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#आपातकाल: 'जेपी ने मुझसे कहा था कि आरएसएस ने उन्हें धोखा दिया है!', जेपी नारायण को गिरफ़्तार करने वाले पूर्व आईएएस अधिकारी ने बताया

एक साक्षात्कार में, चंडीगढ़ के तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट एमजी देवसहायम, जो जेपी की क़ैद में निगरानी कर रहे थे क्योंकि उन्हें सबसे अलग रखा गया था, उन्होने नेता जी के साथ बिताए वक़्त की याद दिलाई। वह कहते हैं कि आरएसएस ने न केवल आपातकाल का, बल्कि जेपी का भी शोषण किया है।
Azaz
प्रतीकात्मक तस्वीर | फोटो साभार: Outlook

25-26 जून, 1975 की रात को, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने निजी सचिव आरके धवन को राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद के पास आपातकाल की घोषणा के मसौदे के साथ भेजा। आपातकाल लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 352 (I) को लागू करने वाले उद्घोषणा पर हस्ताक्षर करने के बाद, अहमद ने एक नींद की गोली खायी और सोने चले गए। देश भर में, भोर होने से पहले ही, पुलिस ने विपक्षी नेताओं को गिरफ़्तार करना और जेलों में बंद करना शुरू कर दिया, पकड़े गए नेताओं में से कई को महीनों तक बंद रहना पड़ा था।

गिरफ़्तार किए गए लोगों में जयप्रकाश नारायण भी शामिल थे, जो उस समय दिल्ली के गांधी पीस फ़ाउंडेशन में रह रहे थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दिग्गज, जयप्रकाश नारायण, जिन्हें लोकप्रिय रूप से जेपी के नाम से जाना जाता है, को श्रीमती गांधी के कोप का शिकार इसलिए बनना पड़ा क्योंकि वे लगभग दो वर्षों से उनके शासन के ख़िलाफ़ आंदोलन चला रहे थे। पड़ोसी राज्य हरियाणा के एक पर्यटक लॉज में जेपी को बंद किया गया। पांच दिन बाद, 1 जुलाई को उन्हें चंडीगढ़ ले जाया गया और पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल रिसर्च एंड एजुकेशन के गेस्ट हाउस में नज़रबंद कर दिया गया।

जो व्यक्ति अलगाव में रखे गए जेपी की कै़द में निगरानी के लिए नियुक्त किए थे, वे चंडीगढ़ के तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट एमजी देवसहायम थे। लोकतंत्र के पटरी से उतरने से ग़ुस्साए और देवसहायम के रूप में एकमात्र श्रोता मिलने से, जेपी ने अपने दिल की पूरी दास्तां देवसहायम को सुना दी, जिसको उन्होंने अपनी पुस्तक - "जेपी मूवमेंट: इमरजेंसी एंड इंडियाज़ सेकंड फ़्रीडम" में इसका पुरा विवरण दिया है। इस साक्षात्कार में, देवासहायम ने जेपी के साथ बिताए अपने समय की याद दिलाई, जो आशा और निराशा के बीच झूलते रहे, और जिन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर विश्वास किया था, और उन्हें मिला केवल विश्वासघात। उनके साथ साक्षात्कार के कुछ अंश पेश हैं:

प्र: मुझे लगता है कि आप पहली बार जेपी से तब मिले थे जब उन्हें 1 जुलाई को दिल्ली से चंडीगढ़ लाया गया था। क्या वे परेशान थे?

एमजीडी: वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, एमएल भनोट के साथ, मैं भारतीय वायु सेना के अड्डे पर गया, जहाँ इसके प्रभारी, एक एयर कमोडोर भी मौजूद थे। लगभग 10 बजे जेपी का विमान आया। वे सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने हुए थे। जेपी बिल्कुल आश्चर्यचकित दिख रहे थे, जैसे उन्हें पता ही नहीं था कि उनके साथ हो क्या रहा है।

क्या वे बीमार थे?
 
