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भारतीय बैंक वित्तीय स्तर पर लाचार क्यों हो रहे हैं?

सवाल यह नहीं है कि एक नवउदारवादी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में बैंकों का व्यवहार क्या रहा है। दरअसल मुसीबत की जड़ और मुख्य सवाल नवउदारवादी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का ही है।
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यस बैंक संकट भारतीय बैंकिंग व्यवस्था की खस्ता हालत की अभिव्यक्ति मात्र है। यह संकट बैंकिंग व्यवस्था में गहराई तक पैठ बना चुकी वित्तीय भंगुरता को दिखाता है। मुख्य आर्थिक सलाहकार जब कहते हैं कि भारतीय बैंकिंग व्यवस्था स्थिर है, तब वह सही कह रहे होते हैं। लेकिन वह यह तथ्य नहीं बताते कि बैंकिग व्यवस्था ज्यादा भंगुर हो चली है। कांग्रेस बिलकुल सही दावा करती है कि यस बैंक की हालत पिछले पांच साल में लोन की रकम लगातार बढ़ाए जाने के चलते खराब हुई है।

पार्टी बताती है कि 2014 में 55,633 करोड़ रुपये का लोन दिया गया, वहीं 2019 में बैंक ने 2,41,499 करोड़ रुपये का भारी-भरकम लोन दिया।  खासकर पिछले दो सालो में लोन की मात्रा में ज़बरदस्त इज़ाफा हुआ। मार्च, 2016 में दिए गए लोन का आंकड़ा 98, 210 करोड़ रुपये था, जो मार्च 2018 में बढकर 2,03,534 करोड़ रुपये हो गया। इसमें कोई शक नहीं है कि धड़ाधड़ दिए गए यह लोन ''क्रोनी कैपिटलिज़्म'' से जुड़े हैं। मतलब इन लोन को पाने वाले प्रमुख लोग प्रधानमंत्री के ''क्रोनी कैपिटलिस्ट'' हैं।

यह सब सही बाते हैं, लेकिन इन तक सीमित रहना पर्याप्त नहीं है। क्योंकि इससे नवउदारवादी अर्थव्यव्यवस्था की मूल प्रवृत्ति से जुड़ी समस्या छुप जाती है। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था, वित्तीय ढांचे को तयशुदा तौर पर वक्त बीतने के साथ ज़्यादा भंगुर बनाती जाती है। बल्कि इस तरह की अर्थव्यवस्था में अगर किसी बूम (उछाल) को तभी बरकरार रखा जा सकता है, जब अर्थव्यवस्था को कमजोर करने वाले कदम उठाए जाएं।  तो सवाल पूछा जाता है कि जब यस बैंक धड़ाधड़ लोन दे रहा था, तो RBI क्या कर रहा था।  RBIसिर्फ सो नहीं रहा था, दरअसल उसने आंखें बंद कर रखी थीं, ताकि विकास दर को बढ़ाए रखा जा सके।

नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की बड़ी पहचान है कि इसमें किसी उछाल (बूम) को पैदा करने या बनाए रखने के लिए राजकोषीय नीतियों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। ऐसा इसलिए है क्योंकि नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में ''वैश्विक चलित वित्तीय पूंजी'' के दबाव में अपने राजकोषीय घाटे को जीडीपी के सापेक्ष नियंत्रित रखना पड़ता है। बल्कि भारत समेत ज़्यादातर नवउदारवादी अर्थव्यवस्थाओं में कानून बनाकर जीडीपी-राजकोषीय घाटे को तीन फ़ीसदी पर नियंत्रित किया जाता है।

अगर राजकोषीय घाटे को बढ़ाया नहीं जाता है, तब भी मांग बढ़ाकर अर्थव्यवस्था में उछाल लाया जा सकता है, जैसे ही यह उछाल आता है, सरकारी खर्च और पूंजीवादियों पर कर लगाकर इसे बरकरार रखा जा सकता है। पूंजीवादियों पर कर इसलिए लगाना होता है क्योंकि यह अपने धन के एक बड़े हिस्से को सहेजकर रखते हैं, जो बाजार से दूर रहता है। लेकिन यह भी वित्तीय पूंजी के लिए अभिशाप है, इसलिए इसपर विचार नहीं किया जाता। इसलिए एक नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में राजकोषीय नीतियां हमेशा चक्रानुकूल बनी रहती हैं। मतलब अगर अर्थव्यवस्था में गिरावट आ रही हो, तो राजकोषीय नीतियां इस गिरावट को रोकने के बजाए गिराटव को तेज करने में योगदान करती हैं।

