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आरएसएस के हमलों के खिलाफ छात्र संघर्ष में शिक्षा के मुद्दे केंद्र में लाने होंगे

इस लड़ाई में छात्रों की एकता तब ही बनेगी जब हम छात्रों को उनके मसलो और शिक्षा पर हो रहे नवउदारवाद व सांप्रदायिक हमलों पर लामबंद करेंगे।
student movement

भाजपा सरकार आरएसएस के निर्देशों के अनुसार शिक्षा व शिक्षण संस्थानों में लगातार हमले कर रही है। पिछले तीन वर्षो में ऐसे कई मामले हैं जहाँ पर आरएसएस के संगठनो के अतिरिक्त सरकार के मंत्री सीधे तौर पर शिक्षण संस्थानों पर प्रयतक्ष व अप्रत्यक्ष हमलों से जुड़े रहें है। इनमे से कुछ चर्चित संसथान है जवाहर लाल नेहरु विश्वविधालय, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविधालय, FTII, आईआईटी मद्रास आदि, जहाँ परिसर जनवाद पर तीखे हमले हुए है तथा लोकतान्त्रिक संस्कृति को ख़तम करने के प्रयास हुए हैं। पर इन सभी मामलों ने छात्रों ने इनका एकता के साथ मुहतोड़ जवाब दिया, जिसके चलते भाजपा सरकार को कई बार पीछे हटना पड़ा। छात्रों के मजबूत आन्दोलन को मीडिया में भी खूब जगह मिली व समाज के सभी वर्गों का सक्रीय सहयोग भी प्राप्त हुआ जब जनता के तमाम हिस्से हजारों की संख्या में छात्रों के साथ खड़े दिखे। परन्तु इन प्रतक्ष हमलो की आड़ में भाजपा सरकार बड़े ही गुपचुप तरीके के साथ एक शाजिश के तहत सार्वजानिक शिक्षा के ढांचे को नष्ट करने के लिए कार्यरत है, जिसकी तरफ लोगों का ध्यान कम जा रहा है। यह बड़े ही सुनुओजित तरके से किया जा रहा है, छात्रों को उलझा कर गुपचुप तरीके से शिक्षा के व्यावसायीकरण तथा वस्तुकरण किया जा रहा है। शिक्षा के सांप्रदायिकारण की शाजिश तो फिर भी दिखती है परन्तु शिक्षा सुधारों के नाम पर ढांचागत वदलाव किये जा रहे है। छात्र संगठनों ने इसके खिलाफ आंदोलन भी किये है परन्तु मीडिया तो इससे विमुख ही रहा है और न ही इसके खिलाफ कोई प्रसिद्द आंदोलन बन पाए हैं।

समय की मांग है कि शिक्षा से जुड़े आधारभूत मुद्दों पर व शिक्षा निति पर एक बार फिर ध्यान केंद्रित किया जाए तथा यह जरूरी है की वर्तमान सरकार की शिक्षा निति की बारीकी के साथ जांच की जाए। दरअसल भाजपा नीत केंद्रीय सरकार के पास शिक्षा की कोई ठोस निति है ही नहीं जिसे वह छात्रों व जनता को दिखा सके। इतना समय गुजर जाने पर भी नई शिक्षा निति के नाम पर कुछ नहीं किया गया है। सब कुछ एक तरह से तदर्थवाद पर ही चल रहा है। दरअसल यह स्तिथि जनता को भ्रमित करने में कुशल इस सरकार के लिए ज्यादा अनुकूल है जब कोई निति नहीं मतलब कोई चर्चा व आलोचना नहीं। भाजपा का जब मन होता है तो UGC तथा मानव संसाधन विकास मंत्रालय से अधिसूचना या यूं कहें कि फ़तवा जारी कर दिया जाता है, बिना किसी चर्चा व संवाद के। इस तरह पिछले तीन वर्षो में भाजपा सरकार ने जनतांत्रिक संस्थानों व प्रक्रियाओं को ख़तम करने काम किया है।

