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चीन-भारत संबंधः प्रतिद्वंदी दोस्त हो सकते हैं

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच दोनों पड़ोसी देशों के संबंधों को पुनःस्थापित करने को लेकर वुहान में होने वाले अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के परिणाम स्वरूप वाक्य युद्ध छिड़ गया है।

नरेन्द्र

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच दोनों पड़ोसी देशों के संबंधों को पुनःस्थापित करने को लेकर वुहान में होने वाले अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के परिणाम स्वरूप वाक्य युद्ध छिड़ गया है। दोनों नेताओं के बीच 27-28 अप्रैल को मुलाक़ात होना निर्धारित है। 22 अप्रैल को एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में घोषित इस शिखर सम्मेलन में दोनों नेता अन्य मंत्रियों या सलाहकारों की अनुपस्थिति में मुलाक़ात करेंगे। भारतीय मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक़ दोनों देशों के भविष्य के रिश्ते को फिर से परिभाषित करने के लिए एजेंडा तैयार किया गया है। चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, "इस साल हमारे नेताओं के मार्गदर्शन में चीन-भारत संबंधों ने अच्छे विकास को अनुभव किया है और सकारात्मक तेज़ी दिखाई है।" विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रविेश कुमार के अनुसार भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा, "ये अनौपचारिक शिखर सम्मेलन उनके लिए नेताओं के स्तर पर आपसी संचार बढ़ाने के उद्देश्य से एक व्यापक और दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य से द्विपक्षीय और अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर होगा।"

यह दावा किया जा रहा है कि इस तरह की मुलाक़ात दोनों पक्षों के लिए डोकलम के विवादित हिमालयी सीमा क्षेत्र में पिछले साल लंबे समय तक चलने वाले सैन्य संघर्ष के बाद संबंधों को पुनःस्थापित करने का अवसर प्रदान करेगी। अप्रैल 2016 में दलाई लामा के अरुणाचल प्रदेश दौरे के कारण बीजिंग और नई दिल्ली के संबंधों में खटास पैदा हो गई है। अरुणाचल प्रदेश भारत का क्षेत्र है जिसे कुछ देश द्वारा तिब्बत का दक्षिणी भाग माना जाता है। ज्ञात हो कि तिब्बत निर्वासित दलाई लामा की आध्यात्मिक मातृभूमि। भारत में इस बात को लेकर बहस तेज़ है कि किस तरह का दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। एक विचार यह है कि चीन के प्रभाव को सीमित करने क्या भारत को अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ मिलना चाहिए या दूसरा विचार यह कि दुनिया में प्रमुख भूमिका निभाने के लिए चीन के साथ सहयोग करना चाहिए। या भारत को डोकलम में हुए विवादों से बचने के लिए दोनों देशों के रिश्तों में सुधार करना चाहिए, पर साथ ही चीन को काउंटर करने के लिए अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ सैन्य संबंधों को जारी रखना चाहिए?

दोनों देशों ने शत्रुता और तीखी प्रतिद्वंद्विता के बावजूद पिछले 40 वर्षों में एक-दूसरे पर एक बार भी गोलीबारी नहीं की है जिसका साफ मतलब है कि दोनों में से कोई भी ऐसा करना नहीं चाहते हैं। गठबंधन के स्वतंत्र संचालन ने सुनिश्चित किया कि चीन ने भारत को बाहरी प्रभावों से स्वतंत्र रूप से अपनी विदेश नीति का संचालन किया है। हालांकि अमेरिका के साथ भारत के सैन्य संबंधों में हालिया बढ़ोतरी विशेष रूप से हथियारों के लिए अमेरिका पर बढ़ती निर्भरता और रूस से हथियारों के आयात को कम करना एक स्पष्ट संकेत देता है कि चीन को नियंत्रण करने की अमेरिकी नीति का एक अभिन्न हिस्सा बनने के लिए भारत झुक रहा है। तो, यह चीन के हित में है कि वह कोई सैन्य गठबंधन तैयार नहीं करता है।