इसलिए इस तरह की गिरावट को रोकने और उछाल को बरकरार रखने का एकमात्र औजार ''मौद्रिक नीतियां'' ही बचती हैं। इन मौद्रिक नीतियों का गिरावट रोकने का एक ही गुरूमंत्र होता है, ज़्यादा से ज़्यादा ''खराब गुणवत्ता'' वाले लोन दिए जाएं, जिनमें बेहद अधिक ख़तरा मौजूद होता है। वित्तीय संस्थानों को ऐसा करने में सक्षम बनाने के लिए अकसर ब्याज़ दर को कम रखा जाता है।

जब ''डॉटकॉम बबल(इंटरनेट से अर्थव्यवस्था में आया उछाल)'' खत्म हो रहा था, तब अमेरिका में फेडरल रिजर्व के अध्यक्ष रहते हुए एलन ग्रीनस्पैन ने अर्थव्यवस्था के उछाल को बनाए रखने के लिए यही किया था। लेकिन भारत में ब्याज़ दरों को कम रखने के अलावा अकसर ही सरकार बैंकों को इंफ्रास्ट्रक्चर (जिनमें रियल एस्टेट प्रोजेक्ट शामिल होते हैं) जैसे सेक्टर को लोन देने के लिए बाध्य करती है। इसके लिए सरकार इन्हें ''उच्च प्राथमिकता वाला क्षेत्र'' बताती है।  सार्वजनिक बैंकों में ऐसा करने के लिए सरकार सीधा हस्तक्षेप करती है। वहीं यस बैंक जैसे निजी बैंकों के मामले में उनके द्वारा दिए जा रहे अंधाधुंध लोन के प्रति सरकार अपनी आंखें बंद कर लेती है।

इसी से अर्थव्यवस्था में उछाल बरकरार रहता है, भले ही बैंक अंदर ही अंदर खोखले होते जाएं। उछाल के लिए बैंकों को कुर्बानी देना तय होता है। भारत में सरकारी नेतृत्व में बैंकों के ज़रिए निजी उद्योगपतियों को इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के लिए बड़ी संख्या में लोन दिए गए, ताकि विकास दर को बरकरार रखा जा सके। लेकिन इससे बैंकों की ''लोन एसेट्स (संपत्तियों)'' की गुणवत्ता गिर गई। यह गुणवत्ता तब और खराब होती गई, जब लोन देने के बावजूद कुल मांग बढ़ती गई। इसकी वजह कमजोर निर्यात जैसी दूसरी वजह रहीं।

अमेरिकी अर्थशास्त्री हायमन मिंस्की तर्क देते हैं कि सभी तरह के पूंजीवादी उछालों में वित्तीय भंगुरता नज़र आती है। लेकिन नवउदारवादी पूंजीवाद में यह ख़ासतौर पर दिखाई देता है, क्योंकि यहां राजकोषीय नीतियों के ज़रिए मांग की पूर्ति के विकल्प को नकार दिया जाता है।

मान लीजिए कि हम एक ऐसे देश में रह रहे होते जहां नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के बजाए, निवेश पर कड़े सरकारी नियंत्रण वाली डिरिजिस्ट रेज़ीम (Dirigiste Regime)व्यवस्था होती। तब मांग को पूरा करने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट निजी उद्यमियों की जगह सरकार द्वारा पूरे किए जाते। सरकार इनके लिए राजकोषीय घाटे का उपयोग करती, जिसके लिए पैसे की पूर्ति बैंको द्वारा सरकार को लोन देकर की जाती। उस स्थिति में बैंकों के पोर्टफोलियों में सरकारी लोन संपत्ति की तरह होता। लेकिन इससे बैंकों की संपत्ति की गुणवत्ता नहीं गिरती, क्योंकि सरकार द्वारा लिए गए लोन में कोई ख़तरा नहीं होता, उनके पास कर बढ़ाने का विकल्प मौजूद होता है। इसलिए डिरिजिस्ट रेज़ीम में राजकोषीय घाटे से वित्तप्राप्त सरकारी खर्च, बैंको की भंगुरता नहीं बढ़ाता, जबकि नवउदारवादी पूंजीवादी व्यवस्था में ऐसा हुआ है।