भाजपा सरकार उच्च शिक्षा में पिछली UPA II सरकार की राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (रूसा) को ही आगे बड़ा रही है, जो अपने आप में शिक्षा के व्यावसायीकरण को ही आगे बढ़ाता है। रूसा के तहत कक्षा में पड़ने पढाने की प्रक्रिया व मूल्यांकन को पूरी तरह बदलने के प्रावधान है। छात्रों को परीक्षा और असाइनमेंट के कुचक्र में ही उलझा दिया गया है जिससे कक्षा में अध्यापन का समय बुरी तरह प्रभावित हुआ है। छात्र व अध्यापन में परस्पर संवाद में कमी आयी है। अध्यापक भी अध्यापन को छोड़ कर बाकी सब कामों में अतिव्यस्त है। जिन राज्यों में इसे लागू किया गया है वहां से छात्रों के रोष की लगातार खबरे आ रही हैं। परीक्षा परिणामों में देरी (सालों की) व परिणामों में भारी गड़वड़ी की खबरे आम बात हो गई। दरअसल मूल्यांकन का अधिकतर काम आउटसोर्सिंग के जरिये निजी कंपनियों को दिया गया जो छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ कर रही हैं। अब सेमेस्टर परीक्षाओं के लिए ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्नों का प्रस्ताव लागू किया जा रहा है जो नियमित परीक्षा की मूल भावना के ही खिलाफ है तथा केवल प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी है। योगी जी का उत्तर प्रदेश बीच समेस्टर में इसे लागू करने वाला पहला राज्य बना है जहाँ मगध विश्वविद्यालय में इसे शुरू किया गया है। ये तथाकथित शिक्षा सुधार, शिक्षा के चरित्र को बदल कर इसे महज डिग्री नुमा कागज के टुकड़े में तबदील करने के सिवाय कुछ नहीं हैं।

देश में शिक्षकों के लाखों पद खाली पड़े है, उन पर नियुक्तियों के बजाय सरकार शिक्षक छात्र अनुपात ही बदल रही। तकनीकी शिक्षा जिसमे दक्षता एक महत्वपूर्ण मापदंड है में सरकार ने शिक्षक छात्र अनुपात पहले ही बदल दिया है। इसका पता हमें तब चला जब दिसंबर महीने के पहले सप्ताह में एआईसीटीई ने स्व-वित्त संस्थानों के अनुमोदन के लिए वर्ष 2018-19 की हैंड बुक जारी की जिसमे शिक्षक छात्र अनुपात को 1:15 से बदलकर 1:20 निर्णय लिया गया है।

जेएनयू और अन्य विश्वविद्यालयों में शोध के क्षेत्र (एमफिल व पीएचडी) में सीट को कम करने की यूजीसी की राजपत्रित अधिसूचना के चलते छात्रों के लिए शोध के अवसरों में भारी कमी आयी है। जहाँ तक कि एमफिल के छात्र भी शोध में अपने भविष्य को लेकर निश्चित नहीं हैं क्योंकि पीएचडी में उनके संस्थानों में सीटें ही नहीं हैं। छात्रों ने इस गैरजनवादी अधिसूचना के खिलाफ आंदोलन किया परन्तु जरूरी दबाव बनाने में असफल रहें। न्यायपालिका ने भी इसे लागू करवाने में एक भूमिका अदा कई। दरअसल यह छात्रों को शोध में उच्च शिक्षा से वंचित करने का एक तरीका है क्यांकि अभी तक वर्तमान ढांचे के साथ भी विश्वविद्यालय इतने ही छात्रों को शोध करवा रहे हैं। हालाँकि यह कहने की जरूरत नहीं कि विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के हजारों रिक्त पद शोध के इन अवसरों को और ज्यादा काम कर देते हैं।

सरकार नवउदारवाद की नीतियों के निर्देशों के चलते सार्वजानिक शिक्षा प्रणाली के ढांचे को भी खत्म करने की लिए उतारू है। देश की उच्च शिक्षा, विशेष तौर पर तकनीति व व्यावसायिक शिक्षा पहले ही ज्यादातर निजी हाथों में दी जा चुकी है क्योंकि भारत में उच्च शिक्षा में 62 प्रतिशत छात्र निजी शिक्षण संस्थानों में जाते है। प्राथमिक शिक्षा भी मुनाफे की इस दौड़ से नहीं बच पाई है। हमने देखा है किस तरह एक आपराधिक साजिश की तरह सार्वजानिक प्राथमिक शिक्षा प्रणाली को बदनाम किया गया तथा साथ ही निजी शिक्षण संस्थानों को सरकार की नीतिओं के द्वारा पोषित किया गया। आज यह आम धारणा बन गई है की सरकारी स्कूल अच्छे नहीं होते व अपने बच्चों को निजी स्कूलों में ही पढाना चाहिए। वर्तमान में हमारी राज्य सरकारें इस सार्वजानिक शिक्षा के ढांचे को पूरी तरह तबाह करने में जुटी हैं। अब जबकि बड़ी संख्या में छात्रों का सरकारी स्कूलों से प्राइवेट में पलायन हो गया है, सरकार कम छात्र संख्या का हवाला देकर इन स्कूलों को या तो बंद करने जा रही है या पी पी पी (PPP) के आधार पर निजी हाथों में सौंपने जा रही हैं। राजस्थान सरकार ने पीपीपी मॉडल पर 225 स्कूलों को चलाने का निर्णय लिया है, जिसका अर्थ है कि सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में देना। मध्यप्रदेश सरकार ने काम बच्चों का हवाला देते हुए 15,000 सरकारी स्कूलों को बंद करने की योजना बनाई है। इसी तरह महाराष्ट्र सरकार ने करीब 13,905 स्कूलों को बंद करने का फैसला किया है। इसी तरह की खबरें ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा सहित कई राज्यों आ रहीं हैं जहां सरकार ने बड़ी संख्या में सरकारी स्कूलों को बंद करने का फैसला किया है।

