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तालिबान के मज़बूत होने के कारण अब अफ़ग़ान महिलाओं के सामने अनिश्चित भविष्य

अमेरिका की ओर से अफगनिस्तान पर आक्रमण करने की मुख्य वजह को अफगानी महिलाओं की स्तिथि बताई गई थी। आज जब अमेरिका यहाँ से लौट रहा है और तालिबान दोबारा से सर उठा रहा है, तो ऐसे में आज महिलाओं की स्थिति क्या है?
 तालिबान के मज़बूत होने के कारण अब अफ़ग़ान महिलाओं के सामने अनिश्चित भविष्य
(फोटो: अफगानिस्तान टाइम्स के हवाले से)

8 जुलाई को अपनी प्रेस वार्ता के दौरान, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने दावा किया था कि 2001 में आक्रमण के बाद से अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपने सभी उद्देश्यों को हासिल कर लिया है। अपनी बात को साबित करने के लिए, उन्होंने ओसामा बिन लादेन को मार गिराने और अफगानिस्तान से उत्पन्न होने वाले आतंकवाद के खात्मे का हवाला दिया। हालाँकि, दो दशक बीत जाने के बाद, अमेरिका को जहाँ देश छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है, वहीँ तालिबान एक बार फिर से सबसे महत्वपूर्ण खिलाडी के रूप में उभर रहा है। इस सबके बीच, ऐसा लगता है कि बाइडेन इस बात को भूल गए हैं कि महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा अफगानिस्तान पर आक्रमण के लिए एक मुख्य वजहों में से एक थी। 

इस बीच, जहाँ एक तरफ अमेरिका की तरफ से इस मुद्दे पर तालिबान का सामना करने की अनिच्छा के प्रति विश्वासघात की एक उचित भावना निहित है, वहीँ अफगान महिलाएं देश में सत्ता पर किसका नियंत्रण स्थापित होगा, जैसी अनिश्चितताओं के बावजूद अपने अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने के लिए खुद को तैयार कर रही हैं।

एक और युद्ध की आशंका 

अफगानिस्तान में महिलाएं देश के दशकों पुराने युद्ध की सबसे भयावह शिकार रही हैं। 1990 के दशक के शुरुआत में समाजवादी सरकार के पतन के बाद से ही, महिलाओं को समाज में मौजूद रुढ़िवादी तत्वों के प्रभुत्व के खिलाफ महत्वपूर्ण संवैधानिक संरक्षण से मरहूम रखा गया है, जो महिलाओं को चारदीवारी के दायरे में ही बने रहने को पसंद करते हैं। 2001 के आक्रमण के बाद, अफगानिस्तान में तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारें महिलाओं के जीवन में किसी भी प्रकार के व्यापक बदलाव को लाने में विफल रही हैं। लोगों का तर्क है कि पूर्ववर्ती तालिबान शासन की तुलना में कुछ हद तक स्थिरता और नागरिक समाज समूहों के अभ्युदय के कारण महिलाओं की स्थितियां अपेक्षाकृत बेहतर थी। लेकिन अब, जबकि तालिबान के देश में सत्ता पर एक बार फिर से काबिज हो जाने की उम्मीद है, एक और युद्ध से उपजने वाली अनिश्चितता और अस्थिरता को देखते हुए शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में महिलाओं के बीच में वास्तविक भय का वातावरण है। 

यह भय मुख्य रूप से तालिबान के सन्दर्भ में अमेरिकी कार्रवाई को देखते हुए बढ़ गया है। अमेरिका आज तालिबान के समस्याग्रस्त अतीत को स्वीकारने या इसमें प्रमाणिक तौर पर सुधार करने की मांग करने में विफल साबित हुआ है। इसके बजाय, इसने ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं जो तालिबान को वर्तमान सरकार के खिलाफ युद्ध को जारी रखने की अनुमति प्रदान करता है, जिसे बनाने में अमेरिका ने मदद की थी और भविष्य में अफगान सरकार में तालिबान की भागीदारी को स्वीकार किया है। 