बिल्कुल नहीं, वे ठीक से चल रहे थे। उन्हें सौंपने की औपचारिकताएँ पूरी होने के बाद, भनोट और मैं जेपी के साथ एक कार में बैठे और पोस्टग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल रिसर्च एंड एजुकेशन के गेस्ट हाउस में चले गए [जिसे पीजीआई के नाम से जाना जाता है]। वे इतने चकित हुए जब भनोट और मैंने उन्हे वहाँ छोड़ा, तो उन्होंने हमसे पूछा कि क्या मैं दिल्ली लौट रहा हूँ। उनके दिमाग़ में यह बात आई ही नहीं कि हम चंडीगढ़ में स्थित अधिकारी थे, हालांकि हमने उन्हें अपना परिचय दे दिया था।

क्या हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसीलाल, जो बाद में आपातकाल के दौरान अपनी भूमिका को लेकर कुख्यात हुए, क्या उनके बारे में जानकारी लेते थे?

जब मैं घर लौटा तो आधी रात हो चुकी थी। मेरी पत्नी ने कहा कि बंसीलाल का फ़ोन आया था। मैंने लाल को फ़ोन किया, तो उन्होंने कहा, “ये साला अपने आपको हीरो समझता है। उसे वहीं पड़े रहने दो। न किसी से मिलने देना और न ही टेलीफ़ोन करने देना है।"

जेपी के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण था?

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मैं एक बच्चा था, इस आंदोलन के दौरान जेपी हज़ारीबाग़ जेल से भागने के कारण हीरो बन गए थे। मेरा भाई, जो मुझसे 15 साल बड़ा था, अक्सर जेपी के बारे में बात करता था, जो मेरे बचपन के हीरो बन गए थे। आप उनके प्रति मेरे दृष्टिकोण को अच्छी तरह समझ सकते हैं। आपातकाल से पहले एक दो साल तक, मैंने उस आंदोलन को बहुत क़रीब से देखा था जिसमें जेपी अग्रणी नेता थे [जिसे उन्होंने पूर्ण क्रांति कहा था]। वह देश के चेतनाशील नेता बन गए थे। इसके अलावा, भले ही मैं एक सिविल सेवक था, फिर भी मैं ख़ुद एक नागरिक होने के नाते सोचता था। मैं आपातकाल के पक्ष में नहीं था। मुझे पता था कि यही एकमात्र व्यक्ति है जो लोकतंत्र को वापस रास्ते पर ला सकता है।

क्या आपका दृष्टिकोण था जो जेपी से नियमित रूप से मिलने का कारण बना?

चंडीगढ़ में उनके आने के एक सप्ताह के बाद मैं उनसे दूसरी बार मिला। मैंने उन्हें जेल के नियमों के बारे में समझाया - जो उन्हें पत्र लिख सकते थे और जो उनसे मिल सकते थे। मैंने उनसे कहा कि मैं वो अख़बार ला सकता हूँ जिन्हे वे पढ़ना चाहते हैं। दो दिनों के बाद, उन्होंने अख़बार पढ़ना बंद कर दिया क्योंकि उन्हें लगा कि इन्हे सेंसर किया गया है।

कुछ दिनों बाद, जेपी ने शिकायत की कि उन्हें अलग-थलग क्यों रखा गया है। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या शहर में कोई जेल है। मैंने कहा, 'चंडीगढ़ में एक उप-जेल है, लेकिन इसमें आपके कद के व्यक्ति के लिए सुविधा नहीं है।' उन्होंने कहा कि उन्हें विलासिता के जीवन जीने की कोई परवाह नहीं है। 'मैं एक क़ैदी हूँ।' जेपी ने जवाब में कहा। वे ज़िद कर रहे थे कि उन्हें साथ की ज़रूरत है। मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि मैं दिल्ली से बात करूँगा [कि क्या उन्हें उप-जेल में स्थानांतरित किया जा सकता है]। मैंने बात की, लेकिन मुझे बताया गया था कि जेपी को पीजीआई में रहना है। इन परिस्थितियों में, मैं एकमात्र व्यक्ति था जो उसे कंपनी दे सकता था। मैं उनसे हर दूसरे दिन मिला और एक से दो घंटे का समय दिया।

क्या उनमें इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा और कड़वाहट थी?

