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बिहार में शराबबंदी क़ानूनः इससे उपेक्षित वर्ग ही ज़्यादा पीड़ित

बिहार में शराब निषेध क़ानून के ज़रिए से उपेक्षित वर्ग के लोगों को निशाना बनाया जा रहा है।
Nitish Kumar

बिहार में शराब निषेध क़ानून के तहत ज़्यादातर उपेक्षित वर्ग के लोगों को गिरफ्तार किया गया है। इसका खुलासा हाल में आई एक रिपोर्ट से हुआ है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक़ राज्य में इस क़ानून के तहत 1,22,392 लोगों की गिरफ्तारियां हुई हैं।

गिरफ्तार किए गए लोगों में उपेक्षित वर्ग के लोगों का अनुपात उनकी जनसंख्या के अनुपात से ज़्यादा है। अनुसूचित जाति (एससी) के 27.1 प्रतिशत लोग गिरफ्तार किए गए जबकि इनका आबादी में अनुपात 16 प्रतिशत है वहीं अनुसूचित जनजाति (एसटी) के 6.8 प्रतिशत लोग गिरफ्तार किए गए जबकि इनका आबादी में अनुपात सिर्फ 1.3 प्रतिशत है।

पिछले महीने राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि "यह एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के गरीब लोग हैं जिन्हें सबसे अधिक लाभान्वित किया गया है।" हालांकि ये आंकड़े उनके दावों के विपरीत हैं।

बिहार के पुलिस महानिदेशक केएस द्विवेदी के हवाले से लिखा गया है कि "मुझे इन आंकड़ों की कोई जानकारी नहीं है, जेल विभाग में हो सकता है। लेकिन मैं कह सकता हूं कि इस समूह में समृद्ध और ऊंची जातियों की संख्या हमेशा कम होगी क्योंकि पुलिस को अक्सर खुली कॉलोनियों और झोपड़ियों में छापेमारी करना आसान है लगता है।"

एक पुलिस अधिकारी द्वारा स्पष्ट तौर पर इस तरह स्वीकार करना इसका बात का खुलासा करता है कि इस निषेध कानून से वास्तव में किसे निशाना बनाया जा रहा है। यह उपेक्षित,गरीब और मज़दूर वर्ग के लोग हैं जो इस कानून के पीड़ित बन गए हैं जबकि विशेषाधिकार प्राप्त, अभिजात वर्ग और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली इस निषेध क़ानून का उल्लंघन करते हैं। इस फरवरी में बिहार में बीजेपी नेता मनोज बैठा ड्राइविंग करते हु्ए शराब के नशे में नौ बच्चों को कुचल दिया जिससे उनकी मौत हो गई।

हालांकि यह सच है कि शराब के इस्तेमाल की बुराई दुख और निर्धनता को बढ़ाता है, इस स्थिति को कम करने में निषेध एक संदिग्ध साधन रहा है।

शिक्षा और जागरूकता अभियान जैसे तरीकों के माध्यम से किसी सामाजिक समस्या से निपटने के बजाय क़ानूनी तरीकों को प्राथमिकता दी गई है क्योंकि वे काफी आसान हैं। लोकप्रियता के बहाने समर्थन प्राप्त करने के लिए भारत की कई राज्य सरकारों ने निषेध कानूनों के लागू करने के माध्यम से शराब के सेवन जैसी सामाजिक समस्या से निपटने का प्रयास किया है। हालांकि, इन उपायों के प्रभावी होने के सवाल का जवाब विवादित है और कई मामलों में बुरी तरह बेअसर साबित हुआ है।

बिहार में 2017 में यह बताया गया था कि गिरफ्तार किए गए 90,000 लोगों में से 95 प्रतिशत ज़मानत पर बाहर थें। यह भी बताया गया कि निषेध और शराब की मांग के चलते अवैध शराब के व्यापार में वृद्धि हुई नतीजतन क़ीमत काफी बढ़ गया। इसके अलावा, निषेध क़ानून के परिणामस्वरूप राज्य की अदालतों में 1,58,727 आपराधिक मामले आए। साथ ही,तस्करी करने वाले ज़्यादा लाभ कमाने के लिए राज्य की सीमाओं से शराब लाने के विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल करते रहे हैं। इसी अवैध शराब के इस्तेमाल के चलते कई लोगों की मौत भी हुई है।

