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मुद्दा: और मुश्किल हुई मानवाधिकारों की लड़ाई

मानवाधिकार क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का मानना है कि अब इस क्षेत्र में काम करना और भी मुश्किल हो गया है। क्योंकि अब बहुत सारे लोग यह मानने लगे हैं कि मानवाधिकार कोई अधिकार नहीं हैं बल्कि कल्याणकारी कार्यक्रम हैं।
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जैसे भारत का नागरिक होने के नाते हमें बहुत से अधिकार मिले हुए हैं वैसे ही मानव होने के नाते भी हमें बहुत से अधिकार मिले हुए हैं। अधिकारों की फेहरिस्त में मानवाधिकारों को सबसे ऊपर रखा गया है। ये अधिकार मानव को राष्ट्रीयता, लिंग, जातीय मूल, रंग, धर्म, भाषा या किन्हीं अन्य कारणों के भेदभाव के बिना दिये गये हैं। ये अधिकार हमें किसी राज्य ने नहीं दिये हैं लेकिन मानव होने के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिले हैं। सैद्धांतिक तौर पर इन अधिकारों का अतिक्रमण विश्व के किसी भी देश या किसी भी सरकार द्वारा नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन ज्यादातर देश मानवाधिकारों का अतिक्रमण करते ही रहते हैं। अपने देश में तो मानवाधिकारों का हनन एक आम बात है। यहां दबंग लोगों के साथ ही सरकारें भी मानवाधिकारों के अतिक्रमण में लिप्त हैं। यही वजह है कि मानवाधिकार के जितने भी मानक हैं, उसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम बाकी दुनिया से बहुत पीछे हैं। कुछ मामलों में तो हम अपने पड़ोसी देशों - नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, बर्मा (म्यांमार), पाकिस्तान जैसे छोटे और कमज़ोर माने जाने वाले देशों से भी पिछड़ गये हैं।

मानवाधिकार क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का मानना है कि अब इस क्षेत्र में काम करना और भी मुश्किल हो गया है। क्योंकि अब बहुत सारे लोग यह मानने लगे हैं कि मानवाधिकार कोई अधिकार नहीं हैं बल्कि कल्याणकारी कार्यक्रम हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अभी तक जो चीज अधिकार (हक) मानी जा रही थी, जो चीज आपको मिलनी ही चाहिए थी अब उसे अनिवार्यता की शर्त से हटाकर इच्छा पर निर्भर कर दिया गया है। मतलब ये कि आपको दिया जाए या न दिया जाए, आप उस के लिए हक नहीं जता सकते।

पहली बार दस दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानवाधिकार घोषणा पत्र जारी करके व्यक्ति के अधिकारों का मुद्दा उठाया गया था। इसमें कुल 30 अनुच्छेद हैं और इसमें समता का अद्भुत सामंजस्य स्थापित किया गया है। इसमें नागरिक और सामाजिक अधिकारों के साथ साथ आर्थिक और समाजिक अधिकारों को भी लिया गया है। इस तरह देखें तो यह इतना व्यापक है कि इसमें जीवन का हर क्षेत्र समाहित हो जाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, काम करने की स्थितियां, जीवन के हालात सब कुछ।

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी मावनाधिकार घोषणा पत्र के जरिये वैश्विक स्तर पर मानवाधिकारों के लिए चेतना जागृत करने में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। इसके बाद 1966 की अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदाएं, यूरोपीय कन्वेंशन, सिंगापुर घोषणा पत्र, संयुक्त राष्ट्र चार्ट में निहित घोषणाएं जैसे विधानों ने इस सिद्धांत को और पुष्ट किया। इन दस्तावेजों में अधिकार के साथ ही कर्तव्यों की भी चर्चा की गई है जिसमें अधिकार के साथ ही मनुष्य का उस समुदाय के प्रति कर्तव्य भी है जिसमें उसके संपूर्ण व्यक्तित्व का उन्मुक्त विकास हो सके। किसी भी इंसान की जिंदगी, आजादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार मानवाधिकार है।