नहीं, श्रीमती गांधी के प्रति उन्होंने कभी भी कड़वाहट नहीं दिखायी थी। उन्होंने अक्सर टिप्पणी की कि यह देश के भाग्य की विडंबना ही है कि जवाहरलाल नेहरू की बेटी [20वीं] सदी के महानतम लोकतंत्रों में से एक, लोकतंत्र को नष्ट कर रही हैं। उनके ग़ुस्से की अभिव्यक्ति इस हद तक रही कि उन्होंने कहा कि इंदिरा देश की प्रधानमंत्री बनने के लायक ही नहीं हैं।

आपने और जेपी ने किस तरह की बातें की?

प्रारंभ में, वे काफ़ी ग़ुस्से में थे। मैंने उन्हे शांत करने की कोशिश की। मैंने कहा कि ऐसे कई लोग हैं जो लोकतंत्र के अपमान का विरोध कर रहे हैं। और वे उपयुक्त समय पर आपातकाल के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की आशा कर रहे हैं। मैंने कहा कि उन्हें भी उम्मीद नहीं खोनी चाहिए।

लगता है आप एक काउंसलर की भूमिका निभा रहे थे।

हाँ, मैं उनकी काउंसलिंग कर रहा था। कुछ बैठकों के बाद, उन्होंने सवाल पूछना शुरू किया: आपातकाल कैसे घोषित किया गया? क्योंकि जो कुछ हुआ था, वे उससे बेख़बर थे। मैंने उन्हें बताया कि 25 जून -26 जून की रात राष्ट्रपति द्वारा [[अनुच्छेद 352 (I) के तहत]] आपातकाल की घोषणा की गई थी और इसे मंज़ूरी देने के लिए मंत्रिमंडल एक घंटे के बाद 6 बजे मुलाक़ात की और आपातकाल पर मोहर लगा दी। जेपी ने मुझसे पूछा कि क्या संसद ने आपातकाल की घोषणा को मंज़ूरी दी है। मैंने कहा कि इस उद्देश्य के लिए संसद का एक विशेष सत्र बुलाया गया था। उन्होंने राज्यों द्वारा उठाए गए क़दमों के बारे में पूछताछ की। मैंने कहा, तमिलनाडु की डीएमके सरकार को छोड़कर, सभी राज्य समर्थन कर रहे हैं।

जब संसद ने आपातकाल की घोषणा को मंज़ूरी दी, तो मैंने उन्हें इसके बारे में सूचित किया। जेपी बहुत परेशान थे। मैंने उन्हें संविधान के संशोधनों, जैसे कि [38 वें और 39 वें संशोधन] के बारे में भी सूचित किया, जिसने आपातकाल की घोषणाओं और अध्यादेशों की न्यायिक समीक्षा पर रोक लगा दी और मौलिक अधिकारों के साथ-साथ प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष के चुनावों को निलंबित कर दिया। उनकी आशाएँ धराशायी हो गईं, उन्होंने आमरण अनशन पर जाने का निर्णय लिया।

क्या संसद द्वारा 39वें संशोधन को पारित करने के तीन दिन बाद 10 अगस्त 1975 को उन्होंने यह निर्णय लिया?

ये सही है। 10 अगस्त रविवार का दिन था। उनके बहनोई, एसएन प्रसाद, कलकत्ता से उनसे मिलने आए थे। मैंने सुबह 11 बजे से उनकी बैठक निर्धारित की जिसमें कार्यकारी मजिस्ट्रेट महेंद्र सिंह को वहाँ उपस्थित होना था। जेपी से मिलने के बाद, प्रसाद चंडीगढ़ स्थित वकील, पीएन लखनपाल से मिलने गए।
सिंह मेरे आवास पर आए। मैंने कुछ दोस्तों को लंच के लिए आमंत्रित किया था। सिंह चिंतित दिख रहे थे। मैं उन्हें एक तरफ़ ले गया और पूछा कि क्या बात है। "कृपया इसे पढ़ें," उन्होंने जेपी द्वारा श्रीमती गांधी को लिखे एक पत्र की कॉपी को सौंपते हुए काहा, जिसकी एक कॉपी उनके लिए चिन्हित थी।

सिंह ने आपको यह पत्र कैसे दे दिया?

