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वैक्सीन और उससे पैदा होने वाला अंसतोष

जिस तरह से दुनिया में कोविड वैक्सीन का प्रचार हो रहा है, उससे इस भयावह वायरस के उपाय की खोज का मखौल उड़ रहा है।
वैक्सीन

आज "वैक्सीन" दुनिया में सबसे ज़्यादा जादुई, प्रतिस्पर्धी और मोहक शब्दों में से एक है। जबसे कोविड-19 हमारी जिंदगियों में आया और तबाही मचा रहा है, हममें से कई लोग वैक्सीन को पूरा खेल बदलने वाले और महामारी को नाश करने वाले अस्त्र के तौर पर देख रहे हैं। बड़ी फॉर्मा कंपनियां ऊंचे-ऊंचे दावे कर रही हैं और हम पर जादुई शब्द की बारिश कर रही हैं। 100 पहले आए स्पेनिश फ्लू के वक़्त से अब काफ़ी दुनिया बदल चुकी है। तब वैक्सीन नहीं हुआ करती थी। आज जब हमारे सामने नए कोरोना वायरस की चुनौती है, तब कम से कम हमें कुछ उम्मीद है। क्या यह वैज्ञानिक प्रगति के चलते संभव हुआ है या फिर पूरा मामला कॉरपोरेट जागीरदारी का है। या इसमें यह दोनों ही चीज शामिल हैं? चलिए इस सवाल का जवाब हम जादू, मोहक (प्रलोभन) और प्रतिस्पर्धा जैसे शब्दों में खोजते हैं, जिनसे हमने इस लेख की शुरुआत की थी।

हममें से बहुत सारे लोगों के बीच वैक्सीन जादू पैदा करती है। ऐसा क्यों है? कोरोना वायरस ने हमारी आवाजाही बंद कर दी, इसने हममें से कई लोगों की नौकरियां छीन लीं, हमसे यात्राएं करने और खुलकर जीने के मौके छीन लिए, हमारे मिलने-जुलने में स्वास्थ्य बाधा पैदा कर दीं। कई लोगों की मौत हो गई, कई लोग वायरस से संक्रमित होकर ठीक भी हो गए, लेकिन उनके साथ बड़ी स्वास्थ्य समस्याएं जुड़ गईं। कुलमिलाकर कोविड-19 ने जिस तरह से एक साथ दुनिया के इतने सारे लोगों को प्रभावित किया है, ऐसा हालिया वक़्त में किसी भी चीज ने नहीं किया। इसलिए अगर हमें इस महामारी से निकलने का कोई छोटा सा भी मौका नज़र आता है, तो उससे जुड़ी चीजें हमें जादुई लगती हैं। इस बिंदु से देखें, तो इसमें ना तो कोई शर्म है और ना ही कोई आश्चर्य कि कई लोगों का मानना है कि 'वैक्सीन हमें आजाद कर देगी'। लेकिन इस शोरगुल में बड़ा सवाल भी पैदा होता हैं: क्या वैक्सीन हमें वाकई इस महामारी से निजात दिलाएगी या फिर यह हमें एक और अनदेखी टेड़ी-मेड़ी स्वास्थ्य सड़क पर ले जाएगी?

हममें से कुछ लोगों को छोड़कर जिन्हें वैक्सीन शब्द जादुई नहीं लगता, उनके अलावा लोगों के दो प्रकार और हैं- पहले वो हैं जिन्हें यह शब्द बहुत मोहक लगता है। दूसरी तरह के वो लोग हैं, जिन्हें यह शब्द बहुत विवादित लगता है। अब हम मोहक शब्द पर ध्यान केंद्रित करते हैं। एक न्यूज़पेपर रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत समेत अलग-अलग देशों में ट्रेवल एजेंसियां दो रात, तीन दिन का पैकेज दे रही हैं, जिसमें कोविड-19 के खिलाफ़ टीकाकरण भी शामिल है। हम इसे वैक्सीन पर्यटन कहते हैं। समाजशास्त्र के हिसाब से कहें, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि खपत से चलने वाली अर्थव्यवस्था और संस्कृति, जहां पूरी दुनिया बाज़ार है, वहां कोविड-19 वैक्सीन को भी उपभोक्ता की आसक्ति की एक वस्तु बना दिया है। वैक्सीन के विज्ञापन पूरी तरह वैक्सीन का माखौल उड़ाते हैं, जो इस ख़तरनाक वायरस का संभावित उपाय हो सकता है। 