केंद्र सरकार ने पिछले बजट में उच्च शिक्षा को निधि उपलब्ध करवाने के लिए हायर एजुकेशन फंडिंग एजेंसी (Higher Education Funding Agency ‘HEFA') के नाम से एक संस्था का गठन किया जो उच्च शिक्षण संस्थानों को दस वर्षों के आधार पर ऋण उपलब्ध करवाएगा। इसी वर्ष HEFA ने आईआईटी बॉम्बे, दिल्ली, मद्रास, खड़गपुर, कानपुर और एनआईटी सूरतगढ़ जैसे संस्थानों को 2,066.73 करोड़ रूपये के ऋण आंबटित कर दिए। हैं। अब बड़ा प्रश्न यह है कि यह संसथान इस ऋण को वापिस कैसे करेंगे। यह शिक्षण संसथान है न कि निजी व्यावसायिक उद्यम जो पूँजी से मुनाफा कमाएंगे और ऋण चुकाएंगे, वह अलग बात है कि भारत में बड़ी कंपनियों के मालिक जो भरी मुनाफा कमा रहें हैं वह भी सरकारी बैंकों से लिया कर्ज वापिस नहीं कर रहें और बैंको के NPA लगातार बढ़ते जा रहे हैं हमारी सरकारों ने भी इन पूंजापतियों को खुली छूट दे राखी हैं। ऐसे लगता है की हेफा के माध्यम से सरकार उच्च शिक्षण संस्थानों को सीधे तौर पर निर्देश दे रही हैं कि उनको ऋण चुकाने के लिए भविष्य में मुनाफे कमाने होंगे जिसका सीधा मतलब है शिक्षा का वस्तुकरण। हेफा के अनुसार 'इस ऋण का मुख्य भाग 'आंतरिक संचय' के जरिये चुकाया जायेगा और यह आंतरिक संचय फीस व शोध कमाई आदि के माध्यम से अर्जित किया जायेगा। यह हमारे सार्वजनिक क्षेत्र के शिक्षा संस्थानों को वाणिज्यिक इकाइयों में परिवर्तित करने का एक स्पष्ट प्रयास है।

पिछले कुछ समय में सीएसआईआर (CSIR) प्रयोगशालाओं और विश्वविद्यालयों में अनुसंधान के लिए फंड में भारी कमी की गई है, अनुसंधान फैलोशिप कम की गई है, यूजीसी द्वारा नॉन नेट फेलोशिप को छात्रों के भरी विरोध के बाद बंद कर का फैसला तो वापिस ले लिया पर यह अनियमित है, पोस्ट मेट्रिक (Post Metric) छात्रवृतिया छात्रों को नहीं मिल पा रही है क्योंकि केंद्र सरकार इसके लिए प्रयाप्त बजट का आबंटन नहीं कर रही है, नेट की परीक्षा को लगातार बदलकर साल में एक बार करने की कोशिश की जा रही है सहित अन्य कई तरह की छात्र विरोधी नीतियां केंद्र सरकार द्वारा लागू की जा रही हैं। छात्रों ने इन नीतियों की खिलाफत भी की है परन्तु भाजपा बड़े ही तरीके से छात्रों का ध्यान भटकाने में लगभग सफल रही है। इसके चलते शिक्षा व छात्र मुद्दों पर बहस की दिशा ही बदल गई है। बीजेपी का प्रयास रहा है की छात्रों को राष्ट्रवाद, धर्म, भारतीय सेना का मान सम्मान अदि मुद्दों में उलझाया रखा जाये जिसमे कुछ हद तक वह सफल भी रही है क्योंकि छात्र भी उनके इस चक्र में फंस कर इन्ही मुद्दों को स्पष्ट करने में लगे रहे हैं। हालाँकि छात्रों और जनता में इन मुद्दों पर स्पष्ट समझ रखना बहुत महतवपूर्ण है। इसके अतिरिक्त आरएसएस व इसके संगठनों द्वारा अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं,आदिवासियों, प्रगतिशील लेखकों तथा पत्रकारों पर लगातार बढ रहें हमलों ने ऐसी स्तिथि पैदा कर दी कि छात्र आंदोलन के लिए इनके खिलाफ आंदोलन व प्रचार करना वाध्यता बन गया। सुखद बात यह है कि छात्रों ने जनता के बाकी हिस्सों के साथ देश को तोड़ने वाले इन हमलों का सफलता के साथ सामना किया। परन्तु इस सब में छात्रों के आधारभूत मुद्दे व सार्वजानिक शिक्षा के खिलाफ बीजेपी की साजिश कहीं अनदेखा रह गई, जो की बराबर के महत्व की लड़ाई है।

