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छत्तीसगढ़: जशपुर के स्पंज आयरन प्लांट के ख़िलाफ़ आदिवासी समुदायों का प्रदर्शन जारी 

'हमें लोहे या बिजली की जरूरत नहीं है, हमें खेती एवं वन-उत्पाद पर आधारित उद्योग चाहिए। ऐसी फैक्टरी नहीं चाहिए जो हमारी खेती और वनोत्पाद को बरबाद कर दे...'
छत्तीसगढ़: जशपुर के स्पंज आयरन प्लांट के ख़िलाफ़ आदिवासी समुदायों का प्रदर्शन जारी 
चित्र सौजन्य: मुनादी 

जैसा कि कोविड-19 के नरम पड़ते प्रतीत होने के साथ भारत आर्थिक संवृद्धि की तरफ फिर से लौटने के लिए संघर्ष कर रहा है, स्पंज आयरन प्लांट के विरुद्ध प्रदर्शन व्यापक  होता जा रहा है। यह प्लांट छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले के कांसबेल तहसील के तंगरगांव में स्थित है।

यह कारखाना मां कुदरगढ़ी एनर्जी एंड इस्पात प्राइवेट लिमिटेड का है और वही इसे संचालित भी करता है। इसकी स्थापना 0.462 एमटीपीए (46,2000 टीपीए) स्पंज आयरन,0.52 एमटीपीए (5,20,000 टीपीए) लकड़ी का कुंदा और 70 मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए की जानी है। इस क्षेत्र में रहने वाले जनजातीय समुदाय इस कारखाने की स्थापना का विरोध करते रहे हैं। उनका कहना है कि यह संयंत्र बड़े पैमाने पर पर्यावरण का नुकसान करेगा और प्रदूषण फैलाएगा। आसपास की 10 पंचायतों के ग्रामवासी इस कारखाने की पर्यावरण-मंजूरी पर सुनवाई के दिन चार अगस्त को इसके विरोध में अपने को लामबंद किया है। इन निवासियों ने इस मामले में बड़े पैमाने पर कथित रूप से “फर्जी सहमतियों” के चलते सुनवाई को स्थगित कराने का बीड़ा उठाया है। परियोजना के विरोध में एक जनहित याचिका भी मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में दायर की गई है, जिस पर न्यायालय ने राज्य सरकार, कलेक्टर और अन्य पक्षों को सम्मन भेज कर उनसे जवाब मांगा है। 

स्पंज आयरन उद्योग से फैलने वाले प्रदूषण से यहां के पर्यावरण एवं निवासियों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को लेकर यह मसला पूरे राज्य में बड़ी चर्चा का विषय बना हुआ है। 

स्पंज आयरन को प्रत्यक्ष परिवर्तित लोहा (डीआरआइ) के रूप में भी जाना जाता है। प्रत्यक्ष परिवर्तित लोहा बनाने का एक वैकल्पिक उपाय है, जिसे पारंपरिक भट्ठियों के विस्फोटक की इन कठिनाइयों पर काबू पाने के बाद विकसित किया जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रक बोर्ड (सीपीसीबी) ने स्पंज आयरन को लाल निशान वाले उद्योग की श्रेणी में वर्गीकृत किया था, जो अत्यधिक क्षमता से प्रदूषण फैलाता है। इस वर्गीकरण का आशय था कि उद्योग को प्रदूषण से निबटने के कड़े कायदे एवं मार्गदर्शन की जरूरत है और इसकी नियमित निगरानी एवं निरीक्षण होते रहना चाहिए। हालांकि, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरन्मेंट ने दिखाया है कि ऐसे मामले में नियामक ढ़ांचा भी अनेक अवसरों पर फेल हो गया है। 

इसलिए “इलाके के 600 से अधिक लोगों ने हाल ही में कलक्टर को दोबारा एक पत्र लिखा है। संयंत्र को लेकर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहा है। स्पंज आयरन की फैक्टरी की बाबत लोगों के पिछले अनुभव बताते हैं कि इससे कोयले की राख वायुमंडल में उड़ने लगती है, लोगों को स्किन एलर्जी हो जाती है और उनकी सांस घुटने लगती है। इससे इलाके का पानी, जंगल, जमीन और हवा प्रदूषित हो जाएगी। इन सभी को फैक्टरी से निकलने वाला धुंआ, राख एवं अन्य अवशेष निसृत हो कर प्रदूषित कर देंगे। इससे खेती बरबाद हो जाएगी। सार्वजनिक जीवन एवं वन्यजीवन पर खराब असर पड़ेगा। इस कारखाने से लोगों को जो काम-धंधा मिलने की बात कही जा रही है, वह सच नहीं है," फादर जैकब कुजुर न्यूजक्लिक से बातचीत में कहते हैं। 

फादर ने आगे कहा, “हमें लोहा एवं बिजली की जरूरत नहीं है; हमें खेती और वन उत्पादन आधारित उद्योग चाहिए। यह फैक्टरी नहीं चाहिए जो हमारी खेती एवं वन उत्पाद को ही नष्ट कर दे। हमें ऐसे उद्योग चाहिए जो हमारे वातावरण को स्वच्छ रखे।" 

