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बजट 2019 : मेज थपथपाने की आड़ में कल्याणकारी योजनाओं में कटौती और बेरोज़गारी पर शर्मनाक चुप्पी

अंतरिम बजट ने किसानों को प्रति माह 500 रुपये की मामूली राहत का वादा किया है जबकि दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के लिए फंड में कटौती की गई है और कृषि एवं औद्योगिक श्रमिकों पर बजट चुप है।
सांकेतिक तस्वीर

शुक्रवार को लोकसभा में बेतुका रंगमंच चल रहा था, क्योंकि वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने चुनावी भाषण के माध्यम से अंतरिम बजट पेश किया, पिछले पांच वर्षों में नरेंद्र मोदी सरकार की तथाकथित उपलब्धियों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया, जिसमें छोटे और सीमांत किसानों को अपमानजनक "राहत" के रूप में प्रति माह 500 रुपये की पेशकश की गई है, बेरोजगारी के बढ़ते संकट पर तथाकथित सख्ती से पेश आने के लिए उन्होंने अगले एक दशक के लिए 10-आयामी दृष्टि को पेश किया। बज पेश होते समय बीजेपी सांसदों को ड़े ही ऊर्जावान तरीके से अपनी डेस्क को थपथपाते देखा जा सकता था और वाह! वाह! का शोर था, मानो वे कवि सम्मेलन में भाग ले रहे हों।

हालांकि, बजट दस्तावेज़ से पता चलता है कि कल्याणकारी योजनाओं, जो विशेष रूप से दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों से संबंधित हैं, उनपर एक गैर-जिम्मेदाराना हमला किया गया है, और राज्य समर्थित शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा सहायता के लिए भी धन की एक सामान्य कमी दिखाई देती है। इसके बजाय, बदनाम आयुष्मान भारत जैसी बीमा योजनाओं के लिए आसानी से धन उपलब्ध कराया जा रहा है, हालांकि इसके बारे में भी जो दावा किया गया है, वह उससे बहुत दूर हैं।

किसानों और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए केवल मुश्किलें ही मुश्किलें

दो हेक्टेयर से कम भूमि वाले किसानों के लिए 500 रुपये प्रति माह "आय की पूर्ति" की बड़ी घोषणा, से कम से कम 75,000 करोड़ रुपये का खर्च होगा क्योंकि 2015-16 की कृषि जनगणना के अनुसार, देश में ऐसे लगभग 12.56 करोड़ किसान हैं, जो कुल किसानों का 86 प्रतिशत हिस्सा हैं। बजट दस्तावेज इस बात का कोई सुराग नहीं देते हैं कि यह बड़ी राशि कहां से आने वाली है। लेकिन यह मोदी सरकार की खासियत है - घोषणा करना और कार्यान्वयन के बारे में कोई चिंता न करना। हताशा ऐसी थी कि वित्तीय वर्ष समाप्त होने से केवल दो महीने पहले चालू वर्ष के संशोधित अनुमान में 20,000 करोड़ का इंजेक्शन ठोका गया था। इससे चुनावों में मोदी और उनकी पार्टी भाजपा को मदद मिलने की संभावना नहीं है क्योंकि यह राहत पीड़ित किसान की जरूरत को पूरा नहीं कर पाएगी, और इसका कार्यान्वयन भी अनिश्चितता से भरा हुआ है, क्योंकि भूमि के मालिक/बटाईदार की जाँच करनी होगी, सूची बनाई जाएगी और इसी तरह काफी वक्त लगेगा।

अन्य बड़ी योजना के तहत- असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए पेंशन र ज्यादा बदतर स्थिति में है। इस योजना के लिए केवल 500 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो अनुमानित 40 करोड़ श्रमिकों के एक हिस्से को भी कवर नहीं कर पाएगा। 3000 रुपये प्रति माह मासिक अपने आप में ही 1.2 लाख करोड़ रुपये बैठता है। यह एक क्रूर मजाक ही है।

मुख्य योजनाएँ

ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को वर्तमान वर्ष में खर्च किए गए 61,084 करोड़ रुपये की तुलना में, केवल 60,000 करोड़ आवंटित किए गए हैं। यह कटौती समझ में नहीं आती है क्योंकि चालू वर्ष में, बजट आवंटन पर खर्च में 6000 करोड़ रुपये से अधिक की वृद्धि हुई थी। फिर भी सरकार एकमात्र ऐसी योजना के लिए धन में कटौती जारी रखे हुए है जो बेरोजगारी और कृषि संकट के दोहरे प्रहार से पीड़ित लोगों को कुछ राहत प्रदान करती है। इसी तरह, सामाजिक सहायता कार्यक्रम (एनएसएपी) जिसमें वृद्धावस्था और विधवा पेंशन शामिल हैं, इसे भी पिछले वर्ष के मुकाबले कटौती का सामना करना पड़ा है। (नीचे दी गई तालिका देखें)

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सरकार की ग्रामीण आवास पर महबूब योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) कार्यक्रम को पिछले बजट अनुमान से अधिक 2000 करोड़ रुपये की कटौती का सामना करना पड़ा, जबकि अन्य बहुत ही प्रशंसित ग्रामीण सड़कों के कार्यक्रम (पीएमजीएसवाई) में, पिछले साल का आवंटन भी पूरी तरह से खर्च नहीं हो सका - करीब 2,500 करोड़ रुपये खर्च नहीं हुए ऐसा बताया गया है - और उसी स्तर को चालू वर्ष के बजट अनुमान में भी बनाए रखा गया है।

दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक

दलितों के लिए बड़ी योजना में, जिसमें छात्रवृत्ति, नौकरियों के लिए वित्तपोषण आदि शामिल हैं, को चालू वर्ष के संशोधित अनुमान (जो अनुमानित व्यय है) में 30 प्रतिशत से अधिक की भारी कटौती की गई है। (नीचे दी गई तालिका देखें) दलित छात्रों के लिए उच्च शिक्षा के लिए केंद्रीय छात्रवृत्ति को भी पिछले वर्ष के बजट आवंटन से कटौती का सामना करना पड़ा है। इससे पता चलता है कि मोदी सरकार दलित समुदायों के लिए कितनी चिंतित है।

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इस बीच, आदिवासी बच्चों के लिए शिक्षा व्यावहारिक रूप से चालू वर्ष के संशोधित अनुमान के समान स्तर पर ही स्थिर हो गई है, जबकि वनबंधु कल्याण योजना, वन उपज के मूल्य समर्थन की योजना और आदिवासियों के लिए अन्य आजीविका विकल्पों की योजना में पिछले बजट के मुकाबले इसे भी कटौती का सामना करना पड़ा। (ऊपर तालिका देखें)

अल्पसंख्यकों के लिए दो प्रमुख कार्यक्रम, प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति और कौशल विकास कार्यक्रम, दोनों में पिछले साल किए गए खर्च की तुलना में घटा दिया गया है। (नीचे दी गई तालिका देखें)

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शिक्षा

हालाँकि स्कूली शिक्षा के लिए समग्र बजट में काफी मामूली सी बढ़ोतरी देखी गई है, लेकिन पिछले साल की तुलना में कुछ प्रमुख पहलुओं के लिए धन कम मिला है (नीचे तालिका देखें)। महत्वपूर्ण मिड-डे मील योजना में पिछले साल के खर्च की तुलना में मात्र 51 करोड़ (0.005%) की वृद्धि हुई है। वास्तविक रूप में (मुद्रास्फीति समायोजित शब्द) इसका मतलब है कि एक वास्तविक गिरावट, स्कूल जाने वाले करोड़ों बच्चों को नुकसान पहुंचाना।

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बहुप्रचारित ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ा’ कार्यक्रम के तहत मोदी सरकार के दोगलेपन का एक उदाहरण "बालिकाओं के लिए माध्यमिक शिक्षा को प्रोत्साहित करना" योजना के लिए आवंटन में दिखाई दे रहा है। इसके लिए फंड पहले ही शर्मनाक रूप से मात्र 255.9 करोड़ था उसे कम करके केवल100 करोड़ कर दिया गया है।

उच्च शिक्षा के निजीकरण के उनके अपने इरादे सच हैं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के लिए भी धन कम कर दिया गया है, जबकि सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों को मिलाकर किए कुल आवंटन में केवल 1.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है - फिर से एक ऐसी वृद्धि जो मुद्रास्फीति के साथ धुल गयी।

स्वास्थ्य

मोदी सरकार स्वास्थ्य बीमा के लिए अपने बीमा आधारित आयुष्मान भारत कार्यक्रम के बारे में स्पष्ट रूप से कह रही है, यह दावा करते हुए कि यह 50 करोड़ लोगों को आवश्यक स्वास्थ्य सेवा प्रदान करेगा। हालांकि, इसके लिए आवंटन इस साल औसतन 6,400 करोड़ रुपये रखा गया है। इस योजना को किस तरह से लागू किया जा सकता है, इसका अंदाजा किसी को नहीं है। (नीचे दी गई तालिका देखें)

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इस प्रक्रिया के जरिये मौजूदा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) को खोखला करना शुरू कर दिया है, जैसा कि इसके आवंटन में मात्र 2 प्रतिशत की वृद्धि से देखा जा सकता है, फिर से, मुद्रास्फीति को अगर ध्यान में रखे तो यह बढ़ोतरी एक ओर धोखा है। एक अन्य महत्वपूर्ण हिस्सा जिसके तहत आवंटन में कटौती की गई है, वह है जिला अस्पतालों के उन्नयन के कार्यक्रम में (और जिन्हें साथ ही चिकित्सा शिक्षा के लिए भी उपयोग किया जाना है)। इस मद में आवंटन 3,168 करोड़ से घटकर केवल 2,000 करोड़ रुपये रह गया है। यह कदम लोगों को निजी अस्पतालों की ओर जाने के लिए मजबूर करेगा।

वास्तव में, स्वास्थ्य आवंटन एक निश्चित संकेत है कि भाजपा सरकार की दॄष्टि कैसी है –उनकी दॄष्टि राज्य समर्थित कल्याण और पात्रता (मनरेगा, एनआरएचएम, एसएसए आदि) के मौजूदा कार्यक्रमों में धन में कटौती करके तोड़फोड़ करना है और तो  निजी क्षेत्र को बढ़ाने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों (आयुष्मान भारत, पीएमएफबीवाई, निजी शिक्षा आदि) के कार्यक्रम को पोसना है।

पीयूष गोयल का लोकसभा में नाटकीय भाषण और सत्तारूढ़ गठबंधन के सदस्यों द्वारा जोर शोर से इसके लिए मेजों को थपथपाना दुखद पहलू था। व्यावहारिक रूप से सभी महत्वपूर्ण समस्याओं को नजरअंदाज करना, जैसे कृषि संकट, बेरोजगारी और ढहती शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था, सरकार अपनी साख के बारे में लोगों को समझाने के लिए अपने विचारों के जरिये पूरा स्वांग रच रही है। कमान से निकला यह अंतिम तीर काम करता है या नहीं, यह तो आने वाला चुनाव ही बताएगा।

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