मेरा मानना है कि समाज समाज को प्रभावित करने वाली सामाजिक तथा आर्थिक नीतियों को समझना और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष छात्र आंदोलन की महत्वपूर्ण जिम्मेवारी है क्योंकि छात्र समाज का अभिन्न हिस्सा है। शिक्षा व्यवस्था की वेहतरी समाज के विकास पर बहुत निर्भर करती है। पर इन सबके साथ शिक्षा के सवाल छात्र आंदोलन के लिए मुख्य सवाल है। भाजपा सरकार विधार्थियों के मुद्दों से ध्यान भटकने का प्रयास कर रही है। वैसे भी भाजपा को इस तरह का कुप्रचार कर जनता को अपने असल मुद्दों से गुमराह करने में महारत हासिल है। इसी के चलते पूरे देश में धार्मिक, जाति और राष्ट्रीय गौरव जैसे चर्चा के मसले थोपे गएँ है और रोज़गार, स्वास्थ्य सेवाओं, आर्थिक विकास, कृषि संकट, महंगाई आदि असल मसलों पर चर्चा से मोदी सरकार बचती आयी है।

छात्र आंदोलन के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर व्यापक समझ रखना बहुत महत्वपूर्ण है। समाज में होने वाले किसी भी अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना,  समाज के बंचित तबकों के शोषण के खिलाफ संघर्ष और सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई छात्र आंदोलन का एक अभिन्न अंग है, लेकिन उनकी मुख्य जिम्मेदारी है छात्रों को परिसरों व शिक्षा की मांगों पर लामबंद करना है। हम सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष का एक अहम् हिस्सा होने की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, जब तक हम अपने परिसरों में सामाजिक न्याय के सवाल पर मजबूत संघर्ष नहीं लड़ते हैं। हमें भाजपा और आरएसएस के इस षड्यंत्र को समझना होगा और शिक्षा के मुद्दों पर व शिक्षा के सांप्रदायिकता के खिलाफ ध्यान केंद्रित करना होगा।

यह किसी एक लड़ाई को प्राथमिकता देने की या किसी एक का ज्यादा महत्वपूर्ण होने की बात नहीं है, यह किसी एक को चुनने का कोई प्रश्न नहीं है, बल्कि एक द्वंद्वात्मक बात है जहां हमें छात्रों के बुनियादी मांगों के संघर्ष को सामाजिक संघर्ष, सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्षऔर जनवाद को बचाने के संघर्ष के साथ जोड़ना होगा। हम जानते हैं कि सांप्रदायिकता और सत्तावादीता की विकराल चुनौती का सामना करने के लिए हमें एकता की आवश्यकता है। इस लड़ाई में छात्रों की एकता तब ही बनेगी जब हम छात्रों को उनके मसलो और शिक्षा पर हो रहे नवउदारवाद व सांप्रदायिक हमलों पर लामबंद करेंगे। सांप्रदायिकता व नवउदारवाद की इन नीतियों की इस बड़ी लड़ाई में छात्रों के लामबंदी का केंद्र शिक्षा के सवाल ही बनाने होंगे तभी हम, अपनी सार्वजानिक शिक्षा को और विविधता वाले अपने देश व इसके संविधान की आरएसएस परिवार से रक्षा कर पाएंगे। 

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