गांववाले कहते हैं कि कारखाना कंवर एवं उरांव जनजातियों की खेती एवं आजीविका पर बहुत बुरा असर डालेगा, जो इस क्षेत्र का अपना बसेरा कहते हैं। इस संयंत्र की स्थापना को रोकने के प्रयास में, अनेक गांवों के लोगों ने इस महीने 21 जुलाई से धरना-प्रदर्शन किया है। 

जशपुर जिले, जहां यह संयंत्र स्थापित होने जा रहा है, वह पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के तहत आता है-यह जमीन उद्योग को स्थानांतरित की जा रही है, लेकिन उसे ग्राम पंचायत से अभी तक अनुमति नहीं मिली है। कार्यकर्ताओं का आरोप है कि जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया गुप्त रूप से पूरी की गई है। यह करते हुए वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 का उल्लंघन किया गया है।

‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ से संबद्ध आलोक शुक्ला ने न्यूजक्लिक से कहा, "कंपनी का दावा करती है कि उसने इस क्षेत्र में कारखाना लगाने के लिए यहां के एक परिवार से 80 एकड़ जमीन खरीदी है-और चूंकि यह निजी जमीन है, इसलिए इसमें अधिग्रहण प्रक्रिया को अपनाने की कोई जरूरत नहीं है। हालांकि, उद्योग से पड़ने वाले दुष्प्रभावों को ध्यान में रखते हुए और इसे सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाली इकाई के अंतर्गत रखे जाने के मद्देनजर, फैक्टरी की स्थापना में ग्रामसभा की अनुमति की दरकार थी, जो नहीं ली गई। छत्तीसगढ़ में स्पंज आयरन उद्योग को लेकर अभियान चलाया जाना कोई नहीं बात नहीं है। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह समझने की है कि जब छत्तीसगढ़ राज्य बना था तो 2005 से लेकर 2007 के दरम्यान इन अति प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों के खिलाफ बेशुमार प्रदर्शन हुए थे। इन्हीं विरोध अभियानों की वजह से उद्योग हतोत्साहित हो गए थे और उनके कई प्रस्तावों को रद्द करना पड़ा था। हालांकि अब, बघेल सरकार द्वारा औद्योगिकरण की नई लहर का आगाज करने के बीच, पहले की सभी प्रतिबद्धताएं फीकी पड़ गई हैं क्योंकि इस खतरनाक और व्यापक रूप से प्रदूषण फैलाने वाली फैक्टरी को फिर से खोलने के वादे किए जा रहे हैं," उन्होंने आरोप लगाया। 

आवेदनों एवं प्रदर्शनों ने इस तथ्य को भी रेखांकित किया है कि यह इलाका हाथियों का गलियारा है और वन्यजीवों का भी, जो यहां होने वाली औद्योगिक गतिविधियों से बुरी तरह प्रभावित होंगे। केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक, जशपुर का भूजल स्तर भी खतरनाक रूप से न्यून स्तर पर है। इसलिए ग्रामवासियों का मानना है कि अगर फैक्टरी की योजना आगे बढ़ती है तो इस इलाके में जल-संकट का एक दूसरा कारण बन जाएगा। मां कुदरगढ़ी एनर्जी एंड इस्पात प्राइवेट लिमिटेड अपने संयंत्र के लिए मैनी नदी से पानी लेंगे और इसके भी प्रदूषित होने का खतरा उत्पन्न हो गया है।

भारत 2002 से ही स्पंज आयरन का सबसे बड़ा उत्पादक है। विश्व भर में उत्पादित होने वाले स्पंज आयरन का 20 फीसदी भारत में निर्मित होता है। इकाई एवं राज्य सरकार कहती है कि यह प्रोजक्ट प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष करों के जरिए राज्य की अर्थव्यवस्था में उछाल ला देगा, रोजगार देगा और आधारभूत संरचना का विकास करेगा। इस कंपनी ने भी रोजाना 2,000 दिहाड़ी मजदूरों को काम देने का वादा किया हुआ है। हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य के बनने के समय से ही स्पंज आयरन संयंत्र को लेकर विरोध-प्रदर्शन होते आए हैं। विनिर्माण प्रक्रिया के दौरान अत्यधिक ताप निकलता है और उसमें से निकले वाले धुएं में सल्फर एवं कार्बन के ऑक्साइडस एवं बिना जले कार्बन के कण एवं बालू के कण (सिलिका) होते हैं।

डाउन टू अर्थ पत्रिका का आकलन है कि “ये संयंत्र, जिन्हें अधिकतर जनजातीय समुदायों वाले गांवों में स्थापित किए गए हैं, वे स्थानीय अर्थव्यवस्था की संवृद्धि में बहुत योगदान नहीं करते। नौकरी की सुरक्षा के शुरुआती दिलासे के बावजूद, कुछ ही स्थानीय निवासियों को इसमें काम दिया गया है। अधिकतर गांववासियों की पर्याप्त योग्यता न होने का हवाला देते हुए अकुशल मजदूर के रूप में ही रखा गया है। ऐसे लोगों को बीमा और मेडिकल लाभ नहीं मिलते हैं। इस प्रकार फैक्टरी मैंनेजमेंट यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि स्थानीय लोगों के साथ उनका पंगा कम से कम हो, खास कर दुर्घटनाओं के मामले में।" 

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Chhattisgarh: Protests Against Sponge Iron Plant in Jashpur by Tribal Communities Continue

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