भारतीय संविधान तो न सिर्फ इस बात की गारंटी देता है बल्कि इसे तोड़ने वालों को अदालत सजा भी देती है। भारत में 28 सितंबर 1993 से मानव अधिकार कानून अमल में आया। 12 अक्टूबर 1993 को सरकार ने मानव अधिकार आयोग का गठन किया। आयोग के कार्यक्षेत्र में बहुत सारी चीजों के साथ ही नागरिक और सांस्कृतिक अधिकार भी आते हैं। जैसे- बाल मजदूरी, एचआईवी, एड्स, स्वास्थ्य, भोजन, बाल विवाह, महिला अधिकार, हिरासत और मुठभेड़ में होने वाली मौतें, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति और जन जाति के अधिकार आदि।

लेकिन हम देखते हैं कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का ज्यादा जोर पुलिस की ज्यादतियों जैसे- बिना किसी कसूर के नागरिकों पर अत्याचार या पुलिस हिरासत में मौतों या फिर फर्जी एनकाउंटरों पर ही होता है। हमने कभी नहीं देखा कि मानवाधिकार कार्यकर्ता शिक्षा, स्वास्थ्य, समानता जैसे मुद्दों को उठाते हों। लेकिन अब यह महसूस होने लगा है कि बिना इन मुद्दों को उठाए मानवाधिकारों की रक्षा नहीं की जा सकती। हाल ही में मानवाधिकारों पर हुई एक गोष्ठी में सिविल सोसायटी, पत्रकार, शिक्षक, वकील आदि शामिल हुए। सबने महसूस किया कि सामाजिक, आर्थिक बराबरी की लड़ाई के बिना मानवाधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। लोगों का कहना था कि हम सिर्फ व्यापार में आगे बढ़े हैं बाकी सब मामलों में पीछे हुए जा रहे हैं। राज्य से बड़ा बाजार हो गया है। राज्य इस मामले में दोहरी भूमिका निभा रहा है। बाजार, अंतरराष्ट्रीय पूंजी को लेकर जहां वहां काफी नरम है वहीं मानवाधिकारों को लेकर काफी सख्त। सबसे खराब बात यह महसूस की गई कि सिविल सोसायटी का एक बड़ा तबका सरकार के गलत कार्यों को भी उचित ठहराने लगा है और उसमें शामिल होने लगा है। सबने इस बात पर जोर दिया कि इस लड़ाई में सबको जोड़ना होगा, व्यापक बनाना होगा, तभी बात बनेगी।

गोष्ठी में भाग लेने आईं मणिपुर की तारा हांजो ने अपने उदाहरण से इन बातों की पुष्टि की। तारा हांजो अनुसूचित जन जाति आयोग, मणिपुर की पूर्व सदस्य हैं। उन्होंने बताया कि पिछले आठ महीने से मणिपुर में हिंसा जारी है लेकिन किसी का ध्यान इस ओर नहीं जा रहा। बल्कि पीड़ितों को घुसपैठिया तक बताया जा रहा है। वहां मणिपुर के लोगों के अधिकारों का खुलेआम हनन हो रहा है। जबकि देश के ही कुछ लोग उसे ठीक बताने में लगे हुए हैं। उन्होंने बताया कि मणिपुर में सात हजार मकान जलाये जा चुके हैं। 50 से 70 हजार लोग विस्थापन का जीवन जी रहे हैं। इनमें से ज्यादातर सेना के कैंपों में शरण लिए हुए हैं, जिनमें कोई सुविधाएं नहीं हैं। न तो गद्दा है, न चादर है, न तकिया है, न कंबल है, न शौचालय है, कुछ भी नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली में दो हजार के करीब मणिपुरी शरण लिए हुए हैं।  