भारतीय नौसेना के पूर्व प्रमुख एडमिरल अरुण प्रकाश ने हाल ही में द इंडियन एक्सप्रेस(Reappraising India-US”: Arun Prakash; Indian Express, April 14, 2018) में लिखा था कि "शीत युद्ध के अंत ने विश्व व्यवस्था के लिए एक अवरोध बिंदु का प्रतिनिधित्व किया, यह भारत के लिए भी एक दर्दनाक घटना थी। यूएसएसआर के विघटन ने भारत ने न केवल राजनीतिक सहयोगी और हथियार के एकमात्र भंडार को खो दिया बल्कि "गुट निर्पेक्ष" के तर्काधार को भी खो दिया। स्थिति की उत्कृष्ट समझ के साथ अमेरिका साल 1991 में सैन्य-सैन्य सहयोग के प्रस्तावों के साथ प्रकट हुआ। भारतीय नौसेना ने मई 1992 में "मालाबार" नाम का पहला भारत-यूएस नौसेना अभ्यास शुरू किया। पिछले साल जुलाई के अपने 21 वें संस्करण में मालाबार भारतीय, जापानी और अमेरिकी नौसेना की इकाइयों के साथ एक त्रिपक्षीय अभ्यास बन गया। माना जाता है कि मालाबार अभ्यास से चीन को असहजता होती है।" उनका तर्क है कि "वृहत सुरक्षा वातावरण यूएस-चीन व्यापार-युद्ध के साथ जटिल आयाम दृढ़ है, अमेरिकी-रूस संबंध में कमीहो रही है और चीन की पट्टी तथा सड़क मास्टरप्लान भारत-प्रशांत क्षेत्र में फैल रहे हैं। हालांकि, भारत के लिए उभरती मास्को-बीजिंग धुरी और पाकिस्तान से रूस की नज़दीकी जो कि ख़तरे की घंटी होनी चाहिए। इसलिए वह अमेरिका के साथ एक सैन्य गठबंधन की वकालत करते हैं और भारत के लिए दो लंबित 'आधारभूत' समझौते सीआईएसएमओए और बीईसीए पर हस्ताक्षर कीबात करते है जिसके लिए अमेरिका दबाव डालता रहा है।"

दोनों पड़ोसियों भारत और चीन के बीच प्रतिद्वंद्विता की धारणा न केवल भारत के शासक वर्ग की महत्वाकांक्षा है बल्कि अमेरिका और उसके सहयोगियों जैसे बाहरी शक्तियों द्वारा भी पैदा की जाती है, जिन्होंने गंभीरता से भारत की 'बड़ी शक्ति' की स्थिति होने का नाटक करके भारत की महत्वाकांक्षाओं को उकसाया। हालांकि भारतीय शासक वर्गों को दोनों देशों की शक्ति की असमानता को स्वीकार करना चाहिए। मिसाल के तौर पर चीन का जीडीपी 12 ट्रिलियन डॉलर न केवल भारत के जीडीपी 2.2 ट्रिलियन डॉलर का पांच गुना है, बल्कि चीन सैन्य शक्ति पर भारत से तीन गुना ज़्यादा ख़र्च करता है। भारत के 58 बिलियन डॉलर की तुलना में चीन 175 बिलियन डॉलर ख़र्च करता है। दूसरी तरफ साल 2018 में यूएस का जीडीपी 20 ट्रिलियन डॉलर है। इसका सैन्य बजट 740 अरब डॉलर का है। ये आंकड़ा इस बात का सबूत है कि अमेरिका चीन से काफी आगे है। हालांकि यह उल्लेखनीय है कि पिछले दो दशकों में यह अंतर कम हो गया है। और बस इतना है कि हम चीजों को परिप्रेक्ष्य में रखते हैं, चीन का वैश्विक अनुसंधान तथा विकास व्यय 21 प्रतिशत है जो कि 2 ट्रिलियन डॉलर है। इसलिए यह अब वैश्विक सैन्य शक्ति नहीं हो सकता है, लेकिन निस्संदेह चीन दुनिया की दूसरी सबसे मज़बूत अर्थव्यवस्था है और अगले 10 वर्षों में संभावित रूप से अमेरिका को आगे बढ़ जाएगा। हालांकि लगता है कि डोनाल्ड ट्रम्प के शासन में अमेरिका ने चीन के लिए और अधिक समस्याएं पैदा की है। मिसाल के तौर पर कोरियाई प्रायद्वीप में व्यापार तथा सैन्य संघर्ष दोनों देशों के बीच बढ़ा है, चीन ने जापान, वियतनाम और भारत जैसे देशों से अपने संवाद को कम कर दिया है। ये देश देखते हैं कि एशिया में अपने श्रेष्ठता पर एक प्रश्न चिह्न के रूप में चीन उनके पास आएगा। साथ ही भारतीय हितों के विरोध के रूप में रूस-चीन संबंधों को समझना मुश्किल है। इस गठबंधन को अमेरिका और उसके सहयोगियों से मुकाबला करने का निर्देश दिया गया है। असल में अटकलों के अलावा दिखाने के लिए सबूतों का एक टुकड़ा नहीं है कि अब तक रूस-चीन संबंध भारत के लिए ख़तरा की तरह है। दोस्तों का दुश्मन बनाना आसान है, लेकिन दुश्मनों को दोस्त में बदलना आसान नहीं है।

