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असम: दशकों से खेती कर रहे मुस्लिम किसान दरांग ज़िले में अपनी ही ज़मीन से बेदखल, गोलीबारी में तीन की मौत

गोरुखुटी में एक 'कृषि परियोजना' शुरू करने की भाजपा सरकार की योजना के चलते घरों को ध्वस्त किया गया है और तक़रीबन 5,000 लोग विस्थापित हुए हैं।
Assam
फ़ोटो: साभार: द वायर

इस लेख के प्रकाशित होने तक ऐसी ख़बरें हैं कि असम पुलिस की ओर से दारांग ज़िले के गोरुखुटी में मुस्लिम परिवारों को बेदखल करने से गुरुवार को हालात ने एक ख़तरनाक़ मोड़ ले लिया, जिसमें पुलिस की गोलीबारी में कम से कम तीन लोगों की मौत हो गयी। अपुष्ट रिपोर्टों में कहा गया है कि मरने वालों की संख्या ज़्यादा भी हो सकती है। सूत्रों ने बताया कि स्थानीय लोगों की ओर से हुई इस पुलिस कार्रवाई के विरोध से इलाक़े में तनाव है।

सिपाझार, असम: असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के सोशल मीडिया हैंडल से पता चलता है कि 20 सितंबर को दारांग ज़िले के धौलपुर नंबर 1 और धौलपुर नंबर 3 गांवों में 800 परिवारों को उनके घरों से बेदखल करने पर सरमा “ख़ुश” लग रहे हैं। उन्होंने इसे शिष्टता के साथ की गयी इस बेदखली को 'लगभग 4,500 बीघा' (ज़मीन) की सफ़ाई क़रार दिया, जहां ये परिवार हर साल बाढ़ आने के बावजूद दशकों से खेती कर रहे थे।

राज्य में काम कर रहे अल्पसंख्यक अधिकार संगठन-असम सांख्यलाघु संग्राम परिषद (ASSP) के अध्यक्ष मोहम्मद अली ख़लीफ़ा ने कहा, “यहां किसी युद्ध के एक मंज़र की तरह लग रहा था; इन गांवों में 14 जेसीबी से लैस सैकड़ों पुलिस और सीआरपीएफ़ के जवान उतार दिये गये थे। ज़िला प्रशासन ने उन लोगों को हटाने के लिए 1,500 सुरक्षा बलों को जुटा लिया था, जो पहले से ही अपने घरों से अस्थायी बस्तियों के लिए ज़िला प्रशासन की ओर से वादा की गयी ज़मीन पर जाने को लेकर सहमत हो गये थे।”   

सिपाझार के धौलपुर गांवों में भी बेदखली को लेकर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (BJP) सरकार की ओर से नियोजित इसी तरह के जबरन विस्थापन, यानी 'अतिक्रमणकारियों से ज़मीन की सफ़ाई' को अंजाम दिया गया है। 18 सितंबर की शाम को इस इलाक़े की आंगनबाडी कार्यकर्ताओं ने गांव के निवासियों को बेदखली के नोटिस बांटे थे। विडंबना यह है कि ज़िला प्राधिकरण ने 10 सितंबर को ही इसे जारी कर दिया था। हालांकि, इस सिलसिले में जिन लोगों को चिट्ठियां थमायी गयी, उसमें आठ दिन क्यों लगे, इसके बारे में अधिकारियों को ही ज़्यादा पता होगा।

गोरुखुटी में एक 'कृषि परियोजना' को शुरू करने की भाजपा सरकार की योजना के चलते ही घरों का ध्वस्त किया गया है और तक़रीबन 5,000 लोगों का विस्थापन हुआ है। इस इलाक़े में छह गांव आते हैं और इनमें बांग्ला भाषा बोलने वाले मुसलमानों रहते हैं। 5 जून को हुए कैबिनेट की बैठक के बाद कृषि विभाग ने इस इलाक़े में 77,000 बीघा ज़मीन पर "कृषि और उससे जुड़े उद्देश्यों" के लिए "भूमि विकास" के सिलसिले में एक समिति का गठन किया था।

