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उत्तरप्रदेश में चुनाव पूरब की ओर बढ़ने के साथ भाजपा की मुश्किलें भी बढ़ रही हैं 

क्या भाजपा को देर से इस बात का अहसास हो रहा है कि उसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कहीं अधिक पिछड़े वर्ग के समर्थन की जरूरत है, जिन्होंने अपनी जातिगत पहचान का दांव खेला था?
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प्रतीकात्मक तस्वीर। चित्र साभार: ज़ी न्यूज़ 

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2017 के चुनावों के पांचवे चरण के मतदान में 61 सीटों में से 50 पर जीत हासिल की थी, लेकिन अब जबकि वर्तमान में जारी विधानसभा चुनाव का पांचवा चरण संपन्न हो गया है, ऐसा प्रतीत होता है कि पार्टी स्पष्ट तौर पर भारी उलझन की शिकार है। वैसे देखें तो इसकी परेशानी पहले ही चरण में ही शुरू हो गई थी, जो कि बाद के प्रत्येक चरण के साथ गहराती चली गई है। अब ऐसा जान पड़ता है कि यह गिरावट बाकी के तीन चरणों में भी जारी रहने वाली है। 

दो हफ्ते पहले, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, “आएगा तो योगी ही।” लेकिन आदित्यनाथ के निर्वाचन क्षेत्र, गोरखपुर में लगीं होर्डिंग्स में मुख्यमंत्री के बजाय मोदी को कहीं अधिक तरजीह दी जा रही है। इसके साथ ही साथ प्रदेश में, भाजपा नेत्री और मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री, उमा भारती के अचानक से लगे पोस्टरों की भरमार के पीछे भी विरोधाभास नजर आता है। भारती पिछड़े लोध समुदाय से ताल्लुक रखती हैं, और बुंदेलखंड क्षेत्र और इसके आसपास के क्षेत्रों में, जहाँ पर चुनाव संपन्न हो चुके हैं में उनका कुछ प्रभाव है। इस चुनावों में उन्होंने शुरुआती चरण में भाजपा के लिए प्रचार किया था, लेकिन अब ऐसा लगता है वे इससे पीछे हट गई हैं, और उनकी पार्टी सिर्फ उनके पोस्टरों से काम चला रही है।

टिप्पणीकारों के लिए बेहद हैरानी की स्थिति बनी हुई है कि आखिर पार्टी इस तरह के विरोधाभासी संकेतों को क्यों दे रही है। इनमें से कुछ का कहना है कि कुछ दिन पहले आदित्यनाथ के इस ऐलान कि वे एक क्षत्रिय हैं जो कि अवतारों का वर्ण है, ने उनके शासन के राजपूत/क्षत्रिय रुख की पुष्टि कर दी है। आदित्यनाथ के बयान में जो बात एकदम स्पष्ट हो जाती है जिसे डॉ बीआर अंबेडकर ने जाति के वर्णन को “एक व्यवस्था जिसके आरोही क्रम के लिए सम्मान और अवरोही क्रम के लिए तिरस्कार” के रूप में किया है। ऐसा माना जाता है कि भारती की उपस्थिति पिछड़े समुदायों को शांत कर सकती है, जो आदित्यनाथ शासन के क्षत्रिय समर्थक छवि और कृत्यों की वजह से उनमें नाराजगी बनी हुई है।

इस चुनाव के बारे में लगातार इस बात को कहा जा रहा है कि भाजपा ने पिछड़े वर्ग के नेताओं को खो दिया है और धार्मिक आधार पर मतदाताओं को ध्रुवीकृत कर पाने में अभी तक विफल रही है, जिसके परिणामस्वरूप मतदाता अपने-अपने मूल पहचानों की खोल में वापस मुड़ चुके हैं। यह एक सच्चाई है कि धार्मिक ध्रुवीकरण मुस्लिम मतदाताओं को अलग-थलग कर भाजपा को हिंदुत्व की छत्रछाया तले जातीय विभाजनों को खत्म करने में मदद पहुंचाता है। अब जबकि यह रणनीति विफल हो गई है, तो भाजपा उस पैमाने पर प्रचंड बहुमत की कमान नहीं हासिल कर सकती है जैसा कि इसे 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में हासिल हुआ था।  

27 फरवरी से शुरू होने जा रहे विधानसभा चुनाव के आखिरी तीन चरणों में इस प्रस्थापना की परीक्षा होने जा रही है। चुनावी नतीजों को तय करने में जाति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लेकिन पिछड़े वर्गों के बीच में यदि हिंदुत्व का आकर्षण फीका पड़ जाता है तो इसका अर्थ होगा कि भाजपा के लिए मुश्किलें और बढ़ सकती हैं और समाजवादी पार्टी (सपा) अपनी स्थिति को और भी सुदृढ़ कर लेगी। 

2017 के चुनावों में, भाजपा ने अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी) के बीच में अच्छा-खासा आधार रखने वाले राजनीतिक समूहों के साथ गठबंधन बना रखा था। यहाँ तक कि दलितों के एक वर्ग ने भी इसके लिए वोट किया था, हालाँकि यह प्रभुत्वशाली एवं अभिजात्य जातियां थीं जिन्होंने इसे अपना “इकतरफा” समर्थन दिया था।