मानवाधिकारों में सबसे ज्यादा जोर समानता पर है। लेकिन हम पाते हैं कि दुनिया भर में कहीं भी समानता नहीं है। भारत में तो असमानता की खाईं और भी ज्यादा गहरी है। दो साल पहले आई एक रिपोर्ट से पता चलता है कि देश में अमीर और गरीब के बीच बहुत बड़ी खाई है और यह खाईं और ज्यादा चौड़ी होती जा रही है। रिपोर्ट के अनुसार देश की कुल राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी महज एक प्रतिशत लोगों के पास है। दूसरी ओर निचले तबके की आधी आबादी कुल राष्ट्रीय आय का महज 13.1 प्रतिशत कमाई करती है। आर्थिक उदारीकरण के बाद यह स्थिति और तेजी से बदली है। उदारीकरण का ज्यादातर लाभ शीर्ष एक फीसदी लोगों को मिला है।

दुनिया भर में असमानता पर साक्ष्य आधारित शोध करने वाली फ्रांस की विश्व असमानता लैब द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में काफी गरीबी और असमानता है जबकि यहां का एक वर्ग अकूत संपत्ति का मालिक है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में एक फीसदी अमीरों के पास देश की कुल आय का 22 फीसदी है। शीर्ष दस फीसदी अमीरों के पास देश की कुल आय का 57 प्रतिशत है। रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में शीर्ष 10 फीसदी और निचले तबके के 50 फीसदी की आबादी की आय का अंतर 1 से 22 फीसदी रहा।

रिपोर्ट से इस बात का भी पता चला कि भारत दुनिया के सर्वाधिक असमानता वाले देशों में से एक है। भारत में जहां शीर्ष के दस फीसदी लोगों और नीचे के पचास फीसदी लोगों की आय में यह असमानता 22 फीसदी की है वहीं चीन और रूस में यह अंतर महज 14 फीसदी है। भारत में निचले तबके के पचास फीसदी परिवारों के पास तकरीबन नगण्य संपत्ति है। मध्य वर्ग भी अपेक्षाकृत गरीब है और कुल संपत्ति का 29.5 फीसदी उनके पास है। जबकि शीर्ष दस फीसदी के पास 65 फीसदी और एक फीसदी के पास 33 फीसदी संपत्ति है। मध्य वर्ग की औसत संपत्ति 26,400 डॉलर ( 7,23,930 रुपये ) है। शीर्ष दस फीसदी लोगों के पास औसतन 2,31,300 डॉलर ( 63.54 लाख रुपये ) और एक फीसदी के पास औसतन 61 लाख डॉलर ( 32.44 करोड़ रुपये ) है।

रिपोर्ट के अनुसार भारत में असमानता का स्तर ब्रिटिश राज की तुलना में कहीं ज्यादा हो गया है। उस समय शीर्ष दस फीसदी आबादी के पास कुल राष्ट्रीय आय का करीब 50 फीसदी था। आजादी के बाद यह हिस्सेदारी घटकर 35-40 प्रतिशत पर आ गई। लेकिन 1980 और उदारीकरण के बाद यह बढ़कर 65 फीसदी तक जा पहुंची है।

अमीरी-गरीबी के हिसाब से ही मानवाधिकारों का भी हनन होता है। ज्यादातर गरीब परिवारों के मानवाधिकारों का ही हनन होता है। सुविधाएं अमीरों को मिलती हैं जबकि गरीब परिवारों की सुविधाओं और मानवाधिकारों की परवाह तक नहीं की जाती। आप अगर कभी राजधानी दिल्ली जाएं तो इसका अंतर भी साफ समझ में आएगा। प्रधानमंत्री के आवास सात रेसकोर्स और लुटियन जोन्स, जहां संसद और मंत्रालय स्थित हैं वहां तैनात पुलिस वाले भी ज्यादातर अच्छा व्यवहार करते हैं। जबकि बाकी दिल्ली के पुलिस वाले लोगों के साथ वैसा व्यवहार नहीं करते। यह हाल तब है जब दिल्ली पुलिस बाकी देश की पुलिस से अच्छी मानी जाती है। गांव-देहात में तैनात पुलिस तो लोगों से आम तौर पर जानवरों जैसा व्यवहार करती है। बात-बात पर गाली गलौच और मारपीट करती है। पुलिस हिरासत में मौत भी ज्यादातर ऐसी ही जगहों पर होती है।