मेरी मंज़ूरी के बिना जेपी का कोई भी पत्र बाहर नहीं जा सकता था। उन्होंने बहुत स्पष्ट तरीक़े से लिखा था, कि वे लोकतंत्र की बहाली की सभी उम्मीदों से निराश हो चुके हैं, इसलिए अब उन्होंने आमरण अनशन पर जाने का फ़ैसला कर लिया है, जब तक कि श्रीमती गांधी ने आपातकाल वापस नहीं ले लेती और सभी राजनीतिक क़ैदियों को रिहा नहीं कर दिया जाता, मुझे लगता है, दो सप्ताह जैसा कि उन्होंने कहा कि वे नमक भी नहीं लेंगे। सिंह ने मुझे यह भी बताया कि जेपी ने प्रसाद को अपने फ़ैसले के बारे में प्रधानमंत्री को सूचित करने के लिए कहा था। मैं दंग रह गया था। मैंने अपने मेहमानों से कहा कि वे तब तक डोसा का आनंद लें जब तल में बूढ़े व्यक्ति से मिलकर आता हूँ। मैं पीजीआई के गेस्ट हाउस में दोपहर 1 बजे के कुछ देर बाद पहुँचा।

क्या जेपी उत्तेजित दिखे?

इसके विपरीत, जेपी काफ़ी हंसमुख दिख रहे थे। उन्होंने टिप्पणी की, “श्री देवसहायम, क्या हुआ? यह वह समय नहीं है जब आप मुझसे मिलने आते हैं।” मैंने उनसे पूछा कि आपने भुख हड़ताल पर जाने का फ़ैसला क्यों किया। उनका तुरंत जवाब था: कि "मैं लोकतंत्र और स्वतंत्रता के बिना नहीं रह सकता था।" हम बहस करने लगे।

क्या बहस गर्मा-गर्म थी?
 
जी हाँ बहस गर्म बहस हुई थी। मैंने उन्हें कायर भी कहा। मैंने कहा कि उन जैसे लोगों के बिना, भारत स्थायी रूप से आपातकाल और निरंकुशता में फिसल सकता है। वे मुझे झिड़कते रहे।

चूंकि आखिरकार वे आमरण अनशन पर नहीं गए, तो आपने उन्हें मनाया कैसे?

चूँकि मेरी कोई भी दलील काम नहीं कर रही थी, मैंने उनके साथ भावनाओं का खेल खेला। मैंने कहा कि मैं इंटेलिजेंस ब्यूरो की निगरानी में हूँ। हर कोई यह बात जानता था कि यह केवल मैं ही था जिसने उनसे बात की थी। मैंने उनसे कहा कि जिस क्षण उनका लिखा पत्र श्रीमती गांधी के पास पहुँचेगा, वे इसकी जांच कराएंगी कि जेपी को इस बात की सूचना किसने दी थी [जो बात पत्र में निहित है।] मैंने कहा कि उनके उपवास से लोकतंत्र की बहाली होगी या नहीं, लेकिन मुझे यहाँ से स्थानांतरित कर दिया जाएगा। मैंने कहा कि मैं आपकी देखभाल नहीं कर पाऊंगा।

मेरी भावनात्मक पिच काम कर गई। वह उपवास पर जाने के अपने फ़ैसले को वापस लेने के लिए सहमत हो गए। मैंने पत्र को फाड़ दिया, लेकिन टुकड़ों को बंजर टोकरी में फेंकने के बजाय, मैंने उन्हें अपने अभिलेखीय मूल्य के लिए अपनी जेब में रख लिया। मैंने एसएन प्रसाद को वापस बुलाने के लिए महेंद्र को भेजा जो दिल्ली के लिए बस में सवार थे। प्रसाद को बताया गया कि जेपी ने उपवास पर जाने के अपने फ़ैसले को रद्द कर दिया है। फिर भी, जब वह दिल्ली गए, तो उसने कुछ लोगों को जेपी के [निरस्त] उपवास के बारे में बता ही दिया।

कुछ दिनों बाद, एक आईबी अधिकारी पूछताछ करने के लिए मेरे कार्यालय में आया। मैंने उससे कहा, "जेपी उपवास पर जाना चाहते थे क्योंकि वे उन्हे परोसे जा रहे ख़राब भोजन से परेशान थे।"

जिस समय वे पीजीआई में थे, उस दौरान क्या जेपी और श्रीमती गांधी के बीच तालमेल बनाने की कोशिश नहीं की गई थी?

