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अकाल से वीरान होता बुंदेलखंड

भारत के सबसे मध्य में स्थित बुंदेलखंड एक बार पुनः मौसम की मार से तबाह हो रहा है। पिछले 15 वर्षों में से तकरीबन 11 वर्ष सूखे, असामयिक वर्षा, ओलावृष्टि या पाला गिरने से ग्रसित रहे हैं। बुंदेलखंड पलायन के अंतहीन भंवर में फंस गया है। शासन व प्रशासन की उदासीनता स्थानीय नागरिकों के जीवन को और अधिक संकट में डाल रही है। पेश है सप्रेस से साभार भारत डोगरा का आलेख;

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड अंचल के बांदा जिले के नरैनी ब्लाक के गुढ़ेपल्हा गांव में कमलेष के परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की व्यवस्था करना निरंतर कठिन होता जा रहा था। अनेक गांववासी पहले ही मजदूरी के लिए पलायन कर चुके थे। वह भी मजबूरी में यही राह अपनाना चाह रहा था पर उसका 2 वर्ष का बच्चा बीमार था, इस कारण झिझक रहा था। अंत में उसने फैसला किया (या लेना पड़ा) कि चाहे बच्चा बीमार हो, पर परिवार का पेट भरने के लिए मजदूरी की तलाष में तो जाना ही पड़ेगा।

कमलेश अपनी पत्नी और बच्चे के साथ बस में बैठ गया। कुछ दूर जाने पर बच्चे की तबियत बिगड़ने लगी। लाचार माता-पिता देखते रह गए और बच्चे ने दम तोड़ दिया। जिस हालत में माता-पिता बच्चे को वापस लेकर गांव आए और दाह संस्कार किया उसे बयान करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं।

इसी ब्लाक के कटहेलपुरवा गांव में तुलसीदास नामक वृद्ध को गांव में छोड़कर उसका बेटा रोजी-रोटी की तलाष में पंजाब चला गया। तुलसीदास की तबियत अचानक बिगड़ने लगी एवं घर में इलाज के लिए पैसा भी नहीं था। उसकी पत्नी घबरा कर कुछ पैसे लेने मायके गई लेकिन उसी रात तुलसीदास की मृत्यु हो गई। अकेले होने के कारण किसी को उसकी मृत्यु हो जाने के बारे में तुरंत पता भी नहीं चला। देर से पता चलने पर उसके बेटे को तुरंत फोन से खबर की गई पर इतनी दूर से आने में देर लगी। उसके लौटने से पहले ही गांववासियों ने किसी तरह आपस में चंदा कर दाहसंस्कार किया।

मजदूरी के लिए दिल्ली, पंजाब, हरियाणा आदि विभिन्न स्थानों पर रोजगार के लिए  बुंदेलखंड  से जाने वाले किसानों व खेत-मजदूरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। उसके साथ ही गरीबी व तंगहाली की स्थिति में हो रहे इस पलायन से अनेक त्रासद घटनाएं जुड़ती जा रही हैं। जगह-जगह मजदूर अनिष्चित स्थिति में -ईंट भट्टों में, निर्माण स्थलों पर, खेत-खलिहानों में रोजगार के लिए भटक रहे हैं। उनकी मजबूरी का लाभ उठाकर प्रायः उन्हें कम मजदूरी दी जाती है। कई बार छोटे बच्चे भी अपने माता-पिता के साथ मजदूरी के लिए पलायन कर जाते हैं क्योंकि गांव से उनका ध्यान रखने वाला कोई नहीं है। गांव में बचे परिवारों के वृद्ध सदस्य भूख-प्यास, गर्मी व सर्दी की मार को झेलते हुए बेहद दर्दनाक जीवन जीने को मजबूर हैं।