हर शहर में कुछ पॉश इलाके होते हैं। इन इलाकों में सुविधाएं भी बाकी इलाकों से बेहतर होती हैं। बिजली कम जाती है, साफ पानी की सप्लाई होती है, रोज झाड़ू लगाई जाती है, साफ-सफाई होती है, सड़कों के किनारे लाइट जलती है, नालियां साफ होती हैं। लेकिन शहर के बाकी इलाके न इतने साफ होते हैं न इतनी सुविधाएं मिलती हैं।

बहुत पहले एक अखबार ने भोपाल की एक खबर प्रकाशित की थी, जिसमें बताया गया था कि वहां के 900 खास बंगलों पर 50 करोड़ रुपये खर्च किये गये जबकि बाकी के 11 हजार मकानों पर कुल 80 करोड़ ही खर्च किये गये। यह स्थिति हर जगह है। दिल्ली के लुटियन जोन्स और नई दिल्ली के साथ ही पूरे देश के पॉश इलाकों पर ज्यादा रकम खर्च की जाती है। शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था ज्यादातर बड़े शहरों में ही बेहतर है और उन तक धनाढ्य वर्ग की आसान पहुंच है। इन इलाकों में अपराध भी इतने नहीं होते। पुलिस भी सतर्क रहती है। इसके विपरीत मध्यम वर्ग और गरीब इलाकों में थाने और चौकियां आबादी के हिसाब से कम होती हैं जबकि अपराध भी इन इलाकों में ज्यादा होते हैं। अगर पॉश इलाकों में पुलिस किसी निरपराध को पकड़ लेती है तो वो अपना बचाव करने में सक्षम होते हैं जबकि गरीब लोग ठीक से अपना बचाव भी नहीं कर पाते।

यहां यह भी जान लेना जरूरी है कि गरीब लोग ज्यादातर एससी, एसटी, ओबीसी आदि समुदायों में ही हैं। इसीलिए जेलें इन्हीं समुदाय के लोगों से भरी पड़ी हैं। गृह मंत्रालय की ओर से पेश आंकड़ों के मुताबिक 31 दिसंबर 2020 तक भारत की जेलों में तीन लाख 71 हजार 848 ऐसे कैदी थे जो विचाराधीन थे। यानी जो बिना सजा पाए ही जेलों में थे। इनमें 7128 कैदी पांच साल से ज्यादा समय से जेलों में कैद थे। इसके अलावा 16603 कैदी ऐसे थे जो तीन साल से पांच से जेलों में थे। दो से तीन साल वाले ऐसे कैदियों की संख्या 29194  थी। एक से दो साल वाले कैदी 54 हजार 287 थी। तीन महीने की अवधि वाले कैदियों की संख्या एक लाख तीस हजार 335 थी। इनमें से 90 प्रतिशत से भी ज्यादा कैदी गरीब और मध्यम परिवारों से ही हैं।

2021 में गृह मंत्रालय के एक आंकड़े के अनुसार चार लाख 78 हजार 600 कैदी जेलों में बंद थे। इनमें सबसे ज्यादा एक लाख 62 हजार 800 ( 34.01 ) प्रतिशत ओबीसी, 99 हजार 273 ( 20.74 प्रतिशत ) एससी और 53 हजार 336 ( 11.14 प्रतिशत ) एसटी श्रेणी से संबंध रखते हैं। अगर इनके पास पैसा होता और कानूनी तौर पर ये भी जागरूक होते तो कानूनी मदद हासिल करके जेलों से बाहर आ सकते थे।

