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बिहार में पराजय, मोदी के मुखौटे का रंग उतरना है

बिहार विधानसभा के चुनाव अभियान के दौरान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यह कह कर बिहार की जनता को डराया था कि अगर भूल से भी भाजपा बिहार में हार गयी तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। उनका यह चुनावी जुमला बताता है कि बिहार में जीत का उनके लिए क्या महत्व था, जिसे प्राप्त करने के लिए वे जनता की देशभक्ति की भावना को भड़काने के लिए भय का एक नकली वातावरण बनाने के लिए तैयार थे। यह तब था जब मोदी-शाह युग्म ने मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण समारोह में पहली बार पाकिस्तान समेत सभी पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया था। वे अभी भी अंतर्र्राष्ट्रीय समारोहों में अपनी समस्याओं को बातचीत के आधार पर सुलझाने के नेहरूयुग के जुमले दुहराते रहते हैं। यह बात अलग है कि नेहरू की इस नीति की सबसे अधिक आलोचना जनसंघ ही करती रही थी। भाजपा का यही दुहरापन उनकी हर बात में रहता है। उन्होंने भाजपा को देश और राष्ट्रभक्ति का पर्याय प्रचारित करना चाहा है, जबकि उनके कर्मों के परिणाम सर्वाधिक देश विरोधी हैं ।
 
 
राजनीतिक पंडित कहते हैं और सही ही कहते हैं कि देश पर शासन करने के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार को जीतना जरूरी होता है। पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी की सफलता के पीछे इन प्रदेशों में काँग्रेस विरोधी लहर होने व चुनाव को काँग्रेस बनाम भाजपा में बदल देने की नीति काम आ गयी थी। पर काठ की हांडी बार बार नहीं चढती है। वे अभी तक किसी आरोपी काँग्रेसी नेता के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर सके हैं।
 
बिहार चुनाव में उनकी पराजय का कथानक तो बहुत पहले ही प्रारम्भ हो गया था। बिहार में कुछ मुस्लिम बाहुबलियों के अपराधी माफिया गिरोहों और उसी तरह के हिन्दू बाहुबलियों और माफिया गिरोहों के बीच टकराव तो चलता रहा है किंतु यह टकराव साम्प्रदायिक आधार पर नहीं रहा। इसका एक कारण हिन्दुओं में जातिवादी टकराव का तेज होना भी है। भयंकर आर्थिक असमानता वाले समाज में गरीब वर्ग दोनों ही तरह के अपराधी गिरोहों से प्रभावित व प्रताड़ित रहा है। बिहार में भाजपा की उपस्थिति गुजरात, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से भिन्न रही है क्योंकि यहाँ उसका प्रसार गैर काँग्रेसवाद वाले समाजवादी धड़े के गले लग कर उसे हड़पते जाने से हुआ है। भारतीय इतिहास में अंग्रेजों की चला चली के समय को छोड़ कर कहीं धार्मिक आधार पर समाज में तनाव की कथाएं नहीं मिलतीं। जबकि पहले धार्मिक़ आधार पर हिन्दुओं और बौद्धों के बीच बहुत हिंसक संघर्ष हुये जिनमें लाखों लोग मर गये। देश में राजनीतिक लाभ उठाने के लिए साम्प्रदायिकता पैदा की जाती है क्योंकि वह स्वभाव में विद्यमान नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में दूसरे प्रत्याशियों से अधिक मत प्राप्त कर लेने वाले को शासन का अधिकार मिल जाता है इसलिए साम्प्रदायिकता का चुनावी लाभ हमेशा बहुसंख्यक वर्ग को मिलता है। यही कारण है कि बहुसंख्यक वर्ग इसे पैदा करने के लिए झूठ फैलाते हैं, गलत इतिहास गढवाते हैं, व नफरत के संस्थान चलाते हैं।
 
बिहार में भाजपा को संविद सरकारों के दौरान प्रवेश का मौका मिला और उसने अपनी कूटनीति व खेलकूद के नाम पर बनाये गये संगठन के सहारे दूसरे दलों को हड़पने का दुष्चक्र चला कर अपना विस्तार तो किया किंतु वे कभी भी स्वतंत्र रूप से अपनी सरकार नहीं बना सके। पिछली लोकसभा के चुनाव परिणाम देख कर उन्हें लगने लगा था कि शायद पहली बार यह सम्भव हो जाये।
 