इसके अलावा, एशियाई पड़ोसियों के साथ चीन के अपने संबंध में सुधार से भ्रमित नहीं होना चाहिए कि ये कमज़ोरी के संकेत हैं। अमेरिका के साथ व्यापार विवाद की संभावना के चलते चीन के आर्थिक विकास में मंदी हुई। वित्तीय क्षेत्र की गड़बड़ी को साफ करने और घरेलू मांग को बढ़ावा देने के लिए 2015 से अपनी अर्थव्यवस्था की गति कम करने के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। विदेशी व्यापार विवाद के चलते मंदी चीन को घरेलू मांग का निर्माण करने के लिए प्रेरित करेगी। दूसरे शब्दों में, वर्तमान नए विकास परिदृश्य का एक मंज़र है। ये बिंदु इस धारणा से आगे नहीं बढ़ता है कि चीन की अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपने निकटतम प्रतिस्पर्धियों की तुलना में यह अपेक्षाकृत बेहतर है। अपनी श्रेष्ठता पर इतना झुकाव कि अमेरिका और उसके सहयोगियों ने अपने संवाद और शक्ति को बढ़ा दिया है, इसे पीछे की तरफ जाने को मजबूर किया है, जो एक विचारात्मक दृष्टिहीनता है न कि तर्कसंगत यथार्थवाद का प्रतीक है।

इसके अलावा भारत और चीन पड़ोसी ही रहेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके संबंधों की प्रकृति क्या है। हालांकि जब बड़ी शक्ति की महत्वाकांक्षा और अधिपत्य के प्रति प्रतिद्वंद्विता का विचार संबंधों का आधार बनता है तो शांतिपूर्ण ढंग से सह-अस्तित्व में रहना मुश्किल है। चीन-भारतीय संबंधों के कुछ पहलू हैं,जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए। 2014-15 में ज़ाहिर तौर पर आशाजनक शुरुआत के बाद साल 2017 में इस वक्त संबंध बिगड़ गया जब भारत और चीन के बीच डोकलम को लेकर 73 दिनों तक तनाव बना रहा। ज्ञात हो कि इस क्षेत्र पर चीन और भूटान दोनों अपने हिस्से के रूप में दावा करता है। लाइन ऑफ एक्चुएल कंट्रोल को लेकर अब तक पर 19 राउंड की द्विपक्षीय वार्ता हो चुकी है जो साल 2017 में थम गई। इस बीच चीन के साथ व्यापार घाटा साल 2017 में 52 अरब डॉलर हो गया जो भारत के कुल व्यापार घाटे का लगभग 50 प्रतिशत था। भारत ने दक्षिण एशिया के देशों के साथ चीन की बढ़ती अर्थव्यवस्था और सैन्य संबंधों को लेकर असहज हुआ, जिसे भारत अपने प्रभाव के क्षेत्र के रूप में मानता है। भारत हिंद महासागर में चीन के नौसेना के निर्माण क्षेत्र को लेकर भी चिंतित है,जिसके माध्यम से भारत और चीन के तेल तथा अन्य वस्तुओं की ढ़ुलाई की जाती है।

