि ढेरों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तक की हत्याएँ की गई हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्था तक ने इन सबकी आलोचना की है। 

हमारे देश में सिविल सोसायटी की अनेक मानवाधिकार संस्थाएँ मौजूद हैं परन्तु उनका क्षेत्र सीमित है तथा आपस में बहुत वैचारिक मतभेद भी है इसी कारण से वे देश में मानवाधिकारों के‌ हनन पर व्यापक संघर्ष की रणनीति नहीं बना पाती हैं। वास्तव में भारत में मानवाधिकार आंदोलन को‌ केवल प्रतिरक्षात्मक किस्म का अधिकार रक्षा आंदोलन नहीं होना चाहिए बल्कि उसे ‌व्यापक जुझारू सामाजिक आंदोलन के रूप में संगठित किया जाना चाहिए। संविधान कानून व्यवस्था और पूरी राज्य मशीनरी के ग़ैरजनवादी चरित्र के विरुद्ध सतत मुहिम चलाने के साथ ही मानवाधिकार संगठनों को सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे के ग़ैरजनवादी चरित्र के विरुद्ध भी साहसिक ढंग से आवाज़ उठानी होगी। काले‌ कानूनों और राजकीय दमन के अतिरिक्त उन्हें दलित उत्पीड़न,अन्य प्रकार के जातिगत उत्पीड़न एवं वैमनस्य, जाति और धर्म पर आधारित चुनावी राजनीति,स्त्री उत्पीड़न, पुरुष वर्चस्ववाद के विभिन्न रूपों, धार्मिक कट्टरपंथ, अंधविश्वासों और पूर्वाग्रहों के विरुद्ध भी ‌व्यापक प्रचार एवं शिक्षा अभियान भी चलाने होंगे।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि मानवाधिकार आंदोलन को राजनीतिक आंदोलन के साथ ‌ही एक व्यापक सामाजिक आंदोलन के रूप में संगठित किया जाना चाहिए। तमाम ग़ैरजनवादी सामाजिक मूल्यों-संस्थाओं के विरुद्ध जनचेतना को जब तक जागृत नहीं किया जाएगा तब तक जनता राजसत्ता के विरुद्ध भी अपने जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष के लिए तैयार नहीं हो पाएगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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