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विशेष: जीवन को गरिमा के साथ जीने के आधार हैं मानव अधिकार

अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकारों की घोषणा ही नहीं बल्कि हमारे देश का संविधान भी देश के हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। बावजूद इसके, हमारी ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही है।
Human Rights Day

आज अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार दिवस है। इस बार की थीम है— डिग्निटी, फ्रीडम और जस्टिस फॉर ऑल। अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकारों की घोषणा ही नहीं बल्कि हमारे देश का संविधान भी देश के हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। बावजूद इसके, हमारी जमीनी हकीकत कुछ और ही है।

हाल ही में गुजरात में जो चुनाव हुए उसमे बीस साल पहले हुए 2002 के सांप्रदायिक दंगों को मुद्दा बनाया गया जिसमें मुसलमानों के कत्लेआम को न केवल गुजरात के गौरव बल्कि राष्ट्रीय गौरव के रूप में पेश किया गया जबकि उस दंगे में 2000 से अधिक बेगुनाह-बेक़सूर आम मुसलमान नागरिक मारे गए थे। इस संबंध में अपने समय के चर्चित कवि मंगलेश डबराल की कविता “ गुजरात के एक मृतक का बयान” बरबस याद आती है जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं :

...और मुझे इस तरह मारा गया

जैसे मारे जा रहे हों एक साथ बहुत से दूसरे लोग

मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मक़सद नहीं था

और मुझे मारा गया इस तरह जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मक़सद हो।

और जब मुझसे पूछा गया — तुम कौन हो

क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम

कोई मज़हब कोई तावीज़

मैं कुछ नहीं कह पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था

सिर्फ़ एक रंगरेज़, एक कारीगर, एक मिस्त्री, एक कलाकार, एक मजूर था...

और अब समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठाकर लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता में दखलंदाजी करने का प्रयास किया जा रहा है।

इधर एंटी रिलीजियस कन्वर्जन लॉ के नाम पर दलितों के धर्मान्तरण पर भी रोक लगाई जा रही है जबकि संविधान में स्वेच्छा से किसी भी धर्म को अपनाने का प्रावधान है। कुछ महीने पहले दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार में मंत्री राजेंद्र पाल गौतम द्वारा बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं को दोहराने पर जो हंगामा हुआ वो हम सब ने देखा। उन्हें अपना मंत्री पद गंवाना पड़ा।

संवैधानिक तौर पर हमारा देश धर्म निरपेक्ष है पर फासीवादी ताकतें एक धर्म विशेष को देश के लोगों पर थोपने की कोशिश कर रही हैं।

देश के दलित अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं।

संविधान हमें गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है पर दलितों को ये व्यवस्था अमानवीय कार्य करने को बाध्य करती है जैसे मैला ढुलवाना सीवर सेप्टिक टैंक साफ़ करवाना।

हाल ही में नवी मुंबई में तीन लोगों की सीवर-सेप्टिक टैंक साफ़ करने में मौत हो गई। ये सिलसिला लम्बे समय से चला आ रहा है पर सरकार को कोइ फर्क नहीं पड़ रहा है जबकि अपने नागरिकों की सुरक्षा और उन्हें गरिमा के साथ जीने देना सरकार की जिम्मेदारी है।

सफाई कर्मचारी आंदोलन सीवर सेप्टिक टैंकों में होने वाली मौतों के खिलाफ पिछले 214 दिनों से अभियान चला रहा है पर फासीवादी सरकार गूंगी-बहरी बनी हुई है।

सफाई कर्मचारी आंदोलन लगातार सवाल उठा रहा है और मांग कर रहा है – क्या सभी नागरिकों के जीवन की गारंटी देना सरकारों का काम नहीं, क्या सफाई के काम को जाति के शिकंजे से मुक्त करना जरूरी नहीं? चुप्पी तोड़ो! सीवर-सेप्टिक टैंकों में हत्याएं बंद करो।

देश के नागरिकों की स्वास्थ्य रक्षा सरकार की जिम्मेदारी है। पर सफाई कर्मचारी समुदाय की हकीकत यह है कि वे चालीस-पैतालीस की उम्र में ही अपनी जान गँवा देते हैं। उन्हें गन्दगी सफाई का काम बिना किसी सुरक्षा उपकरणों के करना पड़ता है इससे कई बार तो सीवर सेप्टिक टैंको में ही उसकी मौत हो जाती है या फिर फेफड़े संबंधी बीमारियां, त्वचा रोग,  टीबी आदि से उसकी मौत हो जाती है। पर जातिवादी सरकारें इस मुद्दे को तवज्जो नहीं देतीं। राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव में सफाई कर्मचारियों की मौत का सिलसिला जारी रहता है।

सरकार सीवर सेप्टिक टैंको की सफाई के लिए तकनीकी मद में पैसा खर्च नहीं करती। बाकी मदों में सरकार के पास पैसा होता है पर सफाई तकनीक के लिए नहीं।

सफाई कर्मचारी आंदोलन जाति के कलंक को मिटाने और सीवर-सेप्टिक टैंकों में हत्याओं को रोकने के लिए लगातार संघर्ष कर रहा है और तब तक करता रहेगा जब तक इस तरह की हत्याओं का सिलसिला बंद नहीं होता।