मोदी पार्टी की पराजय में एक कारण तो यह था कि उक्त चुनाव न तो काँग्रेस के खिलाफ था न ही लालू प्रसाद के खिलाफ था अपितु यह नितीश कुमार के समक्ष लड़ा गया था, जिनके ऊपर कोई गम्भीर आरोप नहीं थे और छवि खराब करने वाला अस्त्र नहीं चल पाया। दूसरे भाजपा स्वयं भी उन्हीं के साथ लम्बे समय तक सहयोगी रही थी। नितीश की छवि स्वच्छ, व कर्मठ प्रशासक की रही जिन्होंने लोकसभा में पार्टी की पराजय की जिम्मेवारी लेते हुए स्वैच्छिक त्यागपत्र दे दिया था और एक महादलित को मुख्यमंत्री बना कर सत्ता मोह के ऊपर सिद्धांतवादिता की मिसाल पेश की। इसके विपरीत किसी भी कीमत पर पद से जुड़ने के लिए लालायित भाजपा ने बागी मांझी को समर्थन देने का फैसला किया जो उल्टा पड़ा। दूसरी ओर वे जिस आधार पर मांझी का समर्थन कर रहे थे उसी आधार के विरुद्ध उनका मूल सवर्ण वोट बैंक है। इसी के समानांतर भाजपा जैसी सवर्ण समर्थन वाली पार्टी के साथ गलबहियां करके माँझी ने अपने दलित नेता होने का नैतिक अधिकार ही खो दिया था, व आंकड़ागत नासमझी का ही परिचय दिया था। टीवी चैनलों पर उनके साक्षात्कार उनसे सहानिभूति को घटा ही रहे थे। भाजपा ने न तो उन्हें उचित सीटें ही दी थीं और न ही मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा ही की थी। यही कारण रहा को उनको दी गयी सीटों पर पराजय देखने को मिली। अब उनका कोई राजनीतिक भविष्य शेष नहीं रह गया है।
 
माँझी, पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा, अपने पदों के कारण अपने उम्मीदवारों के लिए तो कुछ हद तक जातिवादी वोट ले सके किंतु उन वोटों को अपने गठबन्धन की दूसरी पार्टियों को ट्रांसफर कराने में समर्थ नहीं हो सके। जिस आधार पर जातिवादी दलों का गठन होता है उसके कारण वे उन मतों को सवर्ण समर्थन वाले दलों तक ट्रांसफर कराने में वैसे भी सफल नहीं हो सकते हैं, जब तक कि किसी जातिभाई को मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी न घोषित कर के चुनाव न लड़ा जा रहा हो। मायावती इसीलिए बिना किसी समझौते के चुनाव लड़ती हैं। इतने अधिक दलित व पिछड़े दलों के साथ चुनावी समझौते के लिए मजबूर होकर भाजपा का सवर्ण अपराधबोध खुद भी प्रकट हो रहा था। दूसरी ओर सवर्ण समर्थन कभी भी किसी दलित या पिछड़े को मुख्यमंत्री बनते नहीं देख सकता। यही विसंगति रही कि भजपा को इकतरफा समर्थन ही मिला। चुनावों के दौरान ही भाजपा को नरेन्द्र मोदी की जाति का उल्लेख करना पड़ा। किसी राष्ट्रीय पार्टी द्वारा अपने प्रधानमंत्री की जाति का खुले आम किये गये उल्लेख का यह दुर्लभ उदाहरण है, और पद की गरिमा के प्रतिकूल है।
 
ओवैसी द्वारा पहले सभी चुनाव क्षेत्रों में प्रत्याशी लड़ाने की घोषिणा की गयी थी जिससे यह संकेत गया था कि वे भाजपा के पक्ष में सौदेबाजी कर के यह सब कर रहे हैं। उनके इस फैसले का भाजपा के क्षेत्रों में जिस तरह से स्वागत हुआ उससे मुस्लिम वोट शंकित हो गया । अचानक ओवैसी ने प्लान बदलते हुए कुल छह स्थानों से उम्मीदवार उतारे जिससे मुस्लिम मत एकजुट हो कर महागठबन्धन के पक्ष में गये।
 