जहां असम सरकार ने कृषि खेतों के नाम पर इन लोगों को धौलपुर गांवों से बेदखल कर दिया है, वहीं ऐसे उदाहरण भी हैं, जिसमें सरकार ने इन मुसलमान परिवारों को "अतिक्रमणकारी" कहकर उजाड़ दिया है। 6 जून को होजई ज़िला प्रशासन ने काकी क्षेत्र से मुसलमानों के कम से कम 70 घरों को हटा दिया था। इससे पहले, 17 मई को उत्तरी असम के सोनितपुर ज़िले के जमुगुरीहाट से इसी समुदाय के 25 परिवारों को बेदखल कर दिया गया था। धौलपुर नंबर 1 गांव में रह रहे कुल 49 मुस्लिम परिवारों के लोगों को 7 जून को उनके घरों से बेदखल कर दिया गया था। इसके पीछे भी एक शिव मंदिर की "अतिक्रमण" वाली ज़मीन की कथित सफ़ाई ही थी। जून में ही करीमगंज ज़िले के पाथरकंडी इलाक़े से क़रीब 200 परिवारों को बेदखल किया गया था।

बेदखल किये जाने की यह श्रृंखला भाजपा के उस चुनावी वादे के अनुरूप है, जिसमें अतिक्रमणकारियों से जंगल और सरकारी ज़मीन को साफ़ करने और इन ज़मीनों पर "स्वदेशी" भूमिहीन लोगों को बसाने का वादा किया गया है। मुसलमानों को उनके घरों और रोज़ी-रोटी से बेदखल करने को अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ "प्रतिशोध" के तौर पर देखा जा रहा है।

ऑल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन (AAMSU) के सलाहकार ऐनुद्दीन अहमद ने कहा, “सरकार की मंशा मुसलमानों को सताना, परेशान करना और इसका राजनीतिक फ़ायदा उठाना है। यह उनका सुनियोजित एजेंडा है। हिमंत बिस्वा सरमा और (प्रधानमंत्री) नरेंद्र मोदी हिटलर की तरह काम कर रहे हैं और अंग्रेज़ों के दूसरे अवतार की तरह शासन कर रहे हैं।”  

आने वाले दिनों में बेदखली से ख़ुद को बचाने के लिए कुछ किसानों ने 22 से 23 सितंबर की आधी रात में गुवाहाटी हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था क्योंकि ज़िला प्रशासन ने उन परिवारों को भी बेदखली का नोटिस भेजा था।

असम स्थित मानवाधिकार वकील तानिया लस्कर ने इस बेदख़ली के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की कमी का वर्णन करते हुए कहा, “ये बेदख़ली अप्रवासी विरोधी और मुस्लिम उस विरोधी भावना के अनुरूप हैं, जो असम में प्रमुख राजनीतिक आख़्यान है। इस प्रतिरोध में मददगार होने वाले मीडिया और दूसरी व्यवस्था भी उन्हीं जातीय-राष्ट्रवादियों के हाथों से नियंत्रित हैं, जो इस तरह के आख्यानों का समर्थन और समर्थन करते हैं। सोशल मीडिया पर मुखर होने वालों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। ऐसे में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों दोनों के लिए ख़ुद को संगठित कर पाने की स्थिति मुश्किल है। लेकिन, फिर भी वे अपने अधिकारों की रक्षा के लिए चिट्ठियां लिख रहे हैं और मामले दर्ज कर रहे हैं।”  

समुदाय को बेदखल करने के बाद 'सामुदायिक कृषि क्षेत्र'

अपने कैबिनेट ज्ञापन में असम सरकार ने कहा था कि संभावना के बावजूद इस ज़मीन का इस्तेमाल अभी तक ठीक से नहीं हो पाया है। भाजपा सरकार ने इस इलाक़े की ज़मीन के इस्तेमाल और विकास के लिए कृषि और इससे जुड़ी गतिविधियों के लिए 9.6 करोड़ रुपये आवंटित किये थे। मगर, इस दावे को स्थानीय लोगों ने खारिज कर दिया कि "मुस्लिम विरोधी बहुसंख्यक राष्ट्रवादियों को ख़ुश करने के लिए यह एक राजनीतिक दिखावा" था।

सरकार की परियोजना के लिए इस ज़मीन को ठीक नहीं माना जा रहा है; यह ज़मीन नदियों की धाराओं के बीच में स्थित है और इस ज़मीन की दोनों तरफ़ ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदी नानॉय बहती हैं।