इसलिए, जबकि भारत हिंद महासागर में चीनी प्रयासों से सावधान है, अमेरिका और उसके सहयोगियों की धारणा हिंद महासागर में अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन की पश्चिमी नौसेना की खतरनाक उपस्थिति की ओर से हमें विवेकशून्य बनाने के लिए चीन का मुकाबला करने के बयान का इस्तेमाल कर रहे हैं। ज्ञात हो कि यूएस और उसके सहयोगियों ने अतीत में हम पर शासन किया। मिसाल के तौर पर फारस की खाड़ी में उनकी उपस्थिति न सिर्फ चीनी व्यापार बल्कि भारत के व्यापार पर भी हस्तक्षेप करने में सक्षम है, जो पश्चिमी देशों के साथ भारत के संबंधों को कड़वा कर रही है। अधिकांश देशों का स्थायी हित हैं, लेकिन स्थायी मित्र अमेरिका और उसके सहयोगियों पर भी लागू नहीं होते हैं। हालांकि, यह ज़रूरी है कि किसी के पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध स्थायी हित होते हैं।

विडंबना यह है कि 2008 तक जब हिंद महासागर में चीनी नौसेना की उपस्थिति कम दिखाई दे रही थी तब भारत आस-पास के महासागर और समुद्रों फायदा उठाने की शुरुआत करने के साथ और अपने पड़ोसियों के साथ संबंध बनाने में विफल रहा। मालदीव, श्रीलंका, नेपाल और अब सिचेल्ले (जिसने हाल ही में एजंपशन के कोरल द्वीप में नौसेना स्टेशन स्थापित करने के भारत के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया) जैसे देशों के साथ भारत के संबंध बिगड़े हैं। इन सबके पीछे भारत चीन का हाथ मानता है। हालांकि, चीन ने मालदीव के आंतरिक संकट के दौरान बाहरी हस्तक्षेप को लेकर चेतावनी दी थी। इस आंतरिक संकट के चलते आपातकाल की घोषणा और न्यायाधीशों और नेताओं की गिरफ्तारी हुई थी। दूसरी तरफ चीन ने नेपाल को अपने भौगोलिक क्षेत्र का लाभ उठाने और चीन और भारत को बड़े विकास (सभी तीन देशों को) से जोड़ने के लिए वकालत की है।" इसलिए भारत के लिए आक्रामक होने के नाते चीन के प्रयासों के लिए कोई स्पष्ट मामला नहीं है जिसे बनाया जाए। उन्हें होना भी नहीं चाहिए।