यह स्वाभाविक है कि बड़ी फॉर्मा कंपनियों को ग्राहकों को लुभाने के लिए बुद्धिमत्ता, बल्कि कुछ हद तक चालाकी दिखानी होगी। यह कंपनियां बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया कैंपेन चलाना शुरू कर चुके हैं, जिसमें भविष्य के निवेशों को सही ठहराने और उनके लिए प्रेरित करने का काम कर रहे हैं। वैक्सीन की कार्यकुशलता को छोड़ भी दें, तो भी कोई भी इस तरह की बाज़ार रणनीतियों की जड़ता से इंकार नहीं कर सकता, जो एक व्यक्ति को प्रभावी तौर पर सिर्फ उपभोक्ता बनाकर रख देती हैं। उदाहरण के लिए, जैसे ही ब्रिटेन ने घोषणा करते हुए कहा कि वे फाइज़र को अपने देश में वैक्सीन लगाने की अनुमति दे रहे हैं, भारत की लोकप्रिय लोगों ने लंदन के लिए फ्लाइट बुक करना चालू कर दिया, ताकि वे वृहद स्तर की टीकाकरण प्रक्रिया का हिस्सा बन सकें। कोई नहीं जान सकता कि यह उनकी मूर्खता है या धूर्तता। लेकिन बाज़ार के प्रलोभन की ताकत से कोई इंकार नहीं कर सकता।

अगली बात, जिस तरह से बड़ी फॉर्मा कंपनियां लोगों को वैक्सीन का प्रलोभन देने के लिए अपना सोशल मीडिया कैंपेन चला रही हैं, वह भी प्रलोभन का अगला स्त्रोत है। हमनें पढ़ा है कि किस तरह ओबामा, क्लिंटन औऱ बुश फाइज़र को प्रोत्साहन देने के लिए आगे आए और खुद का टीकाकरण करवाया और सोशल मीडिया पर इसका अंधाधुंध प्रचार करवाया।  ताकि लोग इस वैक्सीन पर भरोसा कर सकें। लेकिन यह लोग अब भी इस सवाल का जवाब नहीं दे पाते कि इन्होंने ट्रंप को वैक्सीन शॉट लेने के लिए आमंत्रित क्यों नहीं किया!

यह हमें तीसरे वर्ग पर लेकर आता है- ऐसे लोग वैक्सीन के आने से बहुत ऊहापोह की स्थिति में हैं। निराशावादी मानते हैं कि वैक्सीन को अपनी सफलता को साबित करने के लिए आदर्श तौर पर ज़्यादा वक़्त की जरूरत पड़ती है, कोविड-19 की जो वैक्सीन बाज़ार में आई है, वह भरोसेमंद नहीं है। इस पर ज़्यादा अविश्वास बड़ी फॉ़र्मा कंपनियों द्वारा वैक्सीन का जमकर प्रचार करने से भी बढ़ता है। कुछ विकसित देशों में सरकारों द्वारा बड़े स्तर के टीकाकरण की संभावना है, लेकिन यहां के नागरिक भी वैक्सीन द्वारा अपनी कार्यकुशलता के पूरे सबूत दिए जाने की बात से सहमत नज़र नहीं आ रहे हैं। ब्रिटेन और जर्मनी में सरकारें इस तरीके के बड़े कार्यक्रम चला सकती हैं। सवाल यह है कि अगर सरकार वृहद टीकाकरण को अनिवार्य बना देती है, तो क्या नागरिकों के पास राज्य-प्रायोजित स्वास्थ्य कार्यक्रम से हटने का विकल्प होगा?