मजदूर तो गरीब होता ही है। पहले मजदूरों का जीवन गुलामों जैसा होता था। बड़ी कोशिशों और संघर्षों के बाद उन्हें कुछ सहुलियतें और सुविधाएं मिली थीं। फिर भी उनके पूरे मानवाधिकार हासिल नहीं हो पाए थे। लेकिन कोरोना के बाद मजदूरों की उपलब्धता में कमी और उत्पादन बढ़ाने के नाम पर उनके अधिकारों का एक बार फिर हनन कर दिया गया है। बडी मुश्किल से और संघर्षों के बाद मजदूरों को आठ घंटे काम करने का अधिकार मिल पाया था। लेकिन अब कई राज्य सरकारों ने उसे बढ़ाकर 12 घंटे का कर दिया है। पहले मजदूरों को ओवर टाइम का पैसा ज्यादा मिलता था लेकिन अब ओवर टाइम का पैसा भी आम मजदूरी जैसा ही मिलेगा। मजदूरों के खिलाफ एक और बात हुई है। अब कुल वेतन का आधा मूल वेतन रखना होगा। इसका असर यह होगा कि मजदूरों का पीएफ ज्यादा कटेगा। नतीजा यह निकलेगा कि जितना पैसा मजदूर पहले घर ले जाता था अब उससे कम पैसा घर ले जाने के लिए उसके हाथ में आयेगा। आप कह सकते हैं कि वह पैसा बाद में उसे ही मिलेगा और वह भी ज्यादा होकर क्योंकि मालिक का भी उसमें ज्यादा शेयर जुड़ेगा। लेकिन वर्तमान की उसकी जरूरतों के लिए तो पैसा कम ही मिलेगा। फिर कई ऐसे मालिक होते हैं जो मजदूरों के पीएफ का पैसा जमा ही नहीं करते और बाद में कोर्ट कचहरी करने लगते हैं। नतीजा यह निकलता है कि उस कंपनी के मजदूरों का पैसा नहीं मिल पाता।

2018 में भारत के मानवाधिकार आयोग के 25वीं वर्षगांठ के अवसर पर प्रकाशित रिपोर्ट में आयोग ने दावा किया था कि 25 वर्ष (1993-2018 तक) 17 लाख से अधिक मामलों का निपटारा और मानवाधिकार उल्लंघन के पीड़ितों को 100 करोड़ रुपये से अधिक का मुआवजा दिया गया। मानव अधिकारों के उल्लंघन की शिकायत पर 750 से अधिक स्थान पर आयोग की जांच टीम भेजी गई और पूरे देश में मानवाधिकारों के बारे में जागरुकता फैलाने के लिए 200 से अधिक सम्मेलन किये गये। लेकिन इस दावे में यह भी छिपा है कि पिछले 25 सालों में इतने बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ। रिपोर्ट देखने से यह भी पता चलता है कि हिरासत में 31 हजार से अधिक मौतें दर्ज हुई हैं।

अब तो मानवाधिकार की परिभाषा को लेकर ही सवाल खड़े किये जाने लगे हैं। खुद सरकार की ओर से कहा जाने लगा है कि मानवाधिकार को वैश्विक खासकर पश्चिमी देशों के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। मतलब ये कि पश्चिम में मजदूरों को जो अधिकार मिल रहे हैं वो भारतीय मजदूरों को नहीं मिलेंगे और उन्हें मानवाधिकारों का उल्लंघन भी नहीं माना जाएगा। 12 अक्टूबर 2019 को 26वें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के स्थापना दिवस पर गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि भारत के संदर्भ में मानवाधिकार का पैमाना पश्चिमी देश नहीं हो सकते। मानवाधिकारों के मानकों को भारतीय मुद्दों पर आंख मूंदकर लागू नहीं किया जा सकता है। उन्होंने सरकार द्वारा नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार के प्रयासों जैसे औरतों के लिए शौचालय, खाना पकाने का सुरक्षित तरीका गैस चूल्हा आदि को मानवाधिकार का मुद्दा मानने की वकालत की। कोरोना काल के बाद 28वें स्थापना दिवस समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि हाल के वर्षों में मानवाधिकार की व्याख्या कुछ लोग अपने-अपने तरीके से कर रहे हैं। चयनित तरीके से आचरण करते हुए कुछ लोग मानव अधिकारों के हनन के नाम पर देश की छवि को भी नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे लोगों से देश को सतर्क रहना चाहिए। उसी के बाद मजदूरों के कार्य के घंटे बढ़ाकर आठ से 12 कर दिये गये हैं। इसीलिए मानवाधिकार कार्यकर्ता कह रहे हैं कि अब मानवाधिकारों की लड़ाई पहले से भी ज्यादा मुश्किल हो गई है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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