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भारतीय अर्थव्यवस्था : क्या राजा के सभी कारिंदे मिलकर अर्थव्यवस्था को फिर से रास्ते पर ला सकते हैं?

मोदी 2.0 सरकार ने बेरोज़गारी के संकट और आर्थिक विकास के मुद्दों से निपटने के लिए उच्चस्तरीय मंत्रिस्तरीय समितियों का गठन किया है। उनके एजेंडे में क्या है, और क्या वे इस पर गंभीर हैं?
Economy

शपथ ग्रहण के कुछ दिनों के भीतर ही, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने दो कैबिनेट समितियों का गठन किया, जिसमें शीर्ष मंत्रियों को शामिल किया गया है- एक को रोजगार संकट से निपटने के लिए और दूसरी को आर्थिक विकास के मुद्दों को संबोधित करने के लिए कहा गया है। दोनों समितियों में वरिष्ठ सदस्य पिछले पांच वर्षों से विभिन्न क्षमताओं में मंत्री रहे हैं। अरुण जेटली अब वित्त मंत्री नहीं हैं, इसलिए वे इससे बाहर हैं, जबकि अमित शाह मंत्रिमंडल में और इन दोनों समितियों के नए सदस्य हैं।

शायद, मौजूदा हालत में यह पूछना न्यायोचित होगा कि जो लोग अपने पिछ्ले कार्यकाल में रोज़गार संकट को संभाल नहीं पाए और जिन लोगों ने अर्थव्यवस्था को पहले ही तबाह कर दिया था, अब वे ही लोग इसे कैसे ज़िंदा कर सकते हैं। चलिए हम इस किस्म के संदेह को एक बार छोड़ देते हैं और हमें यह मान लेना चाहिए किरोज़गार के संकट से निपटने के लिए नयी शुरुवात की जरूरत है। तो, इन वरिष्ठ मंत्रियों के पास इनकी अपनी झोली में क्या है?

सरकारी राजस्व गिर रहा है, क्योंकि मुख्य रूप से कर संग्रहण (राजस्व) गिर रहा है। यह सब वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और अधिक आयकर दाताओं द्वारा कर अदा करने के बड़े आंकडे के बारे में सभी प्रचार के विपरीत है। नियंत्रक महालेखाकार के अनुसार (सीजीए) केंद्र सरकार की कुल प्राप्तियां (यानी आय या राजस्व) सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के हिस्से के रूप में 2016-17 में 9.4 के उच्च स्तर से गिर कर 2018-19 में 8.8 प्रतिशत हो गया है।

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नियंत्रक महालेखाकार  (सीजीए) के अनुसार केंद्र सरकार राज्यों को जो कुछ भी देती है उसमें कटौती करने के बाद शुद्ध कर राजस्व, 2014 में जीडीपी का 7.2प्रतिशत से घटकर 2018-19 में 6.9 प्रतिशत हो गया है। वास्तव में, जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट से पता चलता है, 2012-13 में शुद्ध कर राजस्व जीडीपी का 7.5प्रतिशत के उच्च स्तर पर था।

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वास्तव में, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर सुरजीत मजूमदार के अनुसार, 2018-19 में केंद्रीय करों से राजस्व संशोधित अनुमानों (1फरवरी को प्रस्तुत) के अनुसार लगभग 1. 67 लाख करोड़ रुपये कम है। चूंकि राजस्व कम है, इसलिए सरकार व्यय में कटौती कर रही थी, क्योंकि यह घाटे को कम स्तर पर रखाना चाह रही थी।

मजूमदार बताते हैं, "घाटे के लक्ष्य को पूरा करने के लिए, केंद्र सरकार के खर्च में मूल अनुमानित खर्च में से 94 प्रतिशत तक की कटौती की है - और इसके आधे लक्ष्य को भोजन सब्सिडी में कटौती कर हासिल किया गया है।"

सरकारी खर्च पर लगाम, जोकि वास्तव में, मोदी सरकार की एक नीति थी (नीचे चार्ट देखें)। 2014-15 में, जब मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभाला, तब केंद्र सरकार का व्यय जीडीपी के 13.9 प्रतिशत से घटकर 13.2 प्रतिशत हो गया था। तब से, यह सीजीए आंकड़ों के अनुसार, 2018-19 से यह लगातार लुढ़क रहा है और अब यह केवल 12.2 प्रतिशत तक आ पहुंचा है।