गुजरात में ठीक पिछले सप्ताह पुलिस ने एक करोड़ रुपए के शराब को नष्ट कर दिया था। गुजरात एक ऐसा राज्य है जिसने 1960 में अपने अस्तित्व में आने के बाद से ही निषेध कानून लागू कर रखा है। यहां अवैध शराब के लिए एक बड़ा बाजार है जो निषेध की नीति के प्रभावशीलता की कमी का खुलासा करता है।

केरल भी पहले निषेध करने की ओर क़दम बढ़ाया था लेकिन इसने अपनी नीति में संशोधन किया है। पूरी तरह निषेध करने पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय इसने पांच और तीन सितारा होटलों को बार चलाकर एल्कोहल परोसने की इजाज़त दी है, जबकि सस्ते दो सितारा होटल केवल बीयर और वाइन के लिए परमिट प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा सरकार ने इसका सेवन करने के लिए क़ानूनी तौर पर उम्र सीमा 21 से 23 कर दिया है।

साथ ही आंध्र प्रदेश में महिलाएं जून महीने से राज्य की नई शराब नीति के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ रही हैं। महिलाओं द्वारा की गई मांगों में शामिल हैं: नई नीतियां, नई दुकानों को दिए गए लाइसेंस वापस ले लिए जाएं, सप्ताह में एक दिन बंद, जारी किए गए लाइसेंस की अवधि को दो साल में वापस लेना चाहिए, आवासीय क्षेत्रों की दुकानें और स्कूलों, मंदिरों, रेलवे स्टेशनों और बस स्टेशनों से नज़दीक दुकानें बंद होनी चाहिए, जिन क्षेत्रों में शराब की दुकान नहीं है वहीं नहीं खुलना चाहिए, शराब के इस्तेमाल के विरूद्ध एक अभियान चलाया जाना चाहिए और उन परिवारों को मुआवजे का भुगतान किया जाना चाहिए जिनके सदस्यों की मौत शराब के इस्तेमाल के चलते हुई है।

केरल और आंध्र प्रदेश के उदाहरणों से पता चलता है कि पूर्ण निषेध होने के एक साधारण कानूनी क़दम के बजाय, शराब के इस्तेमाल को और अधिक कठिन बनाने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए ताकि शराब पीने वाले इसका सेवन करना रोक दें। साथ ही युवाओं को एल्कोहल के इस्तेमाल से रोकने के लिए नीतियों में जागरूकता अभियान को शामिल करना चाहिए।

यह कहते हुए यह छूट नहीं दी जानी चाहिए कि देश भर में कई महिला आंदोलन हुए हैं जो निषेध के लागू करने की मांग कर रहे हैं। तथ्य यह है कि पुरूष शराब के नशे में हिंसा करते हैं और ये महिलाएं निर्धनता के चलते न कि नैतिकता की संभ्रांतवादी भावना के चलते निषेध की मांग करती है। इन आंदोलनों ने शराब के दुरुपयोग पर जागरूकता और चेतना लाई है और राज्य सरकारों को भी रोका है जिसे शराब की बिक्री से भारी राजस्व मिलता है।

जो स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है वह यह कि ये निषेध कानून एससी, एसटी, ओबीसी और मजदूर वर्गों को वास्तव में लाभान्वित करने के बजाय निशाना बना रहा है। ऐसा लगता है कि यह शराब की तस्करी और बिक्री के लिए एक लाभप्रद काले बाजार को प्रोत्साहित किया गया है। शराबबंदी के कथित लक्ष्य का समर्थन प्राप्त करने के लिए निषेध एक खोखला जनवादी उपाय प्रतीत होता है।

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