हमारे बीच बातचीत के दौरान, मैं अक्सर पूछता था कि क्या भारतीय लोकतंत्र की रक्षा के लिए श्रीमती गांधी के साथ सामंजस्य बनाना संभव है। थोड़ी देर बाद, उन्होंने कहा कि वे सुलह करने के लिए तैयार हैं बशर्ते पहल उनकी ओर से हो। हम इस बात पर चर्चा करने लगे कि सुलह प्रक्रिया को गति देने के लिए कौन सही व्यक्ति हो सकता है। उन्होंने शेख़ अब्दुल्ला का उल्लेख किया, जो जेपी और श्रीमती गांधी दोनों के क़रीबी थे। ज्ञानी जैल सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री थे। एक कॉमन दोस्त के जरिये मैं उनके संपर्क में आया।

क्या ज्ञानी जैल सिंह को सुलह का विचार पसंद आया?

जैल सिंह बंसीलाल के प्रतिद्वंद्वी थे। जैल सिंह, शेख़ अब्दुल्ला के संपर्क में आए, जो एक मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए सहमत हो गए। उन्होंने जेपी और श्रीमती गांधी के बीच सुलह की वकालत करते हुए एक बयान जारी किया। द ट्रिब्यून के मुख पृष्ठ पर इसे फ़्लैश किया गया था। यह सब व्यवस्थित था। मैं अख़बार को जेपी के पास ले गया। कुछ दिनों के बाद, उन्होंने अब्दुल्ला को एक सुंदर पत्र लिखा, हालांकि उन्होंने यह कहते हुए मज़बूत शब्दों को भी सम्मिलित किया कि, [वह सामंजस्य के लिए तैयार हैं] बशर्ते श्रीमती गांधी इसमें रुचि रखती हों।

मैं सीधे शेख़ को पत्र नहीं भेज सकता था। मैंने इसे गृह मंत्रालय को भेज दिया, जहाँ से इसे प्रधानमंत्री कार्यालय भेजा गया। संजय गांधी [इंदिरा गांधी के बेटे, जिन्होंने आपातकाल के दौरान संवैधानिक शक्ति का दुरुपयोग किया था] इस खेल में शामिल हो गए। जब इंदिरा गांधी सुलह के पक्ष में थीं, और पीएन धर ने, उनके प्रमुख सचिव से पूछा था, तो इसके लिए एक रास्ता खोजने के लिए, संजय ने पत्र को अब्दुल्ला के पास जाने से रोक दिया। इसके बजाय, गांधी के दूत चंडीगढ़ आए। उन्होंने वह पत्र वापस कर दिया जिसे जेपी ने अब्दुल्ला को लिखा था। (हंसते हुए कहते हैं)

तो सुलह की प्रकिया पहले से गड़बड़ा गई थी?

श्रीमती गांधी ने सुलह के प्रयास किए थे। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन के लेबर सांसद, फ़ेनर ब्रोकवे ने जेपी को एक पत्र लिखा, जिसे पढ़ने के लिए मुझे सौंप दिया गया। पत्र लगता था कि सुलह के लिए उनकी ओर से कुछ दलील दे रहा था।

पांच-छह दिन बाद, मैंने उनसे पूछा कि क्या लेबर एमपी को उनका जवाब तैयार है। जेपी ने कहा कि वे कल तक अच्छा महसूस नहीं कर रहे थे, और जब उन्होंने पत्र की तलाश की, तो वह उन्हे नहीं मिला। हमने पत्र की खोज की। वह नहीं मिला। वह चोरी हो गया था।

अब तक, उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था। उनका चेहरा सूजने लगा था, उसके शरीर में खुजली हो रही थी और वे हर समय खुजली करते रहते थे। एक आम आदमी के नज़रिए से देखा जाए तो वे एक बुरी स्थिति में थे। वे न तो सो सकते थे और न ही खा सकते थे।

आपने ऐसे में क्या किया?