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और, हमारी महान निजी क्षेत्र के बारे में क्या? मजूमदार कहते हैं, "निवेश और ऋण की वृद्धि लंबे समय से अटकी हुई है - जो कुल मिलाकर उत्पादक गतिविधियों के तेजी से विस्तार की कमी का भी संकेत है जो रोजगार के विस्तार को उत्पन्न करने में मदद करता है।"

सीएमआईई के अनुसार, निजी कॉरपोरेट क्षेत्र की संयंत्र और मशीनरी संपत्ति 2016-17 में 5.7 प्रतिशत और 2017-18 में 7.1 प्रतिशत बढ़ी। मोदी सरकार के पहले चार वर्षों के दौरान, निजी क्षेत्र के संयंत्र और मशीनरी की औसत वार्षिक वृद्धि 9.2 प्रतिशत थी। कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन -2 के तहत यह 13प्रतिशत था, और यूपीए-एक के तहत यह 19.5 प्रतिशत था। इसका मतलब है कि निजी क्षेत्र अपनी उत्पादन की क्षमता में निवेश नहीं कर रहा है।

इस सबको एक साथ रखें तो यह दिखाता है कि आर्थिक विकास का हश्र क्या हो रहा है, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण है कि यह बढ़ती बेरोजगारी को दर्शाता है। सीएमआईई के अनुसार, जनवरी से अप्रैल की अवधि में, बेरोजगारी जो 2017 में पहले से ही 7.66 प्रतिशत की ऊंची दर पर थी अब उससे बढ़कर 2019 में यह 9.35प्रतिशत तक पहुंच गई है। इसमें वे सभी लोग शामिल हैं जो 15 वर्ष से ऊपर हैं, बेरोजगार हैं और काम करने के इच्छुक हैं।

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क्या किया जाना चाहिए?

यह स्पष्ट है कि पिछली मोदी सरकार को इस बात का कोई सुराग नहीं था कि रोजगार सृजन या विनिर्माण उत्पादन बढ़ाने के बारे में क्या किया जाना चाहिए। लाखों युवाओं को कौशल प्रदान करने या ‘उद्यमियों’ को आसान ऋण देने के उनके अपने विश्वास में यह बड़े दुखद तरीके से परिलक्षित हुआ है जबकि उम्मीद यह थी कि यह दोनों को बढ़ावा देगा। वास्तव में, इस जुड़वां रणनीति ने शानदार विस्फो किया है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि उन्होंने समस्या की जड़ को कभी नहीं समझा।

“मौलिक समस्या अपर्याप्त मांग की है जो खुद को पुन: पेश करती रहती है। बहुत से लोगों के पास खर्च करने के लिए बहुत कम पैसा है क्योंकि उनके पास या तो नौकरी नहीं है या ऐसी नौकरियां हैं जो उन्हें बहुत कम वेतन देती हैं। ऐसी परिस्थितियों में, यहां तक कि जिनके पास खर्च करने का साधन है, वे इस खर्च को उत्पादन के लिए निवेश नहीं करते हैं जो अधिक और बेहतर रोजगार पैदा कर सकते हैं, ”मजूमदार ने बताया।

मजूमदार के अनुसार “मांग में कुछ बहिर्जात विस्तार (Exogenous Expansion) होने पर ही इस दुष्चक्र को तोड़ा जा सकता है। चूंकि निर्यात इस तरह की उत्तेजना प्रदान नहीं कर रहे हैं, इसलिए सरकार को अपना खर्च बढ़ाना होगा। अगर सरकार अच्छा खर्च करती है, तो अर्थव्यवस्था पर इसके विस्तार के प्रभाव से अतिरिक्त कर राजस्व पैदा करने को आधार मिलेगा।

दूसरे शब्दों में, जिसकी सख्त आवश्यकता वह है एक ऐसी नीति है जो कि अब तक जो चल रहा है उसके विपरीत हो। सरकारी खर्च में कटौती करने के बजाय इसे विस्तारित करने की आवश्यकता है। यह नौकरियों को बढ़ावा देने और लोगों के हाथों में क्रय शक्ति देने में  मदद करेगा। इसलिए यह उत्पादन की क्षमताओं में अधिक निवेश को बढ़ावा देगा। जो अधिक रोजगार पैदा करेगा...

क्या नई कैबिनेट समिति के सदस्य इसके लिए तैयार हैं? या वे अब भी सार्वजनिक निवेश को कम करने की वैश्विक हठधर्मिता के साथ "निजी निवेश" के विस्तार की अनुमति देंगे?

(इस लेख के लिए पीयूष शर्मा ने डाटा प्रोसेसिंग में सहायता की है)।

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