अब जबकि ओबीसी ने, जिन्होंने भाजपा को आवश्यक संख्या प्रदान की थी, ने कथित तौर पर समाजवादी पार्टी के साथ हाथ मिला लिया है, जिसके प्रमुख अखिलेश यादव ने सभी जातियों में पिछड़े नेताओं के अपेक्षाकृत विविध समूहों को इस बार चुनावी मैदान में उतारा है। इसने इसकी अपील को बढ़ाया है और इसे सामाजिक न्याय के एजेंडे में निवेश के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा रहा है। इसे देखते हुए, 10 मार्च को ही यह स्पष्ट हो सकेगा, जिस दिन चुनाव नतीजे आयेंगे कि कितनी दूरी तक कमंडल के समर्थकों को मंडल पीछे धकेलने में सक्षम है।  

भाजपा ने संभवतः उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में अपने पारंपरिक मतदाताओं, भूमिहारों को भी नाराज कर दिया है, जहाँ 7 मार्च को अंतिम चरण में चुनाव होने हैं। इस जाति के सदस्य पारंपरिक तौर पर भाजपा के साथ खड़े रहे हैं, लेकिन अब इस प्रकार की अफवाह है कि वे नाराज चल रहे हैं, खासकर जबसे पार्टी ने उनके समुदाय के उम्मीदवारों को मैदान में नहीं उतारा है। कहा जा रहा है कि वे अब समाजवादी पार्टी के पक्ष में लामबंद हो रहे हैं और भाजपा डैमेज कंट्रोल वाली मुद्रा में आ गई है। इसी प्रकार, दलित समुदाय में पासी या पासवान हैं जो संख्यात्मक ताकत के लिहाज से मध्य उत्तर प्रदेश में बिखरे हुए लेकिन पूर्वांचल में इनकी उपस्थिति संकेंद्रित है, का भी समाजवादी पार्टी की तरह झुकाव बढ़ रहा है।

ये असाधारण घटनाक्रम हैं, यह देखते हुए कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश के लगभग सभी निवासियों को पाने के बजाय मतादाताओं को खो देने के लिए हर लिहाज से खुद को प्रेत-बाधा से ग्रस्त कर लिया है। 

मान लीजिये यदि पिछड़े वर्गों और दलितों ने समाजवादी पार्टी के पीछे आने का फैसला कर लिया तो क्या होगा। उस स्थिति में, इसके कारणों का अंदाजा लगाना आसान होगा, जो कि इस प्रकार से हैं: आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के लिए घोषित 10% आरक्षण ने उत्तरप्रदेश के समाज के वंचित वर्ग को विक्षुब्ध कर रखा है। इस आरक्षण को अभिजात्य जातियों के लिए एक मिठास के तौर पर व्यापक रूप से देखा जाता है, जबकि गैर-अभिजात्य वर्ग के सामाजिक समूह के सदस्य संवैधानिक रूप से गारंटीशुदा आरक्षण के उचित कार्यान्वयन को लेकर प्रतीक्षारत हैं। उनके दृष्टिकोण में, ईडब्ल्यूएस कोटे ने सामाजिक न्याय के सिद्धांत को ही सर के बल खड़ा कर दिया है, और ऐतिहासिक रूप से बहिष्कृत एवं वंचित लोगों के खिलाफ विद्रोह की मुनादी के तौर पर है। पिछड़े वर्गों की यह आशंका आदित्यनाथ के नेतृत्व वाले शासन में संस्थाओं द्वारा किये गये दावे में कि ओबीसी और दलितों के बीच से “कोई योग्य उम्मीदवार नहीं” मिल सकता है, वाले दावे में अंतर्निहित भेदभाव से और भी गहरा जाती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में प्रधानमंत्री ने अपनी ओबीसी पहचान की बीन बजाई थी, और पिछड़े वर्गों से इसका भरपूर लाभांश हासिल किया था, ऐसे में जातीय जनगणना से शासन का इंकार भी विडंबनापूर्ण है।   

यह हमें इस चुनाव में एक बार फिर से उमा भारती जैसी ओबीसी नेताओं के चुनावी महत्व की ओर वापस ले जाता है। उत्तरप्रदेश में चुनाव प्रचार के पोस्टरों में उनकी मौजूदगी पिछड़े वर्गों को शामिल करने के अंतिम क्षणों के प्रयास की तरह दिखती है, जिनके बीच में बाबरी मस्जिद आंदोलन के दिनों से उनकी गूंज रही है। हालाँकि, उत्तर प्रदेश में उनकी अपील की अपनी सीमाएं हैं। कुछ मायनों में इसकी तुलना बिहार के चुनावी मैदान में मुलायम सिंह यादव के आकर्षण से की जा सकती है। यादवों की जनसंख्या बिहार और उत्तरप्रदेश की कुल आबादी के 10% से कुछ अधिक है, और यद्यपि उनमें सीमा पार की आत्मीयता भी है, लेकिन इससे चुनावी सफलता की गारंटी नहीं हो जाती है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव अपने गृह राज्य में एक बड़े राजनीतिक व्यक्तित्व हैं, लेकिन उनका यह आकर्षण पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश के चुनावी मैदान में नहीं दोहराया जा सकता है। संभवतः भाजपा अपने ही “आएगा तो योगी ही” वाले नारे के जाल में फंस गई है, जिसे फिर देर से समझ में आया कि इसे पिछड़े वर्गों में अधिक पहुँच बनाने की जरूरत है, और आदित्यनाथ के लिए कम दृश्यता को बनाना होगा, जिन्होंने अपनी क्षत्रिय पहचान को खेल दिया है। 