मैंने पीएमओ को एक एसओएस (गम्भीर) संदेश भेजा। वह समय भी आया जब उनके भाई, राजेश्वर प्रसाद आए। हमने उनके माध्यम से एक पत्र भी भेजा। हमारे सभी तरह के संचार शुरू हुए, "अगर जेपी की जेल में मृत्यु हो गई ..." यह दिल्ली को कार्रवाई में उलझाने के लिए था। दिल्ली के मुख्य सचिव जेके कोहली 12 नवंबर को एक विशेष विमान से चंडीगढ़ गए थे।

जेपी रिहा हो गए थे, है ना?

यह इतना आसान नहीं था। फिर भी एक और कोशिश की गई। कोहली दो आदेशों के साथ आए थे - एक उन्हें बिना शर्त पैरोल देने का था और दूसरा उन्हें बिना शर्त ज़मानत देने का था। कोहली ने कहा कि अगर जेपी बिना शर्त ज़मानत लेने से इनकार करते हैं, तो उन्हें ओम मेहता [गृह राज्य मंत्री] से बात करने की ज़रूरत नहीं है। यह सब वैसा ही था जैसा कि वे उम्मीद कर रहे थे कि जेपी ज़मानत लेने से इनकार कर देंगे क्योंकि उन्होंने इसके लिए आवेदन नहीं किया था। मैंने जेपी को बिना शर्त ज़मानत आदेश को स्वीकार करने की सलाह दी। उन्होंने ऐसा ही किया, और 12 नवंबर को उन्हें रिहा कर दिया गया।
वे रिहा हो गए, लेकिन अब वे पीजीआई के मरीज़ थे। पीजीआई के निदेशक शहर से बाहर गए हुए थे। जब वह 14 नवंबर को चंडीगढ़ लौटे, तो मैंने उससे पूछा कि क्या वे जेपी का इलाज़ करना चाहते है या उनकी छुट्टी। उन्होने कहा कि वे उनकी छुट्टी करना चाहते हैं। जेपी ने 16 नवंबर को दिल्ली के लिए उड़ान भरी थी।

शिक्षाविद ज्ञान प्रकाश ने अपनी पुस्तक, इमरजेंसी क्रॉनिकल्स: इंदिरा गांधी एंड डेमोक्रेसी’स टर्निंग पॉइंट में लिखा है कि आपने "बाद में आलोचकों से सहमति व्यक्त की, जिन्होंने जेपी के स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाने के लिए एक ईमानदार साज़िश नहीं तो चिकित्सा उपेक्षा का आरोप लगाया था।"

मैंने पीजीआई के डिस्चार्ज डॉक्यूमेंट को पढ़ा, जिसमें कहा गया था कि जेपी किडनी की समस्या से पीड़ित थे। मैं यह पहली बार सुन रहा था। चंडीगढ़ प्रवास के दौरान, उन्हें कभी भी नेफ़्रोलॉजिस्ट के पास नहीं भेजा गया था। मैंने गेस्ट हाउस की लॉगबुक भी चेक की - डॉक्टरों की टीम के बीच एक भी नेफ़्रोलॉजिस्ट नहीं था, जो नियमित रूप से उनकी जांच करते हों।

ज्ञान प्रकाश अपनी किताब में यह भी कहा गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके राजनीतिक मोर्चे, जनसंघ को एक नए दल में शामिल कर इंदिरा गांधी को हराने की उनकी योजना पर आपने जेपी को चुनौती दी थी।