यह सच है कि जब पाकिस्तान की बात आती है तो भारत और चीन की राय में फ़र्क होता है। भारत पाकिस्तान को परेशानी खड़ा करने वाला समझता है और चीन के साथ उसके संबंध को भारत के ख़तरे के तौर पर मानता है। जबकि चीन पाकिस्तान को अपने निकटतम दक्षिण एशियाई सहयोगी के रूप में देखता है। यह भी सच है कि चीन कभी-कभी भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान का इस्तेमाल करता है। हमें यह स्वीकार करने में संकोची क्यों होना चाहिए कि पाकिस्तान जाने वाला रास्ता अब बीजिंग होकर जाता है? ऐसा नहीं है कि भारत-पाक संबंधों में तनाव की वजह अकेले पाकिस्तान है। बल्कि, प्रतिकूल संबंधों को बदला जा सकता है। उल्लेखनीय बात यह है कि सीमाओं पर विवाद के बावजूद चीन और भारत ने पिछले 40 वर्षों में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ एक बार भी गोलीबारी नहीं की है। अंतरराष्ट्रीय मुद्दों और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों पर अक्सर चीन और भारत एक साथ वोट नहीं देते हैं। भारत खुद कई महत्वपूर्ण मामलों पर अमेरिका के साथ मतभेद की स्थिति में है। हाल ही में सेंट्रल ऑयल एंड पेट्रोलियम मिनिस्टर धर्मेंद्र प्रधान ने कहा था कि चीनी नेशनल पेट्रोलियम कंपनी की चिंता एशियाई देशों के पश्चिमी एशियाई तेल निर्यातकों द्वारा लगाए गए एशियाई प्रीमियम के मुद्दे से संबंधित है जो कच्चे तेल का आयात करती है। और उन्होंने दावा किया: "हम कच्चे तेल की ख़रीद, तेल क्षेत्रों की तलाशी, बढ़ी हुई तेल प्राप्ति गतिविधियों और प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए आगे सहयोग पर विचार कर रहे हैं।"

यह मुझे आखिरी बिंदु की ओर ले जाता है। चीन और रूस के बीच तेज़ी से बढ़ते संबंधों को खतरे के रूप में समझने के बजाय कुछ इस तरह देखना चाहिए जो हमारे लिए सकारात्मक सबक रखता है। यदि दो प्रतिद्वंदी एक आम सीमा साझा करते हैं तो ये वास्तव सकारात्मक विकास है। दोनों ने अतीत में तीखे शब्दों का इस्तेमाल और गोलीबारी किया है। इस तरह एक ऐसे समय में जहां अनिश्चितता दिखाई देती है, चीन के साथ सत्ता की असमानता को दूर करने की इच्छा रखने के लिए, अमेरिका के साथ गठबंधन करना एक मूर्खतापूर्ण और हानिकारक परिप्रेक्ष्य है। यह एक संदेश देता है कि भारत रूस और चीन के ख़िलाफ़ पक्ष ले रहा है, और सभी क्षीण परिस्थितियों के साथ अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ खड़ा हो रहा है। भौगोलिक स्थिति की मांग है कि एक दिग्गज पड़ोसी के साथ संबंध भी रहें। भारत सरकार को अमेरिका की तरह क्षीण होती शक्ति के साथ भारत के भविष्य को जकड़ना नहीं चाहिए, बल्कि इसके बजाय चीन के साथ सहयोग और समन्वय के क्षेत्र को विस्तारित करने का लगातार प्रयास करना चाहिए। क्या 'अनौपचारिक शिखर सम्मेलन' हमें उस स्थान तक पहुंचने में मदद करेगा? या क्या यह केवल एक अंतराल होगा, तनाव को कम करेगा, जबकि बीजेपी सरकार चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका द्वारा युद्ध की तैयारी में शामिल होने की अपनी इच्छा के साथ बनी रहेगी और जहां चीन भारत के खिलाफ़ अपने सैन्य संबंधी निर्माण को धीमा नहीं करेगा? प्रबुद्ध स्व-हित को हमें याद करना चाहिए कि इन पड़ोसियों के बीच युद्ध जिसमें बाहरी शक्ति गोलीबारी करती है ज्यादातर इन दो पड़ोसियों के ही विनाश का कारण बनेगी। कहने के लिए यह अमेरिका ही होगा जिसे फायदा होगा। तो अगर घोर प्रतिद्वंदी रूस और चीन अमेरिका का मुकाबला करने के लिए क़रीबी सहयोगी बन सकते हैं तो यह हमारे लिए सबसे अच्छा हिता होगा कि भारत भी अपने क्षेत्र को सुधार सकता है और चीन के साथ संबंधन सुधार सकता है और एक हानिकारक प्रतिद्वंद्विता को समाप्त कर सकता है।

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