भाजपा अब सिर्फ मुसलमानों को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के पक्ष में मतदान करने, और दलितों, विशेषकर जाटवों के द्वारा समाजवादी पार्टी के पक्ष में वोट देने की कामना से अधिक कुछ नहीं चाहेगी। इसके शीर्ष नेताओं ने अपने हाल के भाषणों में इसे कुछ हद तक स्पष्ट कर दिया है, लेकिन उप-पाठ्य में इच्छा कहीं न कहीं समाजवादी पार्टी के पीछे मुस्लिमों की एकजुटता के टूटते हुए देखने और बसपा के विलुप्त हो जाने में है। भाजपा की उन्मादपूर्ण इच्छा में मुस्लिम मतों के विभाजन और हिंदू मतदाताओं के सामने उन्हें खलनायक साबित कर उन्हें अपने पक्ष में लुभाने की है। उत्तरप्रदेश में मुस्लिम मतदाताओं का 18% हिस्सा है और वह समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन के पीछे एकजुट है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने गृह मंत्री अमित शाह के द्वारा मुस्लिमों को उनकी पार्टी के पक्ष में मतदान करने को उनकी सदाशयता करार दिया है – जिसे देखते हुए राजनीतिक पर्यवेक्षकों को इस बात का दावा करने से नहीं रोका जा सकता है कि वे आपस में अंतर्निहित समझदारी को साझा करते हैं।

भाजपा की रणनीतियों के परीक्षण की संभावना है, और इसके अपने स्पष्ट कारण हैं। सबसे पहला कारण, किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन ने जाटों और मुसलमानों के बीच की खाई को पाटने का काम किया है और भाजपा के ध्रुवीकरण की योजना को रोक दिया है। नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (सीएए) ने मुस्लिमों के सभी पंथों और वर्गों को एकजुट कर दिया है। एक नागरिक के तौर पर अपनी नागरिकता की स्थिति को खो देने के भय से प्रेरित सुन्नी और शिया मुसलमान समाजवादी पार्टी के पीछे एकजुट हो गये हैं, वो चाहे गरीब और अमीर हों, या शहरी और ग्रामीण हों। इसी तरह तीन कृषि कानूनों ने ग्रामीण आबादी को नाराज कर दिया है, जो इन चुनावों में शहरी मतदाताओं के विपरीत नैरेटिव को स्थापित कर रहा है, जिनका झुकाव आमतौर पर भाजपा के पक्ष में रहता है। आवारा पशुओं के आतंक ने हर जाति और धर्म से संबंध रखने वालों के खेतों को बर्बाद कर डाला है, जिस पर देर से ही सही प्रधानमंत्री को इस नुकसान की भरपाई करने के लिए एक नीति बनाने का आश्वासन देने के लिए प्रेरित किया है। आदित्यनाथ के पांच-साल का कार्यकाल इस तबाही की वजह बना, जबकि केंद्र ने बढ़ती कीमतों, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी और आजीविका के नुकसान को अभूतपूर्व पैमाने पर पहुंचाने में अपना योगदान दिया है, विशेषकर अचानक और बेतरतीब ढंग से कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान। ये सभी मुद्दे सत्तारूढ़ दल के खिलाफ गुस्से को खाद-पानी देने का काम कर रही हैं। निश्चित रूप से भाजपा के दृष्टिकोण में, राशन और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसी सरकारी योजनाओं के लाभार्थी इसे लखनऊ में सवारी गांठने में मदद करेंगे। लेकिन टिप्पणीकारों और पर्यवेक्षकों के लिए, सवाल अब यह बना हुआ है कि ये ज्वलंत मुद्दे, यदि नहीं तो किस हद तक भाजपा के प्रचंड रथ को बेअसर करने में कारगर होंगे। 

चुनावी इतिहास ने इस बात को प्रदर्शित किया है कि जिस पार्टी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी बढ़त को स्थापित किया है, उसने इस रुझान को राज्य के बाकी हिस्सों में भी जारी रखा है। इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि पछुआ चुनावी झोंके एक बार फिर से उत्तरप्रदेश और देश में चुनावी राजनीति की दशा-दिशा को नया आकार देने जा रही है।

लेखक पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के ओसडी और प्रेस सचिव थे। व्यक्त विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

As Uttar Pradesh Election Moves East, BJP’s Perplexities Intensify

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