किरा कारा गांव के सामाजिक कार्यकर्ता सद्दाम हुसैन, जिनके परिवार को भी इस बेदखली का सामना करना पड़ रहा है, उन्होंने बताया, “सरकार साल में सात से आठ महीने तक पानी में डूबी रहने वाली इस ज़मीन पर नदी के बीचो-बीच इस परियोजना को लागू करना चाहती है। स्थानीय मछलियों को पालने के लिए न तो तालाब और न ही गौशाला ही बाढ़ के पानी और जमा होने वाले गाद के जमाव से बच पायेंगे। पहली ही नज़र में दिखती है कि यह परियोजना अपने आप में संभव नहीं है, इसलिए, सरकारी धन की इतनी बड़ी रक़म ख़र्च करना पूरी तरह से बेकार और बेबुनियाद है।”

धौलपुर गांव के किसान, जिन्हें अभी तक बेदख़ल नहीं किया गया है, लेकिन उन्हें बेदख़ली के नोटिस मिले हैं, उन्होंने भी साफ़ तौर पर इस ज़मीन के 'ठीक से इस्तेमाल नहीं होने' के दावे का खंडन करते हुए कहा कि वे ऐसे समय में कम से कम दो फ़सलें पैदा कर रहे होते हैं, जब बाढ़ नहीं आ रही होती है। "बाढ़ से फ़सलों के लगातार तबाह होने के जोखिम" का सामना करते हुए भी इस इलाक़े के किसान कभी-कभी तो तीन फ़सलें भी उगा लेते हैं।

धौलपुर नंबर 1 के 55 वर्षीय अलाउद्दीन को भी इस बेदख़ली का नोटिस थमाया गया है, उन्होंने कहा, “हम बुआई के समय को आगे-पीछे कर लेते हैं, बारिश का अनुमान लगा लेते हैं और समय का सबसे अच्छा इस्तेमाल करते हैं, ताकि हम अपनी पैदावार की कटाई कर सकें; हम बाढ़ के दौरान अपने पशुओं को सुरक्षित ठिकानों पर ले जाने के लिए अपनी नावों को तैयार रखते हैं। हम अपनी रोज़ी-पोटी को बनाये रखने और अपने लोगों को खिलाने के लिए मक्का, जूट, मूंगफली और गोभी, बैगन और फूलगोभी जैसे तुरंत ख़राब हो जाने वाले उत्पाद भी पैदा करते हैं।”

धौलपुर और दूसरे पांच गांव, जिन्हें सरकार प्रस्तावित फार्म के लिए मंज़ूरी देना चाहती है, असम के सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग की सीट गुवाहाटी से तक़रीबन 60 किलोमीटर दूर स्थित है। इस मनमोहक जगह तक पहुंचने के लिए सड़क और नाव से जाना पड़ता है। जिस समय इस इलाक़े में बाढ़ नहीं होती है, उस समय नाव से किये जाने वाले सफ़र के दौरान यहां बहती नदियां, मंद-मंद चलती हवायें और दूर-दूर तक फैले हरे-भरे खेत की सुंदरता मन को मोह लेने वाले भाव पैदा करते हैं। जहां बांग्ला भाषी मुसलमान नदियों के बीच में रहते हैं, वहीं असमिया हिंदू और असमिया भाषी मुसलमान गोरुखुटी तटबंध के पास रहते हैं, यह तटबंध उन्हें बाढ़ के मैदानों से दूर हर साल आने वाली बाढ़ से बचा लेता है।

कृषि परियोजना के बहाने सरकार की इस ज़मीन के अधिग्रहित किये जाने को लेकर अलाउद्दीन ने आगे बताया, “हम किसान हैं और जब बाढ़ नहीं आती है, तो हम इस ज़मीन का सही इस्तेमाल करते हैं। दरअसल, हम उन हिंदुओं से किराये पर ज़मीन लेते हैं, जो बाढ़ के डर से अपनी ज़मीन पर खेती नहीं करते हैं।”