ध्यान रहे कि प्रकृति इंसान और इंसान में भेद नहीं करती। वह सब को जीने का अवसर देती है। सबको हवा, पानी, भोजन और जीने की परिस्थितियां उपलब्ध कराती है। भले ही स्थान, विशेष की जलवायु के कारण कहीं गोरे लोग होते हैं, कहीं काले, तो कहीं सांवले। कहीं लम्बे, तो कहीं नाटे कद के। पर सबकी मानवीय बुनियादी जरूरतें एक सी होती हैं।

यह इन्सान की ही प्रवृति होती है कि वह रंग, धर्म, क्षेत्र, भाषा, नस्ल, सम्प्रदाय, जाति, शक्ति  के आधार पर स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन समझता है। शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर को, अमीर गरीब को कमतर समझता है। वह उस पर अपना आधिपत्य चाहता है। उसे अपना गुलाम बनाना चाहता है। उससे अपनी सेवा करवाना चाहता है। वह दूसरों के आत्मसम्मान को कुचल कर अपने अहम् भाव की तुष्टि करता है। इतिहास इस तरह की घटनाओं से भरा पड़ा है। राजाओं के युग में एक राजा दूसरे राजा को युद्ध में हराकर उसे अपना बन्दी बना लेता था और उसके राज्य पर कब्जा कर लेता था। दूसरों पर हुकूमत करना ही उसका उद्देश्य होता था। कमोवेश आज भी यही प्रवृति लागू है। आज पूंजीपति गरीबों पर, दबंग कमजोरों पर और कथित उच्च जाति के लोग दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यको और हाशिए के लोगों पर हावी होकर उन्हें अपने अधीन कर उन पर अपना वर्चस्व दिखा रहे हैं।

उन्हें उनके मानवीय अधिकारों से वंचित कर रहे हैं। इसमें जाति, धर्म और पितृसत्ता अपनी अहम भूमिका निभा रहे  हैं।

हमारे संविधान के अनुच्छेद 12 से 35 के अंतर्गत जो मौलिक अधिकार दिए गए हैं उन में समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार तथा संवैधानिक उपचार के अधिकार हैं। संविधान का अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता की बात कहता है –‘राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी नागरिक  को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। अनुच्छेद 15 कहता है राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान किसी भी आधार पर कोई भेद नहीं करेगा। इसी प्रकार अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता या छूआछूत को निषेध करता है और इसे दंडनीय अपराध मानता है। संविधान का अनुच्छेद 21 व्यक्ति को गरिमापूर्ण जीवन और जीने की स्वतंत्रा प्रदान करता है।

संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में यह कथन है कि संयुक्त राष्ट्र के लोग यह विश्वास करते हैं कि कुछ ऐसे मानवाधिकार हैं जो कभी छीने नहीं जा सकते; मानव की गरिमा है और स्त्री-पुरुष के समान अधिकार हैं। इस घोषणा के परिणामस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ ने 10 दिसम्बर 1948 को मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा अंगीकार की। मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा की 75वीं वर्षगांठ 10 दिसंबर 2023 को मनाई जाएगी। इस साल 10 दिसंबर 2022 को मानवाधिकार दिवस से शुरू होकर सार्वभौमिक घोषणा को प्रदर्शित करने के लिए एक साल का अभियान शुरू किया जाएगा। भले ही संयुक्त राष्ट्र ने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक 10 दिसंबर 1948 को कर दी थी पर हमारे देश में मानवाधिकार कानून को अमल में लाने के लिए लम्बा समय लगा। इसे भारत में 26 सितम्बर 1993 को लागू किया गया। हालांकि  हमारा  संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हो गया था और उसमे मौलिक अधिकारों का प्रावधान है जो हमारे मानवाधिकार हैं।

सब जीएं मानवीय गरिमा के साथ सबको मिले स्वतंत्रता और न्याय

यदि देश के सभी नागरिक अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी पालन करने लगें तो जो नागरिक अधिकारों से वंचित हैं या जिन्हें व्यवस्था द्वारा वंचित किया गया है वे भी अपने अधिकारों का आनंद ले सकेंगे। गौरतलब है कि संविधान में मौलिक कर्तव्य को अनुच्छेद 51 के भाग 4 में जोड़ा गया है। मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों की संख्या 10 थी। 86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 धारा 11वां मौलिक कर्तव्य जोड़ दिया गया जिसमें 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा का मौलिक कर्तव्य जोड़ा गया जिससे बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार मिला। वर्तमान में भारतीय संविधान में 11 मौलिक कर्तव्य है। उनमें से एक कर्तव्य यह भी है कि भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करें जो धर्म, भाषा, प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो। ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरोध में हो।

इस कर्तव्य का पालन सभी नागरिक करते हैं तो निश्चित ही देश का हर नागरिक अपनी मानवीय गरिमा के साथ जी सकेगा। गौतम बुद्ध ने भी कहा है – खुद मानवीय गरिमा के साथ जीओ और दूसरों को भी जीने दो।

क्या अंतरराष्ट्रीय  मानवाधिकार दिवस पर हम यह प्रतिज्ञा करेंगे कि हम न केवल अपने अधिकारों का लाभ लेंगे बल्कि इसके साथ-साथ अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे जिससे कि दूसरे भी अपने अधिकारों का आनंद ले सकें।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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