जेपी, जैसा कि सर्वविदित है, वे विभिन्न राजनीतिक संगठनों को एकजुट कर एक पार्टी बनाने की कोशिश कर रहे थे जो गांधी को हरा सके। उनके एकमात्र साथी के रूप में, जिन्हें मुझे बेटे के रूप में बुलाने की आदत सी हो गयी थी, क्योंकि उनका कोई बेटा नहीं था, मैं एक शैतान की भूमिका निभाता था। जब उन्होंने मुझे बताया कि वे जनसंघ को नई पार्टी में शामिल करना चाहते हैं, तो मैंने उन्हें उन्हीं के आरएसएस के बारे में दृष्टिकोण के बारे में याद दिलाया। मैंने 1968 में उनके द्वारा लिखे गए एक पत्र का अंश दिखाया। इस पत्र में उन्होंने आरएसएस को एक फ़ासीवादी संगठन कहा था, और यह एक सांस्कृतिक संगठन भी नहीं था, जैसा कि उसने अपने बारे में दावा किया है।
उनका दृष्टिकोण यह था कि कांग्रेस और श्रीमती गांधी ने लोकतंत्र को नष्ट कर दिया है। देश को पहले उनसे छुड़ाया जाना चाहिए। मैंने कहा कि उन्हें कम्युनिस्टों का साथ लेना चाहिए, जिनके साथ उनका वैचारिक संबंध है। लेकिन उनके कम्युनिस्टों के साथ कड़वे संबंध थे क्योंकि वे श्रीमती गांधी का सहयोग कर रहे थे।

केवल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सहयोग किया था, न कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने

हाँ आप सही हैं। मुझे लगता है कि यह इसलिए भी था क्योंकि माकपा उत्तर भारत में मज़बूत पार्टी नहीं थी। जेपी ने नानाजी देशमुख और इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयंका के प्रभाव के कारण जनसंघ को भी इसमें शामिल किया था।

लेकिन, सबसे बड़ी बात कि जेपी ने मुझे यह भी बताया कि (आरएसएस प्रमुख) बालासाहेब देवरस, एबी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने प्रतिज्ञा ली थी कि वे यह सुनिश्चित करेंगे कि जनसंघ का नई पार्टी में आने के बाद वे छह महीने के भीतर आरएसएस से अपना नाता तोड़ लेंगे। [एक बार जब नई पार्टी - जनता पार्टी का गठन किया गया, तो उसने दोहरी सदस्यता को रोक दिया, यानी यह कहना है कि इसके सदस्य किसी अन्य संगठन से संबंधित नहीं हो सकते तय हुआ।] जेपी ने कहा कि उनके पास कोई कारण नहीं था कि वे इन नेताओं प अविश्वास करें। वैसे, उन्होंने के. कामराज को एकजुट पार्टी का नेतृत्व करने के लिए संभावित उम्मीदवार के रूप में सोचा था। लेकिन 2 अक्टूबर को कामराज की मृत्यु हो गई थी।

क्या आप जेपी के इस तर्क से सहमत थे कि जनसंघ-आरएसएस के सदस्यों को नई पार्टी में शामिल कर लिया जाए?

नहीं, ज़िला मजिस्ट्रेट के रूप में, मुझे आरएसएस के साथ एक कड़वा अनुभव हो चुका था। वे क़ानूनों का उल्लंघन कर रहे थे। वे अनिवार्य रूप से, व्यापारियों को बचा रहे थे और क़ानून लागू करने वाली एजेंसियों के कर्मियों के साथ मारपीट भी कर रहे थे।

लेकिन वे आपातकाल के विरोध में काफ़ी मुखर थे, या नहीं?

वे आपातकाल के विरोध में उतने मुखर एवम स्थिर नहीं थे, जितना कि वे ख़ुद को दिखाते थे। उनमें से कुछ ने तो गांधी को माफ़ी का पत्र लिखा। चंडीगढ़ में, हमने उनमें से लगभग आठ-नौ को मीसा [मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट, एक घनघोर जनविरोधी क़ानून] के तहत गिरफ़्तार किया था। लेकिन एक व्यक्ति को छोड़, सभी ने माफ़ी पत्र लिखा था। [साक्षात्कारकर्ता का नोट: आरएसएस प्रमुख बालासाहेब देवरस ने गांधी को दो पत्र लिखे, समर्थन की पेशकश की और अपने संगठन पर प्रतिबंध हटाने का अनुरोध किया)

जनता पार्टी की सरकार के पतन के बाद, क्या आप जेपी से मिले?

चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद [29 जुलाई, 1979 को], मैं जेपी से मिलने पटना गया था। वह क़दम कुआं के अपने घर की दूसरी मंजिल पर डायलिसिस करवा रहे थे। उन्होंने मुझे बिस्तर पर बिठाया। हम बात करने लगे। जेपी जैसे टूट गए थे और बोले, "देवसहायम, मैं फिर से विफल हो गया हूँ।" मुझे बहुत बुरा लगा। यहाँ स्वतंत्रता आंदोलन के शीर्ष क्रांतिकारी नेताओं में से एक, एक फ़ायरब्रांड नेता, और उन्हें लगा कि वह असफ़ल हो गए हैं। "आप किस बारे में बात कर रहे हैं?" मैंने पूछा।
वे थोड़ा खुले। उन्होंने कहा कि जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद, उन्होंने चंद्रशेखर को मंत्रिमंडल से बाहर रखा था ताकि जनता पार्टी के प्रमुख के एजेंडे को सुनिश्चित किया जा सके कि दोहरी सदस्यता समाप्त की जाएगी और भारत में वास्तव में एक लोकतांत्रिक पार्टी का शासन है। जेपी ने मुझे बताया कि आरएसएस ने उनके साथ विश्वासघात किया और इसी कारण जनता पार्टी की सरकार गिर गई थी।

आलोचकों का कहना है कि जनता पार्टी में आरएसएस के नेताओं ने दोहरी सदस्यता समाप्त करने का वादा केवल इसलिए किया क्योंकि वे महात्मा गांधी की हत्या के लिए माहौल को अनुकूल बनाने के कलंक से ख़ुद को साफ़ करना चाहते थे और आपातकाल का फ़ायदा उठाना चाहते थे?

उन्होंने न केवल आपातकाल, बल्कि जेपी का भी शोषण किया। आरएसएस ने जेपी की वजह से सम्मान हासिल किया, फिर भी उसे धोखा दे दिया और डंप कर दिया।

क्या आपको लगता है कि समाजवादियों के पतन की वजह आरएसएस को आपातकाल विरोधी आंदोलन का एकमात्र संरक्षक बनने में कामयाबी मिली?

जेपी के पक्के अनुयायी अन्य पार्टियों में चले गए। नीतीश कुमार भाजपा के साथ गठबंधन में हैं। बिहार के किसी भी नेता - लालू यादव, नीतीश कुमार या रामविलास पासवान - ने जेपी की स्मृति को नष्ट किया और उसके संरक्षक बनने का प्रयास नहीं किया। इस सब ने आरएसएस को ख़ुद को आपातकाल विरोधी आंदोलन को उचित बनाने में सक्षम बनाया है।

क्या आप भाजपा-आरएसएस को लोकतंत्र का झंडाबरदार मानते हैं?

नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता। पिछले पांच वर्षों में, आपातकाल में जो कुछ भी हुआ, आज उससे कहीं ज़्यादा बदतर हालात बन गए हैं।

क्या वास्तव में?

आपातकाल में, लोग कम से कम यह जानते थे कि उनका दुश्मन कौन है। आज सभी संथानो को नष्ट किया जा रहा हैं। एक अत्यधिक केंद्रीकृत प्रशासन है, और संघीय सिद्धांत का नुकसान हो रहा है। यह एक-राष्ट्र, एक-चुनाव आख़िर है क्या? यह लोकतांत्रिक नहीं है। नोटबंदी/विमुद्रीकरण की नीति के बारे में क्या हुआ? उनके आर्थिक एजेंडे ने तबाही मचा दी है। यहाँ तक कि 2019 के चुनावी फ़ैसले से कई लोगों को चुनाव की निष्पक्षता पर संदेह हो गया है। ये लोग (संघ) निश्चित रूप से लोकतंत्र के ध्वजवाहक नहीं हैं।

लेखक दिल्ली में स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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