धौलपुर के बावन वर्षीय हज़रत अली ने आरोप लगाया कि सरकार कृषि फार्म स्थापित करने की कोशिश कर मुस्लिम किसानों को परेशान कर रही है। उन्होंने कहा, “चूंकि हम नदी के बीच में रहते हैं, बिना किसी कारण के हमें बेदखल कर दिया जाता है, तो बाढ़ आने पर हमारे पास फिर से यहां आ जाने का विकल्प होगा। लेकिन, कृषि फार्म स्थापित करके वे वास्तव में हमारी वापसी के किसी भी मौक़े को ख़त्म करने की कोशिश कर रहे हैं।”  

पिछले एक हफ़्ते से असम में हो रही बारिश के चलते पूरा इलाक़ा जलमग्न हो गया था। बाढ़ आने से पहले सरकार ने पहले ही इस ज़मीन की जुताई करके और दूसरी चीज़ों पर कार्रवाई करके कृषि गतिविधियों को शुरू करने की कोशिश की थी। हालांकि, सरकार ने इस ज़मीन पर जो भी कार्य किया था,उसे बाढ़ ने तबाह कर दिया है। यह एक ऐसा विकास था जिसे हुसैन ने "उसी ग़लती को दोहराकर 9.6 करोड़ रुपये बर्बाद करने का एक तरीक़ा" क़रार दिया।

"यह बेदख़ली नहीं, सरकार का अवैध तरीक़े से ज़मीन का हथियाना है"

असम सरकार ने कहा है कि 'मुक्त करायी गयी ज़मीन' और कृषि फार्म असम के 'स्वदेशी नौजवानों' को रोज़गार मुहैया करायेगी। इस क़दम को सरमा की अगुवाई वाली भाजपा सरकार की ओर से इस्तेमाल की जाने वाली तरफ़दारी की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है।

इसे बहुसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति क़रार देते हुए हुसैन ने कहा, "वे 1,000 किसानों को बेदखल करके 500 बेरोज़गारों को बसाना चाहते हैं, जिसका मतलब है कि सरकार 500 बेरोज़गारों को रोज़गार देना चाहती है, जिससे तक़रीबन 7,000 से 8,000 लोगों की रोज़ी-रोटी और उनके पनाह उनसे छीना जा सके।"

व्रीजे यूनिवर्सिटी एम्स्टर्डम में पीएचडी उम्मीदवार अब्दुल कलाम आज़ाद, जिन्होंने सोनोवाल की अगुवाई वाली पिछली भाजपा सरकार के दौरान इसी तरह की बेदख़ली पर व्यापक शोध किया है, उन्होंने कहा, “यह बेदख़ली नहीं है; यह तो सरकार की ओर से अवैध रूप से ज़मीन को हथियाना है। सबसे अहम बात तो यह है कि मुस्लिम किसानों से हड़पी गयी यह ज़मीन अब कथित स्वदेशी नौजवों (हिंदू नौजवानों) को खेती के लिए दी जायेगी।”

“इससे जो कुछ संदेश दिये जाने की कोशिश की जा रही है,इसे समझने के लिए हमें यह समझने की ज़रूरत है कि बेदखली की इन श्रृंखलाओं पर असमिया समाज की प्रतिक्रिया क्या है। इस इलाक़े में मीडिया और सिविल सोसाइटी के बीच सन्नाटा पसरा है। असम की सिविल सोसाइटी ने इतने बड़े अपराध को अपनी मंज़ूरी दे दी है। मुसलमानों को असमिया समाज की मुख्यधारा के विचार से अलग-थलग कर दिया गया है।”

उन्होंने आरोप लगाया कि सोनोवाल सरकार के शुरुआती छह महीनों में कम से कम 3,500 परिवार उजाड़ दिये गये और तब से यह बेदख़ली जारी है।

सरमा जिस तरह से इस बेदखली को लोगों के सामने रख रहे हैं, उस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि वह अपने पूर्ववर्ती के मुक़ाबले ज़्यादा क्रूर हैं। उन्होंने आगे कहा, “उन्होंने न सिर्फ़ ग़रीब पीड़ितों के घरों को तबाह करने के निर्देश जारी किये हैं, बल्कि उस तबाही का जश्न भी मनाया है। यह अमानवीय और अभूतपूर्व है।"

