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नागरिकता और संविधान

ऑन सिटिजनशिप नामक किताब में भारत के चार बेहतरीन बुद्धिजीवी भारत में नागरिकता का गठन करने वाले प्रमुख पहलुओं में गहराई से उतरते हैं। नागरिकता को लेकर सत्तारूढ़ सरकार की तरफ़ से लिए गए हालिया विवादास्पद फैसलों को लेकर ज़बरदस्त बहस होती रही है।
नागरिकता और संविधान
Image courtesy : Aleph Book Company

‘ऑन सिटिजनशिप’ नामक किताब में भारत के चार बेहतरीन बुद्धिजीवी भारत में नागरिकता का गठन करने वाले प्रमुख पहलुओं में गहराई से उतरते हैं। सत्तारूढ़ सरकार की तरफ़ से नागरिकता के संदर्भ में लिए गए हालिया विवादास्पद फैसलों के नतीजे में इस मुद्दे को लेकर ज़बरदस्त बहस होती रही है।

अपने लेख 'नागरिकता और संविधान' में कानून के विद्वान और लेखक गौतम भाटिया नागरिकता से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों की पड़ताल करते हैं। वह दिखाते हैं कि संविधान का भाग-II 'भारतीय नागरिकता के उस नज़रिये को किस तरह स्पष्ट करता है, जो समग्र रूप से भारतीय संवैधानिक पहचान के साथ जुड़ा हुआ है और यह नज़रिया है-धर्मनिरपेक्ष, समतावादी और गैर-भेदभावपूर्ण'।

भाटिया के निबंध का एक अंश यहां प्रस्तुत है:

1947 में जब देश ने भारतीय संविधान को तैयार करने की अपनी महान परियोजना की शुरुआत की थी, उस समय संविधान सभा को अपनाने के लिहाज से मुश्किल विकल्पों का सामना करना पड़ा था और ये विकल्प थे: भारतीय नागरिकता की एक समावेशी और सार्वभौमिक दृष्टि, या फिर एक ऐसा तंग नज़रिया जो भारतीयता के दावों को प्राथमिकता देने के लिहाज़ से सामाजिक दर्जे में एक मनमानी की जगह देता हो। आजादी से पहले भी संविधान सभा अपने इस विकल्प को लेकर स्पष्ट थी, उसने पहले वाले विकल्प को चुना था।

आजादी, विभाजन की हिंसा और उससे पैदा हुई कटुता और धर्म पर आधारित एक देश के रूप में पाकिस्तान की स्थापना ने उस प्रतिबद्धता का कड़ा इम्तिहान लिया था। बंटवारे के बाद बड़े पैमाने पर हुए उस प्रवासन ने संविधान सभा को उन शरणार्थियों के लिए गुंजाइश बनाने को लेकर हाथ-पैर मारने के लिए मजबूर कर दिया, जो अभी-अभी दोनों तरफ खींची हुई सीमाओं से हुआ था, उनमें से कई तो धार्मिक हिंसा में अपनी जान बचाकर भागकर आये थे। संविधान सभा में कुछ ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने सुझाव दिया था कि इस पल का मुकाबला करने का एकमात्र तरीका यही है कि पाकिस्तान की तरह, धार्मिक आधार पर भारतीयता का मॉडल बनाया जाए और कुछ पहचान के साथ भारत को एक स्वाभाविक मातृभूमि के रूप में माना जाए, लेकिन बाकियों की लिए कोई जगह नहीं हो। इसके पीछे की मंशा एकदम साफ थी और संविधान सभा ने उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। जब संविधान सभा ने इतिहास में सबसे बड़े इस मानव पलायन से निपटने वाले प्रावधानों का मसौदा तैयार करते हुए बार-बार विचार कर रहा था, तो इसने धार्मिक या जातीय राष्ट्रवाद के बजाय सार्वभौमिक नागरिकता और नागरिक के प्रति संवैधानिक प्रतिबद्धता को नहीं छोड़ा था।

बहस और असहमतियों के जरिये संविधानसभा आखिरकार एक समग्र संवैधानिक दृष्टि, गणतंत्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, समानता और गैर-तरफदारी, और समावेशन के सिद्धांतों पर स्थापित एक नजरिये का समर्थन करते हुए सामने आयी। संविधान के ताने बाने को कुछ इस तरह बुना गया कि नागरिकता वाले अध्याय को उसका एक अभिन्न अंग बनाने वाले धागे की तरह पिरोया गया। अपने इस लेख में मैंने यह दिखाने की कोशिश की है कि नागरिकता के उन अनुच्छेदों को अलग-थलग करना, और उनमें नागरिकता को लेकर धार्मिक परीक्षण शुरू करने की अनुमति देने का मतलब उस ताने-बाने को उधड़ने से कम नहीं होगा। या फिर, अगर इसे संवैधानिक शब्दों में कहा जाये, तो धर्मनिरपेक्षता और गैर-तरफदारी के प्रति संवैधानिक प्रतिबद्धता संविधान के अनुच्छेद 11 के तहत नागरिकता निर्धारित करने के लिहाज से संसद की शक्तियों पर एक निहित सीमा के रूप में कार्य करती है। राजनीतिक समुदाय में दाखिल होने की शर्त के रूप में नागरिकता नहीं हो सकती, जो राज्य व्यवस्था की संस्थापक पहचान को ही मात देती हो, जो संविधान में निहित पहचान है।

मुझे उम्मीद है कि यह पाठ संविधान के दूसरे अध्याय के लंबे समय से चले आ रहे प्रावधानों को जीवंत करने में मदद करेगा। ऐसा नहीं है कि बंटवारे के बाद पेश आये शरणार्थी संकट के खात्मे के साथ ही अनुच्छेद 5 से 8 की प्रासंगिकता समाप्त हो गयी हो। सत्तर साल बाद भी इन प्रावधानों की सख्त सार्वभौमिक और गैर-तरफदारी की भाषा उस रास्ते की याद दिलाती है, जिसे संविधान सभा देश को चलाने के लिए चुन सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया था। ऐसे समय में जब धार्मिक घृणा और उत्पीड़न की आग अपने चरम पर थी, सांप्रदायिक नागरिकता की उस अस्वीकृति में भारतीय संविधान का यह नागरिकता वाले अध्याय का सार्वभौमिक मानवतावाद वास्तव में आज भी चमकता है।

(यह एलेफ़ बुक कंपनी द्वारा प्रकाशित ‘ऑन सिटिजनशिप’ (2021) में गौतम भाटिया के निबंध का एक अंश है। प्रकाशक की अनुमति से इसे यहां फिर से प्रकाशित किया गया है।)

(गौतम भाटिया कानून के विद्वान और लेखक हैं। उनके निबंध ऑक्सफॉर्ड हैंडबुक फॉर द इंडियन कंस्टिट्युशन, मैक्स प्लैंक इनसाइक्लोपीडिया ऑफ कंपेयरेटिव कंस्टिट्युशनल लॉ और कॉन्स्टलेशन्स और ग्लोबल कंस्टिट्युशनलिज्म जैसी पत्रिकाओं में छपे हैं। इनकी तीन किताबें- ऑफेंड, शॉक, ऑर डिस्टर्ब: फ्रीडम ऑफ स्पीच अंडर द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन, द ट्रांसफॉर्मेटिव कॉन्स्टिट्यूशन: ए रेडिकल बायोग्राफी इन नाइन एक्ट्स, और एक उपन्यास, द वॉल प्रकाशित हुए हैं ।

साभार: इंडियन कल्चरल फोरम

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Citizenship and Constitution

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