1996 से 2001 के बीच के तालिबानी शासन को महिलाओं की क्रूर अधीनता के तौर पर चिन्हित किया गया था, जिन्हें असंख्य प्रकार के आदिम प्रतिबंधों एवं दंडात्मक हिंसा को झेलना पड़ा था। अपनी वापसी की घोषणा करने से पहले, अमेरिका महिलाओं सहित समाज के सभी वर्गों के बुनियादी मानवाधिकारों की सुरक्षा के प्रति तालिबान से किसी भी प्रकार का आश्वासन हासिल कर पाने में विफल रहा है, जो कि अफगानिस्तान पर युद्ध को न्यायोचित ठहराने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले उसके मुख्य नारों में से एक था।

बदलाव के बारे में अमेरिकी दावों को ख़ारिज करते हुए ज्यूरिख विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहीं एक अफगान महिला, हीला नजीबुल्लाह ने पीपुल्स डिस्पैच को बताया कि यह सर्वविदित है कि महिलाओं के अधिकारों के बारे में तालिबान के दृष्टिकोण में 1990 के दशक से कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। उन्होंने इस तथ्य की ओर भी ध्यान दिलाया कि अमेरिका के साथ वार्ता के दौरान, तालिबान ने महिला नागरिक समाज समूहों से प्रत्यक्ष तौर पर जुड़ने से इंकार कर दिया था और अमेरिकी दूत को बिचौलिए के तौर पर काम करना पड़ा था। वे सोच में पड़ जाती हैं कि यदि तालिबान को इस्लामी शरिया कानून की अपनी व्याख्या के अनुसार शासन करने की अनुमति दी गई, जो कि सिर्फ एक विशेष वर्ग के लिए अरक्षित है, तो ऐसे में अफगानिस्तान में महिलाओं और अल्पसंख्यकों की स्थिति क्या होगी।

शांतिपूर्ण प्रतिरोध 

तालिबान की ताकत में बढ़ोत्तरी के साथ ही दूरदराज के इलाकों से महिलाओं को जबरन विवाह के लिए मजबूर करने, सार्वजनिक तौर पर कोड़े मारने, और अन्य प्रकार की भयावहता के शिकार होने की खबरें सामने आनी शुरू हो गई हैं। ऐसी भी खबरें हैं कि जिन क्षेत्रों में तालिबान का नियंत्रण स्थापित हो चुका है वहां पर महिलाओं को अपने घरों तक सीमित रहने और बुर्का पहनने के लिए विवश किया जा रहा है। कुछ जगहों पर तो आठ या बारह वर्ष से अधिक उम्र की लड़कियों के लिए स्कूलों को बंद करने के लिए कहा जा रहा है।

पिछले सप्ताह एसोसिएटेड प्रेस से बात करते हुए, दोहा में तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने कहा कि तालिबान शासन के तहत महिलाओं को स्कूल और काम पर जाने की “अनुमति” दी जायेगी। लेकिन उन्हें हिजाब या सर को ढकने वाले रुमाल को धारण करने के लिए मजबूर किया जायेगा। उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि घर से निकलने वाली महिलाओं के लिए साथ में पुरुष साथी का होना आवश्यक होगा।

तालिबान के दोबारा से उभार ने पहले से ही बड़ी संख्या में उन अफगानियों को, जो ऐसा कर पाने में सक्षम हैं, को देश से पलायन करने या इस बारे में योजना बनाने की ओर उन्मुख कर दिया है। हालाँकि, बहुसंख्य लोगों के पास यहीं पर बने रहने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। वहीँ कुछ अफगानियों ने लड़ने का मन बना लिया है। जुलाई के आरंभ में, महिलाओं ने अफगानिस्तान की सड़कों पर बैनर और कुछ ने हाथों में बंदूकें लेकर तालिबान विरोधी नारे लगाये। सबसे बड़े प्रदर्शनों में से एक मध्य घोर प्रांत में देखने को मिला। 

नजीबुल्लाह का तर्क है कि तालिबान और अन्य रुढ़िवादी ताकतों द्वारा महिला कार्यकर्ताओं और विद्वानों पर हमलों के बावजूद, वे अपनी आवाज को और अधिक अहिंसक तरीके से उठाने को तरजीह देंगी। हालाँकि, वे इस बारे में आशंकित हैं कि क्या अहिंसक प्रतिरोध न सिर्फ महिलाओं और लड़कियों के प्रति, बल्कि आम लोगों के प्रति तालिबान के क्रूर दृष्टिकोण को तब्दील करने में कारगर साबित हो सकेगा।

साभार: पीपुल्स डिस्पैच 

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