वादे से मुकरती सरकार

जहां तक राज्य सरकार और ज़िला प्रशासन का सवाल है, तो अधिकारियों ने न तो अपने वादे पूरे हैं किये और न ही अस्थायी पुनर्वास की दलीलों पर ध्यान दिया है, ताकि पीड़ित अपना साज़-ओ-सामान ले जा सकें।

एएसएसपी के ख़लीफ़ा ने कहा, “मुख्यमंत्री ने कहा था कि इन गांवों में 3,000 परिवार रहते हैं और अगर हर एक परिवार को चार बीघा ज़मीन दे दी जाती है, तो यहां रहने वालों को 12,000 बीघे ज़मीन आवंटित की जायेगी और सरकार बाक़ी ज़मीन में कृषि फार्म स्थापित करेगी। लेकिन, मुख्यमंत्री ने अपना वादा नहीं निभाया।

19 सितंबर, 2021 को जब गांव के आस-पास भारी संख्या में सुरक्षाबल पहुंचा, तो लोग समझौते के लिहाज़ से ज़िला प्रशासन से बातचीत करने के लिए तैयार हो गये। एएमएसयू और एएसएसपी के प्रतिनिधियों सहित स्थानीय समुदाय के नेताओं ने इस बात पर रज़ामंदी जतायी कि किसानों को अन्य स्थानों पर जाने के लिए कुछ समय दिया जायेगा।

हालांकि, लोग 20 सितंबर को अपने टिन की झोंपड़ियों को हटा रहे थे, लेकिन ख़लीफ़ा ने बताया, "ज़िला प्रशासन के आश्वासन के बावजूद लोगों को समय नहीं दिया गया और सुबह 6 बजे से लोगों के घरों पर जेसीबी से बुलडोज़र चला दिया गया। उन्होंने मस्जिदों को भी नहीं बख़्शा। हमने मस्जिद के ढांचे को हटाने के लिए तीन दिन का समय मांगा था।”  

यहां रहने वालों का आरोप है कि प्रशासन ने उनके साज़-ओ-मान का भी ध्यान नहीं रखा, ऐसा लगता है कि प्रशासन टिन की दीवारों और बेदखल किये गये परिवारों से जुड़ी दूसरी चीज़ों को तबाह करने पर आमादा था, जिसे उन्होंने बाद में अपने साथ ले जाने के लिए अलग रख दिया था। स्थानीय लोगों और समुदाय के नेताओं की शिकायत के बाद ज़िला प्रशासन ने उनके सामान पर बुलडोज़र चलाने से रोक दिया।

कौन हैं ये 'अतिक्रमण करने वाले'  

जो लोग इस इलाक़े में पहली बार बसे थे, वे यहां 70 और 80 के दशक के आख़िर में यहां आये थे। कभी इन सूखे रेत के टीले, यूं ही पड़ी इस ज़मीन ने जलवायु की वजह से शरणार्थी बने लोगों और असम में चल रहे हिंसक आंदोलन से पीड़ितों के लिए पनाहग़ाह बन गये थे।

इस इलाक़े में सबसे पहले बसने वालों में से एक जैनल आबेदीन भी हैं, जो फुहुराटोली गांव में रहते हैं। सत्तर साल के यह बुज़ुर्ग सत्तर के दशक में धुबरी ज़िले से दरांग ज़िले के बोंटापुर गांव चले आये थे। हालांकि, बाढ़ के चलते होने वाले कटाव से उन्हें फिर से पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा था और उन्होंने आख़िरकार फुहुराटोली में पनाह ली थी।

हक़ीक़त यही थी कि आबेदीन ने ही इन जलवायु पीड़ितों के लिए भूमि आवंटन की लड़ाई लड़ी थी और गौहाटी हाई कोर्ट ने बाद में 199 परिवारों को 995 बीघा ज़मीन आवंटित की थी।

इसी तरह, 84 वर्षीय ख़ाबर अली 1993 से ही फुहुराटोली गांव में रह रहे हैं, जब उनके मौजूदा घर से तक़रीबन 30 किलोमीटर दूर नंगलीचर स्थित उनका घर पानी में बह गया था।ख़ाबर ने पहले भी इस रिपोर्टर से कहा था, “मैंने कई बार अपना घर खोया है। 1983 में दंगों के दौरान भीड़ ने मेरे घर को फूंक दिया था, और बाद में मेरे पास जो कुछ भी था, उसे ब्रह्मपुत्र बहा ले गयी थी। अब मुझे फिर से एक बार अपना घर खोना पड़ सकता है।”