मोदी की ताबड़तोड़ सभायें व स्थानीय नेताओं को विश्वास में लिये बिना बाहरी लोगों के सहारे पूरा चुनाव अभियान चलाने से उनके डिगे हुये हौसले के संकेत गये। कीर्त आज़ाद, शत्रुघ्न सिन्हा, आर के सिंह, राम जेठमलानी, गोबिन्दाचार्य, अरुण शौरी, के बयानों से संकेत गया कि लोकसभा में संख्या बल के अलावा भाजपा में सब कुछ सामान्य नहीं है। भगवाभेषधारी हिन्दुत्ववादी नेताओं के कुटिल और उत्तेजक बयानों से कभी तो लगा कि यह योजनाबद्ध है, और कभी लगा कि ये सब नियंत्रण से बाहर हैं व आगे भी यही सब चलने वाला है।
दादरी की हिंसा और उसमें भाजपा के लोगों की सम्बद्धता के आरोपों के बाद उनके किये गये बचावों के साथ साथ चुनाव में गाय का स्तेमाल इस आरोप की पुष्टि कर गया कि ये चुनाव जीतने के लिए किसी भी स्तर तक गिरने को तैयार हो सकते हैं। श्री आर के सिंह ने तो खुले आम कहा कि इन्होंने दो करोड़ रुपये लेकर कई अपराधियों को टिकिट बेचा। इसके विपरीत जिसे जंगलराज बताया जा रहा था उसमें कई चरण के चुनावों के दौरान न कोई बूथ कैप्चरिंग हुयी न कोई हिंसा व दबाव डालने की घटना सामने आयी। इसके उलट कुछ उन लोगों को वोट डालने का अवसर मिला जिनको पिछले साठ सालों में वोट नहीं डालने दिया गया था। राम जेठमलानी जैसे वरिष्ठतम वकील ने कहा कि मोदी ने देश को धोखा दिया है और मैं बिहार में उनके विरुद्ध काम करूंगा। शत्रुघ्न सिन्हा ने तो भाजपा में रहते हुए भी विरोधियों जैसी भूमिका निभायी और प्रचार का अवसर न देने का आरोप भी लगाते रहे। चुनाव के बाद वरिष्ठ सांसद भोला सिंह ने तो स्थानीय नेतृत्व को प्रचार अभियान से दूर रखने को गम्भीरता से लेते हुए पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव बताया। आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी के कारण मँहगाई, कालेधन के बारे में किये गये वादे को पूरा न करना और चुनावी जुमला बताना प्रमाण बन गया कि इनके चुनावी वादों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जल्दबाजी में भूमि अधिग्रहण विधेयक लाना और उसे पास न करा पाना, राज्यसभा में अवरोध का हल न निकाल पाना, आदि से मोदी की पिछली गढी हुयी छवि खंडित हो चुकी है, और काँग्रेस से उपजी निराशा में जो काम आ गयी थी उसका मुलम्मा उतर चुका है। सारी नकारात्मकता मोदी-शाह के खिलाफ ही गयी।
 
भाजपा के पास कुल आठ-नौ प्रतिशत स्थायी मत हैं और इनमें वृद्धि के लिए हर चुनाव में नये नये झूठ गढने पड़ते हैं, नये हथकण्डे अपनाने पड़ते हैं। उनका लक्ष्य मुख्य रूप से कम राजनीतिक चेतना वाला वर्ग रहता है जिसे वे किराये के मीडिया के सहारे झूठ फैला कर साधते हैं। किंतु सूचना माध्यमों की विविधता के कारण सच की किरणें कहीं न कहीं से फूट ही पड़ती हैं। जब ये पार्टी के अन्दर से निकलती हैं तो अधिक रोशनी करती हैं।
 
बिहार की पराजय केवल एक विधानसभा चुनाव की पराजय नहीं है अपितु उनकी गाड़ी के उस इंजन का ही खराब हो जाना है, जो उन्हें इतनी दूर लाकर बीच रास्ते में अटक गया है और ड्राइवर ने शेष सारे साधनों को नष्ट करवा दिया था।
 
डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।

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