बुँदेलखंड के कई गांवों में हाल की स्थिति पता करने पर गांववासियों ने बताया कि पिछली रबी की पकी-पकाई फसल असामयिक अतिवृष्टि व ओलावृष्टि से बुरी तरह उजड़ गई। खरीफ की फसल सूखे से बुरी तरह प्रभावित हुई थी। अब रबी की फसल की जल संकट के कारण बुवाई बहुत ही कम हुई है। अन्नदाता कहे जाने वाले किसान के घर में अपने खेत का कोई खाद्य नहीं बचा है। दूसरी ओर बाजार से खरीदने के लिए आमदनी नहीं है। अतः या तो कर्ज लेना पड़ रहा है या पलायन कर परिवार का पेट भरना ही एकमात्र विकल्प बचता है। उधर पषुओं के लिए की चारे का गंभीर संकट है। यदि वर्षा न हुई तो दो-तीन महीने में पेयजल संकट भी मनुष्य और पषुओं दोनों के लिए विकट स्थिति उत्पन्न कर देगा।

ऐसी विकट स्थिति में भी रोजगार गारंटी या मनरेगा का कार्यक्रम ठप्प पड़ा है। अनेक मजदूरों को बहुत पहले की गई मजदूरी का भुगतान अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। आंगनवाड़ी जैसे पोषण कार्यक्रम में भी कमी  आई है। किसानों व अन्य गांववासियों को गंभीर संकट का सामना करने के लिए शासन एवं प्रशासन ने अपने हाल पर छोड़ दिया गया।

एक बच्चे ने बात करने पर बताया कि वह स्कूल न जाकर जंगल में बेर बीनने जाता है ताकि पेट भर सके। डरते डरते मैंने उससे पूछा कि अंतिम बार दूध कब पिया था तो उसने कहा कोई तीन वर्ष पहले। एक गोष्ठी में मैंने कुछ किसानों से बातचीत की इसके बाद सबने एक साथ भोजन किया। भोजन में दाल-चावल था। कुछ सहमते हुए मैंने अपने साथ बैठे हुए किसान से पूछा कि क्या गांव में भी भोजन में दाल खाते हो ? तो उसने कहा कि दाल तो अब सपना है। इस पर मैंने पूछा कि इससे पहले दाल कब खाई थी तो उसने बताया कि कोई दो महीने पहले। इसके बाद उसने कहा, “यदि मैं आज यहां न आता तो शायद और न मालूम कितने ही दिन तक दाल न चख पाता।”

कुछ गांवों में पूछा कि दाल-सब्जी रहने दो। दोनों वक्त पेट भरने को रोटी कितने परिवार खा पा रहे हैं ?  इस पर लोगों ने बताया कि दो-तिहाई से अधिक परिवारों को यह भी प्राप्त नहीं हो पा रहा है।

ऐसी परिस्थिति में यह बहुत जरूरी हो जाता है कि सूखा व आपदा प्रभावित क्षेत्रों के दुख-दर्द को दूर करने को मुख्य प्राथमिकता बनाया जाए व सरकार बड़े पैमाने पर मनरेगा व सूखा राहत से संबंधित अन्य कार्य शीघ्र आरंभ करे। साथ ही यह भी सुनिश्चित करे कि इसका क्रियान्वयन पूरी ईमानदारी से हो। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं व विद्याधाम समिति जैसी कुछ संस्थाओं ने इन गांवों में अनाज बैंक व भूसा बैंक स्थापित किया है जिनसे लोगों को थोड़ी बहुत राहत भी मिली है। नागरिक संगठनो इस तरह के प्रयासों को को और व्यापक स्तर पर बढ़ाना चाहिए।

बुंदेलखंड से जिन क्षेत्रों में पलायन हो रहा है, उन क्षेत्रों जैसे दिल्ली आदि में सर्दी का सामना करने के लिए आश्रय उपलब्ध करवाने की बेहतर तैयारियां करनी जरूरी है। ऐसी संस्थाओं के पते व फोन नं. पलायन वाले गांवों में पहले से उपलब्ध होने चाहिए जो इन्हें आश्रय प्राप्त करने में मदद दे सकती हैं।

सौजन्य: संघर्ष संवाद 

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।

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