अली का जन्म आज़ादी से पहले मंगलदाई निर्वाचन क्षेत्र के मुआमारी गांव में हुआ था। 1947 के बाद असम सरकार ने यहां के लोगों को गांव से हटा दिया था और उन्हें कोलाईगांव निर्वाचन क्षेत्र में आने वाले चेनीबाड़ी गांव में ज़मीन आवंटित कर दी गयी थी। हालांकि, 400 परिवारों ने नांगलीचर जाने का फ़ैसला इसलिए किया था, क्योंकि उनके लिए वहां खेती कर पाना सुविधाजनक था। 1983 के नरसंहार और लगातार कटाव के बाद इनमें से ज़्यादातर परिवार धौलपुर, फुहुराटोली, केकुरुआ और आसपास के इलाक़ों में चले आये थे।

76 वर्षीय मोमिन अली ने कहा, "हम यहां रहने वालों में सबसे बुज़ुर्ग हैं। हमने लोगों को 1983 के असम आंदोलन के दौरान बाढ़ या भीड़ से अपने घरों को ध्वस्त किये जाने के बाद यहां बसते हुए देखा है। यह विश्वास कर पाना मुश्किल है कि हम अपने पूरे जीवन में जबरन विस्थापित ही होते रहे हैं।”

इतने सालों में सरकार ने चारों तरफ़ से पानी से घिरे इस इलाक़े में बसे हुए लोगों के सशक्तिकरण के लिए अन्य कल्याणकारी योजनाओं के अलावा शैक्षणिक संस्थानों, कुछ सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना की है। इसी तरह, चारों तरफ़ से पानी से घिरे जिस ज़मीन को हिमंत की अगुवाई वाली सरकार 'कृषि उद्देश्यों' के लिए 'अतिक्रमणकारियों' से मुक्त कराना चाहती है। वहां तीन प्राथमिक सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र, दो उच्च प्राथमिक विद्यालय, 40 प्राथमिक विद्यालय और 42 आंगनवाड़ी केंद्र हैं।

मोमिन ने इस रिपोर्टर से कभी कहा था, "पहले हमारे पीछे नफ़रत करने वाली भीड़ थी और अब हमारे पीछे सरकार है।" दरअस्ल वह 1993 की बात बता रहे थे, जब नाराज़ असमिया राष्ट्रवादियों ने उनके ग्रामीण साथियों का पीछा किया था।

हालांकि, ज़िला प्रशासन ने कहा है कि बेदख़ल किये गये परिवारों को पास की 1,000 बीघा ज़मीन पर अस्थायी बंदोबस्त दिया जायेगा, लेकिन कार्यकर्ताओं ने कहा है कि यह ज़मीन रहने लायक़ नहीं है क्योंकि यह बहुत नीचे स्थित ज़मीन है।

जो परिवार इस बेदख़ली के ख़तरे में जी रहे हैं, वे इसे ख़ुद के साथ-साथ नौजवान पीढ़ी के लिए भी एक चुनौती के तौर पर देखते हैं। हुसैन का कहना था, “ स्कूल जाने वाले नौजवानों और बच्चों को यह जगह छोड़कर कहीं और जाना होगा। इससे उनकी शिक्षा का अवसर ख़त्म हो जायेगा और वे ग़रीबी के चक्र में फंसे रहेंगे। जहां तक किसानों की बात है, तो वे उसी खेत में मज़दूर बन जायेंगे, जिस पर वे पहले खेती किया करते थे।”

2016 में असम में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से ऐसा पहली बार है कि सरकार ने यहां रह रहे लोगों को "अतिक्रमणकारी" क़रार दिया है। ऐसा चौथी बार हुआ है, जब सरकार ने धौलपुर गांव में रह रहे लोगों को उनकी ज़मीन से उजाड़ दिया है, पहली बार नवंबर 2016 में हुआ था, दूसरी बार जनवरी 2021 में और तीसरी बार जून 2021 में हुआ था।

लेखक असम स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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