नवउदारवादी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में बैंकों की संपत्तियों की गिरती गुणवत्ता का पता हमें अमेरिका और दूसरे पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में आए 2008 के वित्त संकट से भी पता चलती है। उस संकट के पहले भारी मात्रा में उधार देकर ''हाउसिंग बुलबुला'' बनाया गया। इसके तहत रियल एस्टेट सेक्टर में लगातार उधार के ज़रिए बड़ा निवेश किया गया। बैंकों के नज़रिए से यह खराब गुणवत्ता वाली उधारियां थीं। लेकिन इस तथ्य को कुछ समय के लिए ''बनने वाले घरों की क़ीमतों'' की आड़ में छुपा लिया गया। हांलाकि बैंकों को यह आगे ही समझ आ जाना चाहिए था।

कई लोगों ने उस दौर में ''हाउसिंग बुलबुले'' को बनाए रखने के लिए बैंकों द्वारा दिए गए लोन की कई लोगों ने आलोचना की। लेकिन वह लोग यह देखना भूल गए कि अगर बैंकों ने ''हाउसिंग बुलबुले'' को बनाए रखने के लिए लोन न दिए होते, तो अर्थव्यवस्था का उछाल पहले ही खत्म हो गया होता। अमेरिका और दूसरी पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में पहले ही बड़े स्तर की बेरोजगारी छा जाती। दूसरे शब्दों में कहें तो आलोचना करने वाले लोग नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के ढांचागत विशेषताओं को नहीं देख पाए और व्यक्तिगत बैंकर्स की आलोचना करते रहे।

भारत में ठीक यही घटनाएं घट रही हैं। यस बैंक संकट के लिए सिर्फ उसके मालिक पर दोष मढ़कर (जिसने साफ तौर पर हड़बड़ी में लोन दिए) ज़्यादातर टिप्पणीकार यह बात भूल जाते हैं कि अगर वो और दूसरे बैंकर ऐसा न करें तो बड़े स्तर पर बेरोज़गारी छा जाए और आर्थिक संकट अपने तय वक्त से पहले आ जाएगा।

इन सब बातों के बीच इस तथ्य से नज़र नहीं हटाई जा सकती कि जमाकर्ताओं का पैसा इतनी भारी ज़ोखिम वाली जगह में मौजूद है. क्योंकि जमाकर्ताओं का पैसा इतने भारी जोखिम वाली जगह में मौजूद है, जहां उछाल बनाए रखने के लिए सरकार के कहने पर बैंक लोन देते हैं. एक नवउदारवादी व्यवस्था में  सवाल बैंकों के किसी तरह के व्यवहार का नहीं है. दरअसल ऐसी व्यवस्था में या तो बैंकों को बढ़ती दोगली प्रवृत्ति के लोन देना जारी रखना होगा (ताकी आर्थिक उछाल को जारी रखा जा सके) या फिर बुद्धिमत्ता दिखाते हुए ऐसी उधारी पर नियंत्रण लगाना होगा (ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था का उछाल जरूरत से पहले खत्म हो जाएगा, जिससे आर्थिक संकट पैदा होगा और सभी बैंक इसकी ज़द में आ जाएंगे).

नवउदारवादी अर्थव्यवस्था का वर्चस्व ज़्यादातर टिप्पणीकारों को इस तथ्य को नहीं देखने देता। इसलिए वे यस बैंक संकट को दूसरी चीज़ों के साथ जोड़कर नहीं देखते और इसकी पूरी ज़िम्मेदारी हड़बड़ी में दिए गए उधार पर डाल देते हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Why Have Indian Banks Become Financially Fragile?

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