वैक्सीन संशयवादियों के सामने एक और चुनौती राज्य और बाज़ार के कुख्यात गठजोड़ की है। जर्मनी में टीकाकरण की अनिवार्यता नहीं है, लेकिन संभावना यह है कि टीकाकरण सार्वजनिक संस्थानों की नौकरियों, स्कूलों में भर्ती, जर्मन नागरिकों के लिए अंतरराष्ट्रीय वीज़ा और देश में लंबे वक़्त के लिए रहने वालों के साथ-साथ रेसिडेंट परमिट पर रहने वालों के लिए पूर्व निर्धारित शर्त बन सकती है। इस पृष्ठभूमि से लगता है कि कागज़ पर भले ही वैक्सीन की अनिवार्यता ना हो, इसके बावजूद वैक्सीन किसी के सामाजिक विकास और आवागमन का उपकरण बन सकती है। उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया की सबसे बड़ी एयरलाइन क्वांटास एयरवेज़ लिमिटेड ने हाल में घोषणा करते हुए कहा है कि वे उन्हीं लोगों को अपने प्लेन में यात्रा करने की अनुमति देंगे, जो टीका लगवा चुके होंगे। यहां आश्चर्य होता है कि एयर लाइन यह किस तरह का ब्रांड प्रचार कर रही है, वह लोगों को खुद के शरीर के स्वास्थ्य से ही संबंधित, आधी जानकारी वाले विकल्प चुनने का दबाव बना रही है। इस पृष्ठभूमि में वैक्सीन को लेकर संशय रखने वालों को चिंता है कि कोविड-19 का टीकाकरण कोई आज़ाद करने वाला अनुभव साबित नहीं होगा, ना ही यह कोई खुश करने वाली गतिविधि होगी। कम से कम इन लोगों के लिए तो कतई नहीं, बल्कि यह दमघोंटू होने वाला है।

अब हम जादू, मोहक और संशयवाद पर वापस लौटते हैं, वैक्सीन पर्यटन औऱ वैक्सीन संरक्षणवाद दोनों पर ही हमें ध्यान देने की जरूरत है। यहां वैक्सीन विभाजन का जिक्र करना भी जरूरी है। यह मायने नहीं रखता कि कोई वैक्सीन के जादू में यकीन रखता है या इसे लेकर संशकित है, फिलहाल हम सबको चिंतित करने वाला सवाल यह है कि पहले किस को वैक्सीन लगाया जाना चाहिए और किसे इस प्रक्रिया से फिलहाल बाहर रखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, नाजी इतिहास वाला जर्मनी आज इस नैतिक सवाल का सामना कर रहा है कि किसे जिंदा रहने का ज़्यादा अधिकार है और राज्य की नज़रों में किसकी जिंदगी ज़्यादा कीमती है? भारत के मामले में भी ऐसी ही तर्क खोजे जा सकते हैं, जो पहले ही सांप्रदायिक और जातीय विभाजन से उबल रहा है। 

तो हम वैक्सीन के बारे में जितना जानते हैं, उससे कहीं ज़्यादा जानना अभी बाकी है! लेकिन हम एक बात निश्चित तौर पर जानते हैं कि वायरस की तरह ही, इसे मारने वाला वैक्सीन भी हमारी जिंदगी में भारी उथल-पुथल मचाएगा। सभी की नज़रे इसी पर टिकी हुई हैं। 

लेखिका कोलोन यूनिवर्सिटी में पराराष्ट्रीय प्रवास और आवागमन में लेक्चरर और शोधार्थी हैं। फिलहाल वे एक वेब टाक शो "कोरोना कंवर्शेसन्स: मोबिलिटी इन अ (पोस्ट) कोविड फ्यूचर" को आयोजित करती हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें। 

A Vaccine and its Discontents

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